कविताएँ ::
शचीन्द्र आर्य

स्मृति की रेखाएँ
स्मृतियों को भी सब कहाँ रखते होंगे?
क्या कोई याद रख पाया है उसे,
जो आज तक देखा, सुना।
जो न देखा, न सुना
उसे कैसे कोई याद रखेगा?
कुछ भी तो समझ नहीं आता कभी-कभी
जैसे इस खिड़की से आती हुई
ठंडी हवा की उम्र कितनी है
जो रौशनी और ताप सूरज से आ रहा है
वह रौशनी किस-किसको दिख रही है
और किस-किसको ताप महसूस नहीं हो रहा है?
जो रंग हैं,
ओस की बूँद है,
फूलों की महक है,
उन्हें कोई कैसे अपने पास रख पाया है?
मुझे ख़ुद से पूछना है,
क्या वे बातें भी मुझे याद हैं,
जिन्हें कभी अपनी आँखों के सामने
घटित होते नहीं देखा
हो सकता है, इसे ही याद कहा जाता हो
जो देख लिया, वह तो भूला ही नहीं कभी जैसे
अलमारी और उसमें रखे एलबम
भले एक कमरा था,
वह हमारा घर था।
उसी में थी एक अलमारी,
दीवार में चुनी हुई।
लकड़ी के दरवाज़े थे उसके
सीमेंट और सरिये की एक ही स्लैब
उसे दो भागों में बाँट देती थी।
उसकी ऊँचाई रही होगी
कुछ सात-आठ फुट
उसी में थे, साल में एक बार खुलने वाले
लोहे के बक्से, कुछ कनस्तर,
एक छोटा सा लोहे का ट्रंक
अम्मा की अटैची,
पिता का बहुत सारा ज़रूरी सामान।
वहीं उसकी दीवार पर
गोंद से चिपकी हुई दो तस्वीरें।
उनमें बाबा और दादी थे
उन दोनों तस्वीरों में रंग नहीं थे
काले और सफ़ेद के अलावा।
इसी अलमारी के ऊपर वाले ताखे में
रखे हुए थे बहुत सारे एलबम
बहुत सारी, बहुत पुरानी तस्वीरों वाले
थोड़े फटे
पर सँभाल कर रखे हुए एलबम।
अक्सर गर्मियों में जब नहीं जा पाते थे,
हम सब गाँव
तब किसी अलसाई,
गरम दुपहर में,
जब पिता नहीं होते थे घर पर
अम्मा से पूछ कर हम खोल लेते थे,
यह सारी खिड़कियाँ
यह खिड़कियाँ ले जाती थी,
समय में बहुत पीछे
इतना पीछे,
जब हम भी नहीं थे,
इस दुनिया में कहीं।
शाम जब पिता लौटते,
तब तक हम वहीं होते,
कुछ-कुछ अपने अंदर से बहुत भरे हुए,
कुछ रुआँसा,
कुछ ऐसे जैसे भीग गयी हो एक ईंटिया दीवार,
अंदर आ गई हो सीलन
जैसे हम अभी वक़्त में पीछे जाकर लौटे हों
इस लौटकर आने में समझ न पा रहा हो,
हमारे साथ वहाँ क्या हो गया
थोड़े-थोड़े हम वहीं छूट जाते
साथ ला ही नहीं पाते ख़ुद को।
इतने सालों बाद,
जब इस बात की याद को सोच रहा हूँ
तो लगता है, सब वहीं वक़्त में पीछे दर्ज है।
आज अलमारी को ख़ुद में
समेटे रख पाने वाला वह घर कहीं नहीं है।
उसे पाँच साल पहले तोड़ दिया,
वो सारी खिड़कियाँ वहीं रह गईं।
तब से वह सारे एलबम कहाँ है,
किसी को नहीं पता।
किसी को नहीं पता,
कहाँ गुम हो गए हमारे सारे दिन।
इसी में ख़ुद को देखता हूँ
तो थोड़ा-थोड़ा घर
थोड़ा-थोड़ा अलमारी
और थोड़ा-थोड़ा तस्वीरों वाले एलबम
सब कुछ बना हुआ महसूस करता हूँ।
लगता है, वह जो छूट गया,
मुझमें कभी छूट ही नहीं पाया
हर बार किसी लिखी,
किसी अनलिखी पंक्ति में
ख़ुद को अलमारी वाला घर पाता हूँ
और दोहराते रहना चाहता हूँ
वही सारे पुराने दिन
जो मेरी तरह कहीं इसी दुनिया में खो गए हैं।
सफ़ेद क़मीज़ : एक पहनी हुई याद
एक
कभी-कभी सफ़ेद क़मीज़ के बारे में सोचता हूँ।
ऐसा अक्सर तब होता है,
जब उसे पहन घर से सुबह जल्दी निकलना पड़ता है।
अगर नौकरी
दिल्ली में न होती,
तब यह किसी क़स्बे में होती।
रोज़ सुबह बहराइच से बाबागंज,
अलीगढ़ से दिल्ली या
पयागपुर से नानपारा के सफ़र में कहीं होता।
तब चालीस किलोमीटर के लिए
कोई पैसेंजर होती।
इतनी सुबह तो रेल में लेट गया होता,
कितना तो वह बीच में खड़ी होकर,
ख़ुद सुस्ता रही होती।
लेटने से पहले
उसके पहियों की सुस्त रफ़्तार में
