लंबी कविता ::
अंचित

हमारे आस-पास चिह्नित संज्ञाओं में जो कुछ हो रहा है अगर उन्हें एक जगह, एक सूची में रख दिया जाए तो क्या कोई विशेष ध्वन्यात्मकता प्रकट होगी! यहाँ एब्सर्ड्स की समाई को और विस्तृत करना पड़ेगा। लेकिन इतना तो तय है कि इतने चिह्नित नामों को कुछ ढंग-बेढंगी लिखावटों में डालकर एक वाल-पेंटिंग बनाई जा सकती है। जो शाब्दिकता इस तरह चित्रों में निगमित हो सकती है, वह स्वप्न में उभरते किन्हीं दृश्यों का साकार क्यों नहीं हो सकती?

लेकिन, रुकिए! मेरे उपरोक्त कथन—रोमैंटिक कवि विलियम ब्लेक की तरफ़ कोई इशारा नहीं कर रहे हैं।

यहाँ कवि अंचित की कविताई की बात है, जोकि अपने फ़ुटनोट में नामित ‘ता प्रत्यय वाले’ तमाम समकालीन दृश्यताओं से किसी न किसी कोण पर कुछ कोंचा-काँची कर रहे हैं।

अंचित की इस लंबी कविता के खंडों में बोझ की तरह उपस्थित विवरण—कला और जीवन को निहिलिस्टिक और बोहेमियन स्थिति की ओर पुरज़ोर धक्का दे रहे हैं।

‘बल्क’परकता का यह शिल्प, इस उद्देश्य में सफल भी है।

यहाँ भाषा, ट्रेडिशन, फ़ॉर्म किसी भी सीमा का कोई स्वीकार नहीं मिलता। यहाँ निगेशन का नगाड़ा है।

जेनुइन कलाकार अपने प्रति अस्वीकार से अधिक, औसतताओं के प्रति स्वीकार से चिढ़ता है… और अगर कुछ ऐसा ही लंबे दौर की प्रस्तावना बन जाए तो फिर ‘एंटी’ हो जाना ही अभिव्यक्ति के लिए सबसे जेनुइन होगा।

यहाँ प्रस्तुत कविता में आपको सर्रियल बातें मिलेंगी, गड्डमड्डपन मिलेगा, कहीं न पहुँचने वाली अन्विति मिलेगी… लेकिन क्यों?

इसके उत्तर में कहना ही होगा कि यही तो है—आज का समय!

अखिलेश सिंह

अंचित

स्वप्न कविताएँ
एम.जे. के लिए

एक

किसी स्वप्न की तरह मिलेगी मृत्यु, जटिलताओं के आख़िरी पड़ाव की माफ़िक़, उम्मीद की सुरा बनी, टूटते, टूटते, टूट जाते इस टापू पर, मुक्ति की तरह, उदासियों के अंत में, क़ब्रिस्तानों की गीली मिट्टी और हवा में उड़ती राख, एक हल्के ग़ुब्बारे की तरह ऊपर, ऊपर, ऊपर खींचती, न पेड़ों से बँधी, न इमारतों पर तनी, उज्ज्वल उजास या तीखी कालिमा में डूबी हुई, खुले समंदर पर एक छोटी कश्ती की तरह हिचकोले खाती, जतन से आज़ाद, लंबी गाढ़ी नींद जो किसी कविता-सूक्ति में नहीं, किसी मित्र-बैठकी में नहीं, किसी विमर्श का फ़ुटनोट नहीं, किसी भी महत्त्वाकांक्षा का विराट पराभव—कविता के सबसे पुराने दुहराव भरे विषय का अंतिम तर्पण।

किसी स्वप्न की तरह मिलेगी मृत्यु, पर क्या इस जीवन से फिर भी तर पाऊँगा?

