कविताएँ ::
अखिलेश सिंह

दुःख
समकालीनता की तरह
उसने भी
अभिधा में आना चुना
समकालीनता की तरह ही
उसे भी
क्षणिकता का शाप मिला
ऐसी काल-शापित अभिव्यक्ति
कवि के किसी काम की नहीं।
निसर्ग
जौ के टूँड़ों की तरह चुभता है दृश्य
चुभती तो ओस भी रही है उषा को
भाकस में ही श्लथ होती रही है पृथिवी
अभिसार नहीं लिखे गए
रात की देहराशि पर
मटर और सरसों के गुम्फित साहचर्य में
बीच-बीच में लजाती हुई,
दीख जाती है पोपराई हुई :
काव्यप्रसूता है यह
टिक्कुल भर ज़मीन
यह दृश्य
जिसकी लिपि खोज रहा है कवि
यहाँ धूम की तरह विसरित हो रही हो तुम
ग्रहण लगा रही हो सौंदर्यशास्त्र को
अपनी इस सर्पिल गति से
सुदूर समय में
स्थिर दो आँखों के सम्मुख
बनते और मिट जाते उपमानों के तुक
कितना यंत्रबिद्ध होता रहा है संसार
कितनी मंथर चलती रही घड़ी टुकटुक
एक नए शिल्प पर काम कर रहा है
बहुत दिनों से टिका हुआ दुःख
इसको संभव करने के बाद
वह चला जाएगा।
शिल्पगत
बातों में आती रहें
चढ़ बैठने वाली स्थानीयताएँ
नारों में आते रहें
समकालीन उपद्रवों को पोसती हुईं पहचानें
योजनाओं में फलते रहें
महत्त्वाकांक्षाओं के नित नए मुहावरे
विचारों से लिथड़ जाएँ
आधुनिकता के लबादे में कमतर-क्लीशे-कीवर्ड्स
हाथ कटते हैं तो कट जाएँ
उँगलियाँ बची रहें
दृष्टि जाती है तो चली जाए
आँखें बची रहें
जो कहना है उसका लोप होकर भी
बचा रहे शोर
बचा रहे वह सब कुछ जिससे
बचाओ-बचाओ की ज़रूरतें जन्म लेती हैं।
शब्दानुशासन
मेरे पास—
कितने कम समर्पण हैं
कितनी कम हैं प्रतिबद्धताएँ
कितनी थोड़ी रह गईं हैं अभिव्यक्तियाँ
कितना कम जानता है मुझे संसार
कितना कम जानता हूँ मैं इसे
कितना कम हुई है उपस्थिति
और कितनी अधिक होती जा रही हैं प्रविष्टियाँ
कितना कम बोलता हूँ
और घेर लेती हैं कितनी अधिक प्रतिध्वनियाँ
कितना कम चलता हूँ
और होता ही रहता हूँ कितना अधिक विस्थापित।
रेखाचित्र
सुषमा और काई पर
सरकती है हवा
संदेश-कूट बुलबुले कुछ
उठते हैं नीचे-नीचे
एक सूक्ति हासिल हो उसकी
जीवन को खींचे-सींचे
तपती हुई माटी
कहाँ कुछ कहती है—
तपने के सिवा
कहता तो वह संयोग है
जो बारिश की बूँदें कराती हैं
उन आवाज़ों का रेखाचित्र है―
यह मौसम
जिनकी प्रतिध्वनि गूँजती है
मौक़े-बेमौक़े थिर-रुककर
शामें उतरती हैं
शाख़ों में
संधि में
वर्णस्फीत―नज़रबंद
लुप्त-उच्छल-आवृत-अनुगुंजित-बेकल।
वे रश्मियाँ, जो फूल नहीं पाती हैं
ख़राब न करूँ कुछ
चयन मेरा―
कुछ नहीं करते रहना
इसी रीति से तैयार होता है
प्रतीक्षा-शिल्प…
सबसे ठोस
इसे यूँ समझ लो―
पथरा चुकी आँखों से
कोई दृश्य गुज़रता है जब
तो उसमें भी बल पड़ जाता है
एक शुभता की प्रतीक्षा
और गुलाचीन के फूलों की नाभि का पीताभ देखते जाना
देखते जाना कि सुकुमार है संसार
और है दिगंत, स्थावर के लिए
सूखते तृण पर आती हैं खेलने
वे रश्मियाँ, जो फूल नहीं पाती हैं
और देखते-देखते चिंगारी बन जाती हैं
विह्वलता में संसार तपने लगता है
ओ हृदय! कृशित
आगे बढ़ो
जल-संधि पाओ
तर्पण करो अपनी अवस्थाओं का
विसरित हो जाओ
अस्तित्व में, अनत!
कहो कि कहते रहने में कुछ भी बुरा नहीं है
अंग-अंग धोखा दे जाएँ
और हो जाए चेतना
बंदर की बिराती शक्ल जैसी
तब भी!
…कभी तो एक बात होगी कोई
और यूँ ही बैठे रहना तुम्हारा
यूँ ही बैठे रहना नहीं रह जाएगा।
मैं जल रहा हूँ
धूम पानी साँझ झिलमिल
सनसनाता गीत गिलबिल
निरति का आह्वान करते
किस ओट में हैं सब पखेरू
चलते पहिये चल रहे हैं
काज हैं, सब बढ़ रहे हैं
बैठकर सिरहाने अपने
दीठ अपनी मैं निहारूँ!
रात गहराती हुई है
सब दृश्य फैले बन बिछावन
फूल उन पर ऊँघते-से
चल छोड़ देंगे जल्द उपवन
शब्द सारे जल रहे हैं
जल रही हैं सारी लकीरें
जल चुके विन्यास का भ्रम
अब भी मुझको मीर माने
सब कह दिया, अब चल पड़ा हूँ
दिन-दैन्य से भयभीत होकर
चिर-निशा सम्मुख, मैं पड़ा हूँ
जल चुकी है भावभूमि
मैं जल रहा हूँ
खिली धूप में
जमी बर्फ़ से
मैं
जल
रहा
हूँ…
अखिलेश सिंह नई पीढ़ी के सुपरिचित कवि-लेखक-अनुवादक हैं। ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित तीन लंबी कविताओं [प्रज्वल चतुर्वेदी, अंचित, कुशाग्र अद्वैत] पर अपनी टिप्पणियों, बिंदुघाटी के गद्य और ‘समालोचन’ पर प्रकाशित कहानी विकल्प से उन्होंने आलोचक, स्तंभकार और कहानीकार के रूप में भी कुछ ध्यान खींचा है। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व-प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखिए : तकलीफ़ें उससे गुज़रती हैं अपनी पहचान के लिए | एक दिन जीवन की बाँसुरी कोई चुरा ले जाएगा