कविताएँ ::
देवेश पथ सारिया
चिरयौवना यौन दासियाँ
उन्नीसवीं शताब्दी का था वह चित्र
दासों की मंडी में बिकने आई
दो नग्न स्त्रियों का
एक खड़ी हुई, दूध जैसी सफ़ेद
दूसरी अश्वेत, बैठी हुई
अश्वेत को था यक़ीन रंगभेद पर
कि ख़रीदार की पहली पसंद होगी श्वेत
जिसका ऊँचा दाम न चुका पाने की सूरत में
ख़रीद ली जाएगी अश्वेत
एक दासी की उम्र व्यतीत करने के लिए
वे दोनों, जो निश्चित तौर पर मर चुकी हैं
रही होंगी हमारी दादी की परदादी की समकालीन
पर उनमें कोई क़तई नहीं देखता अपनी पूर्वजा की छवि
आज भी उनकी पहचान अटकी है
मंडी के उस नग्न क्षण पर
हर पीढ़ी ने उन्हें पाया चिरयौवना यौन दासियाँ
मैं कभी-कभी सोचता हूँ
कि चित्र में दिख रही स्त्रियाँ
क्या माँ भी बन पाई थीं
क्या उनकी संतानें
दासी पुत्री/पुत्र कहलाई थीं
क्या वे उन्हें ठीक परवरिश दे पाई थीं
क्या कुछ साल बाद वे संतानें भी
मंडी में बिकने आई थीं?
मैं गुस्से नहीं हाँ तेरे तों!
मैं फ़ौलाद की तरह मज़बूत हो गया था
गद्य की हालिया पढ़त से संपन्न
ओट में छुपा कर रख दिया था भावुक कवि मन
तभी आईं तुम, निहत्थी
मासूमियत के साथ
तुम्हारे जितनी कौन करता
मेरी बनावटी नाराज़गी की फ़िक्र
हर बार छूटती थी एक धड़कन
तुम्हारे पूछने पर—
‘तुसी गुस्से हों मेरे तों?’
झोली से झटकती, बिखेरती नेमतें
तुम आईं, तुम ठहरीं, तुम चली गईं
मासूम चुप्पी के साथ
इन दिनों मेरे आस-पास सबकी ज़ुबाँ
कीलों, भालों में तब्दील हो गई हैं
उधड़ रहा हूँ मैं
पहले चर्म, फिर अधिचर्म, फिर मांस-मज्जा
खो रहा हूँ मैं
इतनी तेज़ चलती है मेरी धड़कन
कि नब्ज़ देखकर घबरा गई थी
चाइनीज़ दवाओं की डॉक्टर
उसने हृदय की जाँच कराने को कहा
मैके मेमोरियल अस्पताल में
हृदय-गति की तेज़ी देख
तुरंत ईसीजी कर लिया था नर्स ने
मुझे डॉक्टर के केबिन में ले जाने से भी पहले
डॉक्टर कहता है कि हृदय ठीक है
मर्ज़ सारा ज़ेहन का है
मैं सोचता हूँ हद से ज़्यादा
जानती हो तुम मैं क्या सोचता हूँ
कभी बैठे-ठाले थकान हो जाती है
कभी साँस कुछ मशक्कत-सी आती है
कभी दिल बदला लेता है
तुम्हारी उपस्थिति में छूटी हुई धड़कनों का
और मिनट में धड़कता है एक सौ तेईस बार।
निर्वासित बनाम शरणार्थी
पोलिश-अमेरिकन कवि जॉन गुज़लोव्स्की के लिए
एक वैश्विक महामारी और अपनी बीमारी के वशीभूत
भारत से दूर रहता दो साल से
मैं महसूस करता हूँ
मानो मुझे देशनिकाला दे दिया गया है
मैंने जॉन गुज़लोव्स्की को दिखाई
अपनी ‘निर्वासित’ शीर्षक कविता
और उसका सवाल था—
‘‘कविता का शीर्षक
‘शरणार्थी’ क्यों नहीं?’’
जॉन के माँ-बाप
और उनके माँ-बाप ने झेली थीं
नाज़ी कैंप की यातनाएँ
जॉन के माँ-बाप
शरणार्थी शिविर में मिले थे
पोलैंड लौटने की कोशिश के दौरान
रास्ते में ही खदेड़ दिया गया उन्हें
गोलियाँ दाग़ कर
वे अमेरिका में आ बसे थे
और जूझते रहे थे इसी सवाल से
कि वे हैं क्या आख़िर!
जॉन ने मंथन किया और पाया :
अंततः, वे मानने लगे थे
स्वयं को, एक साथ दोनों ही
शरणार्थी एवं निर्वासित
एक निरंतर भटकाती हुई यात्रा है निर्वासन
निहित है जिसमें एक अधूरापन
पर समाई है
वापस लौट जाने की एक ज़िद भी
ज़्यादा पुख़्ता
शरणार्थी होने के बरअक्स
अर्धमुक्त मन से
एक छोर पकड़
पराए आँचल का
शरणार्थी भी
बने रहते हैं कुछ निर्वासित ही
निगाहें गड़ाए रास्ते के छोर पर
क्या आएगा कोई मुनादी करने वाला
संधि, युद्ध-विराम या वतन वापसी की?