ज़िंदगी के होने में, ऑक्सीजन की कमी, वेंटिलेटर की ज़रूरतें, आईसीयू की सर्दी, लंबी लाइनें, फेफड़ों की कमज़ोरी, नसों का तनना, ब्लड-प्रेशर का दो सौ पार होना, धड़कनों की तेज़ होती धौंकनी और इनके बीच हुस्नपरी नूरजहाँ।

हम नक़्ल की इंतिहा हैं और हमारे होने में है, आर्मचेयर विचार द्वंद्व, मर्दाना कमज़ोरी, व्यक्तित्व का क्षरण, किसी के हसीन बोटॉक्स भरे गाढ़े मरून होंठ, नीली मुलायम सीटें, मुफ़्त वीपीएन पोर्न, उल्लास के गीत, आस्था की गाढ़ी सड़कें, उम्मीद का झीना पर्दा, बहुत सारी जड़ें, फैलतीं, फैलतीं घुनों की तरह, कैंसर की तरह, कूड़े के ऊँचे पहाड़, मेट्रो की अनंत सुरंगें, मिट्टी को पोपला करतीं, गेमवर्ल्ड्स, रोटी, कपड़ा, मकान और सोचना कि जीत के आख्यानों में ही जन्नत रखी है।

कोई स्वप्न इतनी बदहवासी से शुरू होगा, एम. जे., तो फिर किधर जाएगा?

दो

वह कोई स्वप्न ही था।

एक ही बार मिला विश्वजीत सेन से, बीच दुपहरी, जब झड़ा नहीं था हरिसभा मंदिर का आडंबर, तीनों लोकों के तीनों स्वामी—ब्रह्मा, विष्णु, महेश… पीछे के कमरे में रुके हुए थे।

मैं फ़ज़्र की नमाज़ पर आश्रित था उठने के लिए कि एक ट्रेन की सीटी भी तभी बजती थी।

एक कहानी में उसी वक़्त एक शहर आता था, एक हिचकी उसी वक़्त समूचे बचपन की आत्मा तोड़ती थी, उसी समय दरभंगा के एक गाँव में उठकर हरसिंगार चुनने निकलती थी, एम.जे.

क़ब्रिस्तानों की मल्लिका ऐलिस ब्लांच, जो लालसाओं के किसी चौराहे जाने से पहले ही, अपनी हमनाम की तरह, इक्कीस की उम्र में 1873 में जाने किस बीमारी से ख़ुदा को प्यारी हुई, अपनी क़ब्र से ठीक इसी समय बाहर निकलती।

कॉमरेड सेन, जो आख़िरी बार आए हरिसभा, अपने अजाने, रामकृष्ण पांडे की मृत्यु के बाद पहली बार, अपनी बारह बंगाली कविताएँ सुना चुकने के बाद बोले—कविता भटक से शापित है और चाहना से और मिल जाना भी है जिस प्रकार क़ैदख़ाना—न मिलना भी है—खो गया रूस भी है, मिल गया महुआ गाँव भी है। महुआ गाँव जो हाजीपुर से उत्तर, तम्बाकू की खेती करता रहेगा जब तक टूटती नहीं तुम्हारी पेंसिल की नोक या तुम। तुम कैलिफ़ोर्निया क्यों नहीं चले जाते। जैसे चली गई तुम्हारी राधिका सुरेश फिर न आने के लिए।

मैं नहीं जाऊँगा कैलिफ़ोर्निया, नहीं देखूँगा ख़्वाब कोई, भरे पसीने मैं कह रहा हूँ, करवट बदलता, अपनी समकालीनता से; मेरी स्मृति में रहे न रहे खेतान मार्केट की छत, आर ब्लॉक की गाँजा गुमटियाँ, बोरिंग रोड की गहरी सुइयाँ और मरीन ड्राइव के गहरे नशे। मिट जाएँ हरिसभा की छतें, स्मैक से गमकते उसके झड़ते कमरे, कीचड़ से सनी उसकी पगडंडियाँ और कूड़े के ठेले।

मुझे आख़िरकार यहीं जलना है, इसी शहर की बाढ़ भरी नदी के किनारे, अपने पुरखों की गोद में, अपने सबसे बुरे मोहों से उलझे हुए। भले ही एक तड़प पसलियों में उठती हो, पैदल चलते हुए पीठ की अकड़न में बिजली तड़कती हो, संशयों से अपने दिल के धोखे का इंतिज़ार नि:सार अवसाद में दिखता हो। भले ही याद करूँगा सैन फ़्रांसिस्को और देखकर चीख़ता रहूँगा एक हज़ार बार—एम. जे., आई सी द बेस्ट माइंड्स ऑफ़ माय जनरेशन, नेकेड, डेस्ट्रॉयड बाय पेटी एम्बिशन।

