कविताएँ ::
शचीन्द्र आर्य

शचीन्द्र आर्य

अंतराल

उस अंतराल में जब बूँद बादल से गिर रही थी और अभी भी धरती पर नहीं पहुँची थी, मैं सपने में था।

गिरते हुए बिल्कुल उसके साथ कहीं धरती और आकाश के बीच में कहीं स्थित था मैं।

जैसे जहाँ से चला था,
उस स्रोत से मुझे भी कहीं किसी नियत लक्ष्य तक पहुँच जाना था।
नहीं पहुँच पाया था, अब तक। उस बूँद की तरह।

इस अंतराल में जो भी समय व्यतीत होता रहा, उसमें ख़ुद को असमर्थ समझने के सिवाय मेरे पास कोई और दूसरा मानक ख़ुद को मापने के लिए नहीं था।

मुझे बूँद होना था, बारिश की। मैं हुआ समुंदर का पानी।
इसमें ही सब उलट गया था, मेरी कल्पना के भीतर। अभी तो बहुत लंबा सफ़र बचा हुआ है। यह जो वाष्प होने के बाद वाली बूँद है, जो गिरती है आसमान से, उस तक पहुँचने में कितनी तो ग़ायब हो जाती होंगी कहीं। कोई लेखा-जोखा नहीं रखता होगा।

यहीं मेरा ख़्वाब टूट जाता है, हर बार।

वह बूँद ऊपर से नीचे आ रही होती है और मैं बूँद बनकर नीचे से ऊपर जा रहा होता हूँ। हर बार। हर सपने में।

घड़ी

वक़्त घड़ी से निकलकर कब बाहर आया होगा
और
कब उसके भीतर चला गया यह एक पहेली ही थी।

दिन, रात, सुबह, शाम पहले भी रहे होंगे।
तब घड़ी नहीं रही होगी।
धूप, बारिश, कोहरा, उमस पहले भी रहे होंगे।
तब भी घड़ी नहीं रही होगी।

घड़ी के आने के बाद क्या-क्या बदल गया होगा?

सिनेमा हॉल के मैटिनी शो की भीड़
दो बीस पर आने वाली मैलानी पैसेंजर की चाल
खाना खाने के बाद घंटाघर पर खड़े महेंदर की रेहड़ी
या अभी उस तरफ़ से आते हुए
तुम्हारी देह से रिसती हुई भीनी-भीनी पसीने की गंध

कुछ भी तो समझ नहीं आता।

यह वक़्त हरदम शहर में
नदी की तरह सड़कों पर बहता हुआ दिखाई पड़ता है।
पहले-पहल
सड़कें शहर में शहर की घड़ी के मानिंद बिछ गई होंगी।
उनके सर्पिल विस्तार ने सब कुछ ढक लिया होगा।

फिर कभी मुझे तुम्हारे साथ इस नदी में कभी डूबना नहीं था।
हमारे बीच यह तय नहीं हुआ था। पर क्या करूँ?

तुम ही थी जो पैदल चलते हुए मुझे वहाँ मिली।
मुझे लगा तुम तैर रही हो।

कितनी तो तुम सुंदर लगी थी मुझे,
और डूब तो मैं तभी गया था, जब तुमने कहा था,
दिन और रात भी तब होंगे, जब हम उन्हें दिन और रात कहेंगे।
बिल्कुल उसी पल से,
जबसे तुमने यह कहा है,
तब से न दिन हुआ है, न रात हुई है।
न कोई महीना बदला है, न कोई साल आया है।

तब वह पहेली
मेरे लिए हमेशा के लिए सुलझ गई।

तब महसूस हुआ,
कभी यह भी कोई सवाल रहा होगा।

अब मुझे पता है,
वक़्त घड़ी से निकलकर
कब बाहर आया होगा
और
कब उसके भीतर चला गया होगा।

