कविताएँ और तस्वीरें ::
शोभा प्रभाकर

शोक मत करना

नई उगी पत्ती को निहार लेना,
हाथ बढ़ा कर छू लेना।
टहनी से गिरने से पहले,
मुरझाते हुए फूलों को आशीष दे देना,
शोक मत करना।

अपने चेहरे पर उबलते हुए पानी की भाप महसूस करना,
और देखना कैसे धीमी आँच पर उबलता पानी
बिना छलके, उबलते-उबलते बस थम जाता है।
शांत पानी में अपना अक्स देख लेना,
शोक मत करना।

दीवारों के कान होते हैं, मुँह नहीं,
फिर भी एक ख़ाली दुपहर दीवारों को सुन लेना।
एक भोर जल्दी उठ जाना,
अपनी हथेलियों को ठीक बीचोंबीच चूम लेना,
शोक मत करना।

अगर तुम्हारे मन की सबसे निचली सतहों के भावों को
पात्र न मिल सके,
रोशनदानों से झरती धूप को दृष्टि दे देना,
शोक मत करना।

पात्र ढूँढ़ने की चेष्टा तो हरगिज़ मत करना!

यथावत

कितने वर्षों से मेरी आत्मा
मलिनता का बोझ ढो रही है।

एक गहरी साँस
ठीक मेरी छाती के बीच
तूफ़ान की तरह घूमती है
और एक खाई में विलीन हो जाती है।

मैं जीवित कैसे हूँ?

तुमने तीन बार पुकारा—
मेरे होंठों पर जमी पपड़ी
तब भी यथावत है।

मेरी देह की संवेदनाएँ
मुझे एक-एक कर चिढ़ाती हैं।

मेरा विकार-ग्रस्त हृदय
किसी घड़ी के समान
मात्र एक यंत्र।

मैं कैसे इस दोषपूर्ण हृदय से
तुम्हें मंगल-भावनाएँ
प्रेषित करूँ!

मैं बन जाऊँ
समुद्र-तल का—
अडिग विशाल पत्थर

या फिर नीलाम्बर
जिसे छूने के लिए आठों ग्रह
अपनी धुरी पर अनवरत
असफल चक्कर काटते।

ऐसी भी होती है प्रतीक्षा।

उपज

ज़रूरी था कहना,
मैंने कह दिया।
तब भी मन हल्का नहीं हुआ।
सिर्फ़ कहने के दुःख ने घेर लिया।

आरोपों के कोई घर नहीं!

मैंने अंजुलि में मुँह ढाँप लिया,
गहरी साँस ली और मैं लौट आई।

और प्रीति?

उसे मैंने मिट्टी में रोप दिया।
उसकी उपज के अनमने हरे को
अतृप्त चक्षुओं में भर लूँगी!

स्मृतियाँ

एक

पुराने संदूक़ों में,
गैरज़रूरी सामान की तरह
पड़ी रहती हैं बंद।
स्मृतियाँ मरतीं नहीं,
धँस जाती है।

दो

मैंने तुम्हारी
स्मृतियों को
मनरूपी
कैनवस पर
सूख जाने
के लिए
चढ़ा दिया है।

वक़्त लगेगा,
रंग अभी
गीले हैं।

तीनों में से

तुम थे,
वक़्त था,
मैं नहीं।

मैं थी,
वक़्त था,
तुम नहीं।

मैं हूँ,
तुम हो,
वक़्त नहीं।

वक़्त रहेगा,
मैं नहीं,
तुम नहीं।

असुरक्षाएँ

सच है,
तुम्हें मेरे प्रश्नों के
उत्तर देने की
ज़रूरत नहीं थी।

मेरे माथे पर
तुम्हारी नर्म हथेली की
ऊष्मा भरी
नन्ही थाप
ही काफ़ी थी।

मेरी सभी असुरक्षाएँ
स्वत: ही मोम की तरह
पिघल जातीं।

निवेदन

एक शाम उजाले में मिलना,
जब उदासी चरम पर हो।
मिलने के लिए नहीं,
रोने के बहाने से!

चुप रहने की वजह मत पूछना।
न आँखों में झाँकने की ही कोशिश करना।
कंधे पर हाथ तो बिल्कुल मत रखना।
मिलना रोने के बहाने से,
लेकिन रोने मत देना।

तुम अपनी हथेलियों की गुलाबी
मेरे गालों को दे देना,
लेकिन मेरी पलकों को अछूता रखना।

अपने गाँव के बच्चों को
सुनाई हुई कहानियाँ दुहराना।
अपने आम के बग़ीचों का ज़िक्र करना।

बताना उन बदमाशियों के बारे में,
जो तुमने अल्हड़पने में की थीं।
तुम्हें अब देखकर मैं ताज्जुब करती रहूँ।

तुम मुझसे हर फ़िज़ूल बात कर लेना।

उस दौर में ले जाना
जिसकी कल्पना भर कर,
मैं भरसक हँसती रहूँ।
भय, निराशा, अन्यमनस्कता
मुझे छू भी न पाए।

ऐसा करना,
किसी और तरीक़े से सही,
अपने हिस्से की थोड़ी आँच दे ही देना।
और गर पिघल जाऊँ,
तो मत पोंछना आँसू,
रोने देना,

बेहिसाब!

शोभा प्रभाकर की कविताओं के प्रमुखता से प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। यहाँ प्रस्तुत कविताओं पर काफ़ी कुछ कहा जा सकता है, लेकिन उसे कवयित्री की आगामी कविताओं के प्रकाशन के अवसर के लिए सुरक्षित रखने के इरादे से स्थगित भी किया जा सकता है। फ़िलहाल यहाँ यही किया जा रहा है। शोभा से lettertoshobha@gmail.com पर बात की जा सकती है।

5 Comments

  1. अनुराधा अक्टूबर 16, 2020 at 2:17 अपराह्न

    बेहद ख़ूबसूरत। एहसासों को जगाने वाले शब्द।

    Reply
  2. शुभ अक्टूबर 16, 2020 at 8:09 अपराह्न

    वो जो आम के बाग़ीचों की, गाँव के बच्चों की बातें कर गया, तुम्हारे पास रो गया ; वो औरों से भी वही बातें कर लेता है। सभी को एहसास दिलाता है की तुम ख़ास हो, मेरे दिल के क़रीब …

    Reply
  3. Gunjan Upadhayay Pathak अक्टूबर 23, 2020 at 11:37 पूर्वाह्न

    बेहद खूबसूरत और संजीदगी से लिखा गया है ,

    Reply
  4. Shyam Singh अक्टूबर 24, 2020 at 7:19 पूर्वाह्न

    Bahut khoobsurat

    Reply
  5. Lata khatri फ़रवरी 11, 2021 at 1:05 अपराह्न

    मन से होकर गुजरने वाली रचनाएं

    Reply

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