कोई राजा नहीं आएगा मुझे बचाने, कोई बुद्ध नहीं सारनाथ में, कोई नागा साधु हरिश्चंद्र घाट पर, कोई मांसल विदेशिनी, चिलम लिए हुगली-किनारे, दरवाज़े के बाहर कोई अघोरी भिक्षा माँगता। सिर्फ़ यही शाप आएगा। यही शाप आएगा। बचाएगा। मारेगा नहीं और मेरा माँस खाएगा।

तीन

इस दुनिया पर एक भैरवी की छाया है जो मानव-मांस खाती है, जिसको रात्रि प्रिय है, जिसका मेरे दर्शन से कोई वास्ता नहीं है, जो जलते मुर्दों को देख प्रसन्नता से भर उठती है, जिसके आस-पास समय धीमा हो जाता है, इतना कि वह सब देख सकती है और बना सकती है मन माफ़िक़, जिसने सारे युद्ध देखे हैं, जिसको पता है सारी क्रूरताओं का, जो साफ़गोई छोड़ किसी रहस्य में मानी खोजना जानती है, जिसके पास एक शीशा है, जिससे वह अपनी कुरूपता ढक लेती है, जिसने छल की भाषा का हर मज़मून पहले से पढ़ रखा है, जो मांस के बाद, अस्थियाँ खाएगी, मज्जा, वीर्य और ओज—कोई नहीं बचेगा।

संगीनों, बमों, ड्रोनों से धरती भर जाएगी।

एवरी सिंगल ट्रेस इरेज्ड, एवरी सिंगल सेल डेटोनेटेड, एवरी माउथ फ़िल्ड विथ डस्ट,
आई सी यू डॉक्टर मैनहैटन, द डूम्सडे क्लॉक टिक्स।

एम. जे., यह बदली जो तड़के तुमने देखी है—अलसाई नींद में अपनी बाँहें फैलाते हुए, जिससे तुम्हारा कोई वास्ता नहीं हुआ अभी तक, यह सुंदर बरसात की सूचना नहीं है, मैं एक पैग़ंबर हूँ और जानता हूँ कि यह आदम की राख है जो पूरे वायुमंडल को ढक चुकी है, जो आज नहीं तो कल तुम्हारे आसमान पर बरसेगी, जो आज नहीं तो कल तुम्हारी भी चमड़ी जलाएगी, जो आज नहीं तो कल मरोड़ेगी तुम्हारा कलेजा भी।

एट लीस्ट, फ़ॉरगिव मी हियर,
इन दिस ड्रीम
फ़ॉरगिव मी नोइंग
दैट इवन इन दिस ड्रीम
आई कांट मेक द बर्ड्स सिंग।

चार

तुम सपना देखते हो कि अमरीका में जेलें बेहतर होंगी, पाख़ानों के सेप्टिक-टैंक साफ़ रहते होंगे, खाने में मिलावट नहीं होगी, ज़रूरतों में घोटाले नहीं होंगे, सज़ाएँ जाएज़ होंगी, दीवारों में सीलन नहीं, पूरे समय बिजली, साफ़ कपड़े या कम से कम साफ़ कर पाने की सुहूलतें, बिना खटमलों के गद्दे, हस्तमैथुन के लिए पूर्ण एकांत, पहली दुनिया में किताबें तो मिल जाती होंगी माँगने पर कम से कम, न्यायालयों में जाएज़ क़ानून चलता होगा, सुबह नाश्ते पर टेबलों पर बैठे लोग अख़बार पढ़ते होंगे, अच्छी कॉफ़ी नहीं भी तो कॉफ़ी मिलती होगी…

आख़िर उस देश में कोई किसी को नक्सली नहीं कहता होगा, कोई किसी को देश-विरोधी, किसी की माँ की आँखें बिना मुक़दमे किसी क़ैद बच्चे को देखे बिना पथराती नहीं होंगी, त्वरित होता होगा फैसला और सही पक्ष में।