क़ुतुब मीनार खड़े-खड़े थक गया होगा

चाचा की क़ुतुब मीनार के साथ एक तस्वीर है,
जिसमें क़ुतुब मीनार उनके पीछे हैं।

तस्वीर रंगीन है।
इतने साल बाद उसकी रंगत कुछ कम हुई है।
याद इस तरह धुँधली होती तब क्या बात होती।

इसमें मैं भी हूँ। बहुत छोटा। गोद में समा जाने वाला।
पर इसे चाचा की तस्वीर ही कहूँगा।

मुझे नहीं पता, जो चाचा की पीठ पीछे खड़ा है, वह क़ुतुब मीनार है।
मुझे यह भी नहीं पता कि जब क़ुतुब मीनार गए होंगे,
तब सात सौ पच्चीस नंबर की बस कहाँ से पकड़ी होगी?
ताल कटोरा तक पैदल ही गए होंगे—धीरे-धीरे।

इसमें अम्मा भी चाचा के बग़ल खड़ी हैं।
चंद्रभान भी तब बहुत छोटे ही हैं। उन्हें छोटा ऐसी पुरानी तस्वीरों में ही देखा है।
तस्वीर में जो नहीं दिख रहे हैं वह पिता हैं। जो तस्वीर खींच रहे हैं।

तो कुल मिलाकर कितने लोग हुए?
उँगली पर गिन कर देखिए।
कुल पाँच लोग।
चार तस्वीर में। एक उसे खींचने वाले।

चाचा अब पैंतीस साल पहले की उस तस्वीर में ही रह गए हैं।
उसके बाहर कहीं नहीं हैं।

सोचता हूँ,
कितने सारे लोग आज तक जिस क़ुतुब मीनार को देखने आए
उन्होंने क़ुतुब मीनार को देखा, उसकी यादों को सहेजकर ले गए
आगे भी आने वाले समय में कितने सारे लोग क़ुतुब मीनार को देखेंगे।

एक दिन होगा, हम भी सिर्फ़ तस्वीर में रह जाएँगे।
हमारे पीछे बचा रह जाएगा, यह क़ुतुब मीनार।

मैं नहीं चाहता वह मेरे लिए कुछ देर ठहर कर सोचे।
मैं सिर्फ़ इतना चाहता हूँ, वह चाचा के बारे में सोच कर देखे।
उसे देखने आए कितने सारे लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं।
वह उनकी स्मृतियों को इकट्ठा करे
और कुछ देर अपने दाएँ गाल पर हथेली रखकर वहीं हरी-हरी घास पर बैठ जाए।
कितने सारे लोग तो उसे एक झटके से याद आ जाएँगे।
हमारे चाचा तक आते-आते तो बहुत देर हो जाएगी। पता नहीं कितना समय लग जाए।

मुझे लगता है,
उसे यह काम तो बैठ कर करना चाहिए।

क्षण

एक

कई दिनों से लिखने के लिए ऐसे क्षण की प्रतीक्षा में हूँ,
जब यह लिखे जाने वाली घटना मेरे अंदर दुबारा उसी तरह घटित हो,
जैसे वह उस रात हुई थी।

कई बार कोशिश करने के बाद भी
किसी युक्ति से उन पलों को अपने अंदर दुबारा घटित नहीं कर पाया हूँ।
यह एक दुखद घटना की पुनरावृत्ति नहीं है।
यह किसी अनचाहे खटके से कहीं पहले उसे दर्ज कर लेने की छोटी-सी इच्छा है।

सच, यह बहुत छोटी-सी घटना को लिख लेना है,
जिसमें आगे कुछ भी घटित होता हुआ नहीं दिखाई देगा।

दो

हमारी बस बहराइच से चल पड़ी है।
सवा तीन घंटे बाद यह रामनगर, बाराबंकी, चिनहट होते हुए
उस चौराहा पहुँच जाएगी,
जहाँ हमारे चलने के बहुत पहले से हमारा इंतज़ार हो रहा है।