उतने ही सुस्त हाथों में बहुत क़रीने से
अपने बस्ते की चेन खोलकर पुरानी कतरन निकालता,
उससे ऊपर की सीट से धूल उड़ाकर साफ करता, तब लेटता।
लेटे-लेटे बार-बार आस्तीनों को देखता।
सोचता, बच गई। अभी पूरा दिन बचा है।
इतने पर भी बात ख़त्म न होती,
सोचता कैसे निकलेगा सारा दिन,
इसे बिन गंदा किए? कैसे खाऊँगा खाना,
किस कुर्सी पर बैठ कर सारा दिन गुज़ारूँगा।
कोई ऐसा काम नहीं करूँगा,
जिससे धूल या मिट्टी में जाना पड़े मुझे।
मन में कंधे, कोहनी, पीठ की तरफ़
झाँक कर देखने की कोई इच्छा नहीं होती।
इतने पर तय करता, नहीं सोचूँगा,
बाज़ू कितनी गंदी होगी,
कॉलर कितने गंदे होंगे,
कितने गंदे होंगे इसके रेशे-रेशे।
दो
वापस लौटने पर मन यही सब दोहरा रहता होगा,
मालूम नहीं। शायद लौटते वक़्त,
क़मीज़ के अलावा कुछ भी ध्यान नहीं रह पाता होता।
जैसे सब पिघलता रहता है
बस सोचता रहता,
क़मीज़ जहाँ से गंदी हो चुकी है,
वहाँ से साफ़ भी हो जाएगी।
धोने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा आज।
यही सब
रुमाल, मोजे,
जूते, पैंट सबके बारे में सोचता
पर अभी तक कह नहीं पाया हूँ,
उनके बारे में एक भी शब्द।
कभी कहूँगा,
कैसे गंदा होता है रुमाल,
मोजे जूते में रहते हुए भी किस तरह मैले हो जाते हैं
क़मीज़ के नीचे,
कमर से शुरू होती पैंट कैसे गंदी हो जाती है।
लेकिन आज सिर्फ़ सफ़ेद क़मीज़ के बारे में
वही है,
जो इंद्रधनुष जैसी लगती है मुझे
सभी रंगों को अपने में
घोल ले जाने वाली मेरी सफ़ेद कमीज़।
सुख की दुकान
जिस-जिसको भी हम सुख मानते हैं,
वह डोसा खाने जितना आसान होता तो क्या होता।
कोई न कोई दुकान तो होती डोसे की,
जिसे हम बहुत पहले से जान रहे होते।
जाकर वहाँ बैठ जाते,
बैरा के आने पर
बैरा से मँगवा लेते
अपनी पसंद का डोसा बैठे-बैठे।
कोई ठेला होता
मॉडल टाउन का
तो भी वो हमारी बात सुनकर
चपटे तवे की सतह पर
पानी की बूँदों को भाप बनाते
बना ही डालता कैसा भी डोसा।
भले वहाँ खड़े-खड़े ही खाना होता
पर अपनी बारी आने पर खा आते डोसा।
क्यों नहीं है,
डोसा खा लेने जितना आसान
किसी भी सुख को पा लेना?
नदी वाला शहर
बैठे-बैठे चाय के इंतज़ार में ख़याल आया,
नदियों से जितना जल्दी हो सके,
हमें दूर चले जाना चाहिए।
नदियों से दूरी ही नदियों को साफ़ करने का
एक तरीक़ा बनकर दिखाई दे रहा था।
चाहता था,
जितनी जल्दी हो सके,
इस नदी वाले शहर से दूर हो जाऊँ।
फिर एक दिन आया,
इस शहर में नौकरी लग गई मेरी।
बचपन की बस
बहुत पीछे छूट गए
माँ के पल्लू में बँधे हुए सिक्के
नदी आने पर पुल से
उन सिक्कों को
खिड़की से बाहर नदी की
तरफ़ उछाल देने का उतावलापन
बहुत पीछे छूट गए
इन बसों में कच्चे नारियल की
फाँकों पर सफ़र गुज़ार देने वाले दिन।
कोई नहीं बेचता अब फरेंद पूरे रास्ते।
मौसम बदल गया
या कुछ और वजह है
जिसकी वजह से अब नहीं मिलते,
काँच के धारीदार गिलासों में
संतरे, मौसम्मी का रस निकालते हुए,
उन गिलासों को भरने का जादू दिखाते हुए वह जादुई लोग?
कहाँ गुम हो गए चाँदनी चौक,
फ़व्वारा से छपने वाली
घरेलू नुस्ख़ों की लुगदी काग़ज़ पर छपी किताबें बेचने वाले।
क्यों ‘सांध्य टाइम्स’ भी कहीं किसी
बस की सीट में कोंचा हुआ नहीं मिलता।
क्यों अब बसों में बैठे
खिड़की से बाहर झाँकता
क्यों माँ साथ नहीं होती।
शचीन्द्र आर्य हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-गद्यकार हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह चौथा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : मैं छूना चाहता हूँ हर बहता हुआ आँसू