किसी को कविता लिखने के लिए जेल नहीं होती होगी

फ़तवे जारी नहीं करती होंगी वहाँ सरकारें किताबों के ख़िलाफ़
अपाहिजों के लिए अलग से रैंप लगा होगा
बीमारों को तुरंत चिकित्सा मिल जाती होगी

तुम कैसे समय में जी रहे हो, तुम्हारे स्वप्न में जेलें आने लगी हैं
तुम कल्पना करने लगे हो बेलों और ज़मानतों के काग़ज़ों की
नींद में उनमें चेक करते हो कि तुमने आधार की कॉपी लगाई या नहीं,
बहुत देर तक सोचते हो कि पैन कार्ड लगेगा या नहीं,
जेल में क्या होती है केवाईसी, किसी धारा से क्या होता है
कौन उमर है जो जेल में बंद काटनी होगी
कैसे रित्सोस रहा जेल में, क्यों बेंजामिन ने आत्महत्या कर ली
अज़ीज़ मास्टर क्यों डरता था पीरबहोर थाना से, कैसे ज़ोर से
तुम्हारा दिल धड़कता है तुम्हारी पसलियों में क़ैद,
दस मिनट का पैनिक अटैक भी कैसे एक युग लंबा खिंच जाता है
नींद में एक नस टभटभाती है पैर की, हाथ कमज़ोरी से काँपते हैं
भय की जकड़न सीखी है तुमने कैंसर-अस्पतालों से
तुम्हारे सारे सुखों का आदर्श मेटाफ़र बनी चली गई है एम. जे.
जेलों के बाहर जेलें हैं, जेलों के भीतर जेलें हैं।

आख़िरकार तुम इतना टूट चुके हो कि चींटी खाए तने हो चुके हो एक सूखे पेड़ के।

यह यातना है अंतहीन…

यहाँ उम्मीद का कोई वायरस तुमको मिल नहीं रहा।

पाँच

एक सस्ते शराबख़ाने में, मैंने अपना चश्मा ठीक किया है, इस श्वेत-श्याम समय में मैंने टेबलें गिनी हैं, मैंने ख़ाली बोतलें उठाई हैं, एक मनुष्य की तरह मोटी सिगरेट जलाई है, अपने रूखे कमते बालों को पीछे किया है, भैंसे का मांस काँटे से काटा है। खड़ा हूँ एक बहुत पुराने माइक के सामने, धुआँ फैला है इस तरह जैसे पूरी दुनिया पर एक चिरंतन युद्ध पसरा हुआ है। एक मेज़ पर एक साथ बैठे हैं बॉदलेयर और बाउकोव्स्की जो बहुत ताक़त से अपनी सिगरेट-बट ऐशट्रे में रगड़ रहा है।

बोहेमियन वाइल्ड का कोई ड्रैग शो होगा इसके आगे, निकोल किडमैन का कोई बरोक, हेगल दा कोई पर्चा पढ़ेंगे, हाइडेगर खड़ा रहेगा अपने हाथों में एक टाइप्ड पन्ना लिए। मेरी केहुनियों में एक ऑटोमेटन की उँगलियाँ धँसी हैं, मेरी ज़बान पर लगा है उसका टेप-रिकॉडर, मेरे पार्श्व में लहरा रहे हैं सफेद गाढ़े झंडे, मेरी चीख़ों की आवाज़ें मुझ तक नहीं आतीं।

मैं जो जन्मा कँटीली तारों पर जो बिछी थीं गैलापैगोस के तटों पर, मुझे यही बदा था कि मेरी पुतलियाँ मेरे माथे धँस जातीं।

मैं अपने पसीने को भी ठीक-ठीक महसूस नहीं कर पाता कभी इस अर्ध-बेहोशी में, मेरी पीठ इतनी भारी कि सबसे प्राचीन बिंब भी इनएफ़िशिएंट, मेरी कमर इतनी कमज़ोर कि मेरे पैर नहीं हिलते कभी, अपनी प्रॉब्लेमाटिक जेनेटिक्स से कोई संघर्ष संभव नहीं, और गर्दन नहीं झेल सकती एक रेशे का भी भार।

यह पूर्ण पराजय है एम.जे.
मेरी विरासत। निराशावाद और निहिलिज्म। किसी भी सौंदर्यशास्त्र का निगेशन।

तुम आ जाती इस स्वप्न में तो क्या कोई फूल खिलता दरारों में?