गाड़ी वहाँ कितनी देर वह रुकेगी,
कितनी बात हो पाएगी, यह ज़रूरी सवाल नहीं है।
ज़रूरी बात सिर्फ़ इतनी है, आज सुबह चाचा ने अपने बड़े भाई के साथ
लोहिया अस्पताल में डॉक्टर के सामने कैंसर के ऑपरेशन के लिए मना कर दिया है।

अब हमें सिर्फ़ उनकी सारी रिपोर्टों को अपने साथ दिल्ली लेते आना है।
पिता उन्हें एक बार दिल्ली में डॉक्टर को दिखाना चाहते हैं। शायद कुछ हो सके।

मुझे पता है,
मैंने उन्हें बस का गाड़ी नंबर, आज़ाद नगर डिपो और यह बताया था
कि उसमें ड्राइवर की तरफ़ लगी हेड लाइट के ऊपर ‘कानपुर’ लिखा होगा।

इन तीन पहचानों को वह दोनों भाई कितनी ही गाड़ियों से मिलान करते रहे होंगे।
वहाँ इतना वक़्त साथ खड़े रहने पर दोनों आपस में क्या-बात कर रहे होंगे?
क्या वह मेरी तरह अपने-अपने बचपन की स्मृतियों में डूब रहे होंगे?
या कोई बात याद आकर उनके भी गले में अरझ गई होगी?

तीन

इंतज़ार हम भी कर रहे थे,
उस पल का जब पॉलीटेक्निक चौराहे वाला पुल दिख जाएगा।

मैं खिड़की के बाहर उसके नज़र आते ही अपनी सीट से खड़ा हो गया।
अम्मा भी सामने सड़क पर देखने लगीं। कहीं दोनों दिख जाएँ?
वह मुझे नहीं दिखे। अम्मा को दिखे।
मुझे दोनों भाइयों के सिर्फ़ पायजामे हवा में लहरते हुए लगते रहे।

गाड़ी इतनी देर तक रुकी रही कि दोनों बस के दरवाज़े के पास आ गए।

चाचा ने अम्मा को देखकर ऐसे सिर हिलाया,
जैसे आख़िरी बार मिलते हुए कोई अलविदा लेता हो।

अम्मा घुटनों में सूजन और पैरों में दर्द के बावजूद जितना खड़ी हो सकीं,
उन्होंने उतनी कोशिश कर दोनों भाइयों को एक साथ देखते हुए
बिन कुछ बोले अपना हाथ हिलाया। चाचा भी इसके जवाब में अपना हाथ हिलाते दिखे।

उन्होंने तब जो सौ रुपए का नोट दिया, उसकी तह को उसी तरह रखे हुए हूँ।
कभी-कभी किताब के बीच में रखे उस नोट को उनकी
अंतिम स्मृति की तरह देखते हुए वापस पन्नों के बीच रख देता हूँ
और सोचने लगता हूँ, यह क्षण कभी किसी की स्मृति में ऐसे घटित न हो।

तुम आओगे न सुरेस?

लगा, तुम
अभी तो सामने थे, बोल रहे थे।
बोलते-बोलते कुछ सोच रहे थे
और किसी सपने में कुछ देख रहे थे।

दृश्य अभी आगे बढ़ ही रहा था,
हम सोच ही रहे थे, तुम अब क्या कहोगे,
तभी अचानक
चुप होकर आँखों के सामने से चलकर तुम ग़ायब हो गए।

कहीं तुम पर्दे के पीछे जाकर कहीं छिप तो नहीं गए,
देख रहे होगे चुपके से तुम, एक आँख बंद कर कनअँखियों से?

क्या तुम उस नायक की तरह तो नेपथ्य से निकलकर
वापस नहीं आ जाओगे,
जिसका सब बेसबरी से इंतज़ार करते हैं?

यह कैसा त्रासद दृश्य है,
किस तरह तुम मर्मांतक अभिनय कर रहे हो?
कहाँ से सीखा तुमने यह सब हमें बिन बताए?

