कविताएँ ::
प्रज्वल चतुर्वेदी

प्रज्वल चतुर्वेदी

अचानक

यूँ ही अचानक याद किया जाना
कितना मृत्युपरक है
एक गहरी नींद
जैसे टूट जाती हो
किसी सपने के धक्के से,
किसी बुरे ख़याल से
अचानक
उठ बैठता हो
जैसे दबाया गया मिट्टी का ढेर

किसी लंबे इंतज़ार को
अचानक
का नाम देने से
समय
कम नहीं होता

अचानक कोई कविता
जीवित नहीं होती

अचानक होती है
तो सिर्फ़
मौत
लेकिन किसी प्रतिष्ठित
व्यक्ति की

दूसरे का बोझ
ढोने वाला
नहीं मरता
अचानक।

संसद में सड़क

मेरे शहर की
समूची सड़कें—
टूटी-फूटी, सँकरी,
पगडंडियों के बीच
दस-बीस मीटर लंबाई वाली
नाम की नाक रखने वाली सड़कें
मिलकर निकल गई हैं—
संसद की ओर

क्षुधाक्रांत-पदों तले दलित
परमात्मा के अंशजों से बोझिल
शहर में थ्री-पीस से
इज़्ज़त ढाँपती
गाँव में नंगे बदन घूमती
गड़हे-नालियों में गुमशुदा अस्तित्व को
सूक्ष्मदर्शी से खोजती हुई,
खिन्न मानस,

संसद में सड़कें
अपने नए अस्तित्व पर
रिसर्च करने का
अनुदान लेने आई हैं

फटीचर आसन का महाराजा
अभी अपनी गद्दी सिलवाने में
व्यस्त है।

ख़ामोशी

ख़ामोश हो तुम आज
कल तो हँसे थे
एक ही दिन में कौन-सा दुःख
आ धमका?

ये गरम साँस तुम्हारी
विस्फोट-सी,
जब निकलती है
तो ज़रा-सा खिल जाते हो
लेकिन आज कुछ ख़ामोश हो

विचित्र लग रहा है,
बोलूँ या नहीं तुमसे
यही बता दो,
क्या शब्दों का व्यापार
हो पाएगा,
हमारे बीच
क्योंकि आज ख़ामोश हो तुम

अच्छा, मत बोलो,
आँखें पढ़ने दो अपनी,
धवलता पर कालिमा की चित्रलेखा पढ़ने दो

कोई तूफ़ान,
तो नहीं लाओगे न?
क्योंकि आज
कुछ ख़ामोश हो तुम!

सीमा

जब तुम बाल-भर ऊँची
दीवार को फाँदकर अंदर घुसो,
दीवार के उस पार रहने वाले
तुम्हें मारने पर आमादा हो जाएँ
तो सीमा लाँघी जा चुकी है

सीमा
बाल-भर चौड़ी
बाल-भर ऊँची
बाल-भर पतली होती है
लेकिन सीमा होती है

जो भागकर छिपा हो
समझो कि डर गया है
उसे खोजो और मार डालो

मच्छरदानी में घुसे मच्छर को
मरना पड़ता है!

बंद आँखों से देखना

कहीं से उठकर आवाजों में
घूमते-घामते आए मुझ तक
तुम्हारे कृत्य
यह सच है
मैंने उन्हें घटित होते हुए सुना है
फिर कल्पना की है
आँखे बंद करके देखा है

किसी झरोखे के पार
पर्दे डालकर बैठे हुए ईश्वर के इयर-पीस ने
तुम्हारी विवशताओं को
वैसे ही नज़रंदाज़ किया है
जैसे की झरोखे और पर्दे ने तुम्हारे दोषों को

मैंने बहुत चाहा है ऐसा झरोखा होना
जिसके दोनों तरफ़ मौन बना रहे
(जिसे पढ़ने और सुनने में
सबसे ज़्यादा ताक़त लगती है)

मैं अब सिर्फ़ सुनता हूँ
सज़ाएँ और पाप
फिर उनकी तुलना करता हूँ
विवशताओं का तर्क देता हूँ
और फिर सोचता हूँ
ग़लती से चोट लगने पर भी दर्द होता है

मेरी हर कल्पना में अँधेरा हुआ करता है
और आँख बंद करने पर
सपनों से भरी हुई नींद की इच्छा

इतना तो लाज़मी है!

प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताओं के प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ ‘सदानीरा’ को सुपरिचित कवि-लेखक बसंत त्रिपाठी के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं, इस परिचय के साथ—”प्रज्वल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.ए. तृतीय वर्ष के छात्र हैं। वह संकोची, लेकिन कविता के प्रति लगभग जुनूनी हैं।’’ प्रज्वल से farfromthemaddingcrowd2633@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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