छह

मुझे उस दीवार का रंग नहीं पता जिसके सहारे मैं खड़ा था, आँखों पर बँधे मोटे कपड़े के बावजूद मैं जानता था कि यह सर्दियों से भरी एक भीषण रात है।

मैं जानता था कि मेरे ऊपर मशीनगनें तनी हुई थीं। मैं जानता था कि उनकी धुनों में अभ्यास है, मानवता की सबसे क्रूर धुनें! वहीं कोई जनरल भी था जो जानता था चेन ऑफ़ कमांड की अहमियत सीधी मूर्खताओं से परे।

इस एक क्षण मुझे याद आया माजिद जो जा सकता था सो चला गया कनाडा और मज़हर यहीं है—बचपन का स्पिन चैंपियन और रोज़ खोलता है अपने कपड़े की दुकान… जैसे सब्ज़ीबाग़ जैसे नियमगिरि जैसे इलाहाबाद।

फिर गोलियाँ चलीं।

यह झुटपुटा किसी इतिहास पर आश्रित नहीं है, एम. जे., यह सिपिआई स्वप्नलोक असंख्य पाताललोकों से बना, ज़र्द पत्तों का वन, जहाँ तक देखता हूँ, पसरा हुआ और सीलन की तरह मेरे कमरे की छत से बरसता हुआ यही है वह स्वप्न कि उसका क्षरण जिससे मैं भागता हूँ?

फिर गोलियाँ चलीं।

क्षरण कि एक पोस्टर पर एक चेहरे की तरह बना हुआ, मेरे मांस में एक निशान की तरह धँसा हुआ जिससे मैं लड़ रहा हूँ लगातार, जो घोंट रहा है मेरा गला, जो धीरे-धीरे खा रहा है मेरे फेफड़े, यह अँधेरे से बना हुआ उजास का वादा, अतार्किक, आक्रामक, यह स्वीकार, स्वीकार, स्वीकार का निरंतर चीत्कार, धकेलता मुझे मुझसे दूर, सबसे दूर, नफ़रतों की चॉकलेट-सा मीठा जैसे कोई षड्यंत्र न हो, हो एक अबोध सपना नायकत्व का दम भरता, नारों की अति से बना ज्यूस, इंद्र, एक लेबीरिंथ, एक समुद्री क्रेकन, चमकती बिजली के बीच से झाँकते माइकल, रफ़ेल, गैब्रियल

माइसेल्फ एम हेल
मैसेल्फ एम ए ड्रीम
शी, डाउटफुल, आस्क्स, “ए नाईटमेयर?”
एम. जे., एन इरप्टिंग वॉल्केनो ऑन पॉम्पे,
एन इम्मोर्टल, इंसफ़ेरेबल नाइटमेयर!

सात

इस स्वप्न में—मैं एक बादल हूँ एम.जे.,
मुझे श्मशानों और क़ब्रिस्तानों पर से भी गुज़रना है, मुझे उनका भी संदेशवाहक बनना है, मुझे हर ख़बर पहुँचानी है ठीक-ठीक, मुझे पार करनी है उज्जयिनी, अलकापुरी से भी आगे की पर्वत- शृंखला… रबड़ से पोंछ-पोंछकर दुनिया पर लगी ग़लतियाँ मिटानी हैं, इसलिए मुझे अपना उद्गम याद करना है।