सब तुम्हें लेटा हुआ देख रहे हैं।
तुम ज़मीन पर ऐसे लेटे हो
जैसे अभी आँख खोलकर बुदबुदाओगे
सबसे पूछोगे—यहाँ कैसे आ गया?

सच,
उस तस्वीर में तुम अभी भी ऐसे लेटे हो जैसे सो रहे हो।
लगता है, अभी उठोगे और कहोगे—फ़ोटो दुबारा खींचो।
उसी में आँख मलते हुए बोलोगे—
क्यों यह भीड़ लगा रखी है। सोने भी नहीं देते सब।

कभी सोचता हूँ, दिल्ली ही नहीं लौटता।
बनवा लेता अपना करधन। ले लेता एक और कजरौटा।
एक पायल और एक मुँदरी भी।
सब वहीं छूट गया सुरेस। तुम भी वहीं छूट गए।

पतझड़ का ही मौसम था, होली का जैसे
जैसे कोई हरा पत्ता, पीला पड़कर
हवा के हल्के से झोंके का साथ पाकर
उसके संग उड़ जाता है, तुम भी उड़ गए।

सुरेस तुम नहीं जानते,
तुम पिछले साल का मार्च बन गए।
पकड़ में ही नहीं आए किसी के।

सोचता हूँ,
अब क्यों जाऊँगा गुधरिया बाबा?
कौन तुम्हारी अब जगह मिलेगा वहाँ?
किसको सुपुर्द कर गए हो अपना नाम, अपनी शक्ल?

अब कौन हमारा चाचा कहलाएगा?
किसे हम सुरेस चाचा कहेंगे? किसे हम मिलकर छेड़ेंगे?
तुम चाचा होकर भी छोटे भाई थे।
तुम्हारी छाया में हम भी बड़े हो रहे थे। तुम क्यों चले गए सुरेस?

कम से कम तुम्हें
इस सवाल के जवाब की ख़ातिर एक बार ज़रूर लौटना चाहिए।
क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता सुरेस?
एक बार तो आओ। मिल लो।
बता दो, अब नहीं आओगे दुबारा।
अब कभी नहीं लौट सकोगे।
पर एक बार आ जाओ। सबको बता दो।

बिल्कुल वहीं से जागना सुरेस,
होली के एक दिन बाद से।
तुम्हें तो याद होगा, सुबह है। तुम तखत पर बैठे हो।
नाश्ते में डबल रोटी खा चुके हो। चाय पी रहे हो।
उसी तखत से गिरकर जहाँ तुम सो गए थे और उठे नहीं थे।
बिल्कुल वहीं से जागना।
न एक दिन आगे, न एक दिन पीछे।

तुम आओगे न सुरेस?
कहो, मैं आऊँगा।
बस एक बार कह दो सुरेस। बस एक बार।


शचीन्द्र आर्य की कविताएँ और गद्य प्रतिष्ठित प्रकाशन स्थलों पर प्रकाशित हो चुका है। वह ठोस, स्पष्ट और संवेदनशील कविताएँ लिख रहे हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : एक धोखेबाज़ की तरह जीना मुझे हमेशा से मंज़ूर था

2 Comments

  1. Abhishek Kumar Maurya मई 20, 2021 at 7:46 पूर्वाह्न

    बहुत ही बढ़िया लाइन लिखीं हुईं है सर हमने सारी कविताएं पढ़ी बहुत ही अच्छा लगा

    Reply
    1. शचीन्द्र आर्य जून 5, 2021 at 3:43 पूर्वाह्न

      अभिषेक, तुमने इन पंक्तियों को पढ़ा, इसके लिए धन्यवाद नहीं कहूँगा । चाहता हूँ, तुम बहुत पढ़ो और जो कभी मन हो तो उसे लिख कर कह दो । घर में सब कुशल होंगे, इसी आशा के साथ ।

      शचीन्द्र

      Reply

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