एक ज़िरहबख़्तर की याद
कई साल पहले मेरे कंप्यूटर में
एक पहाड़ी स्त्री की तस्वीर थी
काला कार्डिगन और सफ़ेद टोपी पहनी हुई
बच्चे को अपनी पीठ पर बांध
चढ़ रही थी वह, खड़ी चढ़ाई
इस तरह की सभी तस्वीरों में
मुझे सबसे प्यारी थी वह
तब मैं जान-समझ रहा था
इंटरनेट और सोशल मीडिया को
तब नया-नया ही था
सोशल मीडिया पर दोस्ती का चलन
(यह ऑरकुट के ज़माने की बात है)
तब पवित्रता से निभाई जाती थीं
आभासी मित्रताएँ भी
मेरी प्रोफ़ाइल फ़ोटो होती थी
उन दिनों ऑरकुट पर वह तस्वीर
मासूमियत छीजने से बचाने के संघर्ष के उस दौर में
वह एक प्रतीकात्मक बिम्ब थी
मातृत्व के कवच में लिपटा बच्चा बने रहने की
तेरह साल बाद
मैं चोटें खाया ख़ुरदरा व्यक्ति हूँ
और सोशल मीडिया?
वह अब बाज़ार है
दोस्ती से अधिक प्रोपेगंडा का माध्यम
सोशल मीडिया अब बनाता-गिराता है सरकारें
वाणिज्य और राजनीति के साथ आने वाली
बाक़ी सारी चालाकियाँ भी घुल-मिल गई हैं इसमें
अब यह गाँव की चौपाल नहीं
शोर वाले दिन की संसद है
जिसकी कार्यवाही कोई अध्यक्ष ठप्प नहीं कर सकता
कितना घाघ हो गया है
परिपक्व होकर सोशल मीडिया
और मैं भी कहाँ रह पाया मासूम
आत्मरक्षा के लिए
दुष्टता करना न सही,
दुष्टता की परख तो ज़रूरी है ही
ताकि ज़िरहबख़्तर बना जा सके
अपने और अपनों के लिए
जीवन-चक्र में अब
यह मेरा समय है
पहाड़ चढ़ने का
पर कभी-कभी मैं लौट जाना चाहता हूँ
अपनी मासूमियत के दिनों की ओर
मनोविज्ञान पर असर पड़ता है
उस छवि का भी
जो आप स्वयं को प्रस्तुत करने के लिए चुनते हैं
मैं फिर लगाना चाहता हूँ
अपनी प्रोफ़ाइल पर वह तस्वीर
दुबक जाना चाहता हूँ
उस बच्चे की तरह
कोख में होने के सुरक्षित एहसास के लिए
ऑरकुट अब नहीं है
उसे अपदस्थ कर चुके हैं
दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म
मैं वह तस्वीर लगाने की कोशिश करता हूँ
इस बीच आई तमाम नई आभासी दुनियाओं पर
और हर बार उभरता है संदेश—
इस तस्वीर में पर्याप्त पिक्सल नहीं हैं!
गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीं अस्त…1*’गर फ़िरदौस …’ के लेखक के बारे में मतभेद हैं। कुछ विद्वान इसे अमीर ख़ुसरो द्वारा लिखित मानते हैं, कुछ इतिहासकार बात से सहमत नहीं हैं। अनेक उद्धरण इन पंक्तियों को जहाँगीर द्वारा कश्मीर के संदर्भ में कहा जाना बताते हैं, जहाँ यह संभावना है कि जहाँगीर ने किसी अन्य लेखक की पंक्तियों का उपयोग कश्मीर की नज़ीर देने में किया हो। मुग़ल काल की कुछ नायाब इमारतों के लिए भी इन पंक्तियों का उल्लेख मिलता है। यह कविता किसी ऐतिहासिक सत्यता का दावा नहीं करती।
बौराया होगा
कोई सैनिक भी
पहली बार देख कश्मीर को
सैनिक भी रहा होगा पाबंद
पाँच वक़्त बंदगी का
उसने भी खोजे होंगे
जन्नत के पर्याय
किया होगा प्रेम
तलवार के अतिरिक्त
किसी स्त्री से, पुष्प से, चट्टान से
या सबसे छुपाकर,
शायद घृणा ही की हो तलवार से
संपूर्ण रूमानियत बटोरकर
उसने भी कही होगी
कोई पंक्ति, नायाब
फुसफुसाकर
बग़ल वाले सैनिक से
अपने मन में बुनी हुई
या अमीर ख़ुसरो जैसे
किसी उस्ताद शाइर की लिखी हुई
पंक्ति उसकी
दर्ज होने से रह गई
किताबों में, इबारतों में, इमारतों पर, क़ब्रों के पत्थरों पर
वह जीव था
शाही दावतख़ाने के बहुत बाहर का
और रियाया की हैसियत होती आई है
अदनी-सी।
देवेश पथ सारिया हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनकी कविताओं की पहली किताब हाल ही में साहित्य अकादेमी से ‘नूह की नाव’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : देवेश पथ सारिया
वाह