दरभंगा के अनदेखे गाँव, पटना की छानी हुई सड़कें, फ़ैंसी दुकानें, साइकिलें, पहाड़, दिल्ली, अग्रसेन की बावली, चाँदनी चौक के रिक्शेवाले, अँधेरी छतें, अजाने भाई, दूर जा चुकी बहनें, उन फूलों के नाम जिन्हें मैं नहीं जानता, वे पोखरे जहाँ तुम्हारे धवल चरण पड़े नहीं, उन युगों की समरी जिनमें मैं नहीं गया, पटना कॉलेज के बैंक शेड, इंग्लिश डिपार्टमेंट की बेंचे, तुम्हारी अदृश्यता से बने ये छोटे कॉफ़ी हाउस, तुम्हारे ग़लती से कहीं टकरा जाने का भय, तुम्हारी देह पर मेरे जीभ की लार, तुम्हारा प्लास्टिक का टिफ़िन, चॉकलेट-बॉक्स, मॉल के बाहर की चहलक़दमियाँ, हरी लाइटें, पुस्तक-मेला, आलोकधन्वा, बार्थ का ज्यूइसाँस, स्कूटी की सीट, तुम्हारा भार मेरी जाँघों पर, ब्रह्मांड में विचरते तुम्हारे अनंत चुंबन, तुम्हारे सारे दोस्त जिन्होंने मुझ पर तरस खाया, यूनिवर्सिटी-रोड पर तुम्हारे सफ़ेद हाथ, वे सारे कोने जो हमने भरे, वे सारी ख़ाली जगहें जो अभी भी हमें खोजती हैं, झपती आँखें, माइग्रेन, एलेन बदीउ, बेंत का सोफ़ा, गीला गद्दा, बारिश, सर्दी, सफ़ेद शर्ट, काला नाइट सूट, उँगलियाँ, पहला नहीं आख़िरी प्यार, उदासी, अवसाद, आइसक्रीम, चाट, सिगरेट, चाहतें, चाहतें, चाहतें…

मैं कोई पेड़ नहीं हूँ—अपनी जड़ों से बँधा
मैं मेघ की तरह जगहें बदलता हूँ
मैं मेघ की तरह समय बदलता हूँ
सर्प-केंचुली की तरह मैं छोड़ देता हूँ—अपनी काया
एम.जे.,
इस स्वप्न में—मैं तुम्हारा चाँद हूँ
एक गीत में लिपटा हुआ जो तुमने ही मुझे भेजा है
एक अँधेरे कमरे में यथार्थ से दूर एक इबारत जो तुमने उकेरी थी
इस स्वप्न में—किसी भी उम्मीद से परे मैं ख़ुद को तोड़ रहा हूँ कोशिका-कोशिका तुमने मुझे बनाया है, तुम ही मुझे मिटा रही हो।

फ़ुटनोट

कविता हिंदीयता सदाशयता समकालीनता फ़ेसबुकीयता औसतता स्वागतता सादरता नमनता उपकारता प्रकाशनता देवीप्रसादीयता असदज़ैदीयता डबरालता वाजपेयीता अरुणकमलता आलोकधन्वता कात्यायनीयता विमलकुमारता अनुरागवत्सता प्रभातरंजनता विनोदकुमारशुक्लता अमिताभबच्चनता अशोककुमारपांडेयता मुसाफ़िरीयता गिल्लुता कृष्णसमिद्दता धीरेशसैनीयता प्रोफ़ेसरीयता पीएचडीयता वेश्यारुदंता अकादमीयता अस्मिता वामीयता विरोधप्रदर्शनता अभिनंदनता मानवकौलता भारतीयता हिंदुता इस्लामीयता जीससक्राइस्टीयता क्रांतिकारिता जीबीरोडीयता समुद्रता पहाड़ता रीलीयता उदारता प्रासंगिकता ट्रोलता ट्रंपता प्रलेसता जलेसता जसमता महानता प्रगतिशीलता उपन्यासता नवीनता कहनीयता पता रास्ता सस्ता बिखरता गिरता पड़ता युवता वृद्धता बेचैनीयता भाषिकता माध्यमता संस्कृतता नायकता कलावादिता लकीयता बहसता युद्धता कायरता डेटता सिचुएशनशिपता बेरोज़गारीयता जीनियसता प्रधानता आत्मकेंद्रिकता शोरता अर्थपरकता बाज़ारवादिता कंटेंटता रीचता आलोचनात्मकता पाश्चात्यता पूरबता इतिहासकारिता पत्रकारिता अति-वाणी-संभोगता सलेक्टता बैलेंसता घोटालीयता धन्यवादता


अंचित

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