कविताएँ ::
अनस ख़ान

अनस ख़ान

फूल

एक

एक फूल किताब से
गिरता है
क़दमों पर

उमड़ती साँस के साथ
एक स्मृति
चढ़ती है हृदय पर

दो

एक फूल चेहरे से लगाती है वह
एक फूल बालों में टाँक लेता हूँ मैं

पतझड़ के दिनों में भी
फूल-सा फुलियाता है प्यार।

तीन

बरस बीत गया
जब फूल एक उपहार था
प्यार के तोहफ़े का
सबसे मुलायम विद्यमान

आज उसे सूखा देखता हूँ
तो उसके काँटे हृदय में गड़ते हैं

चार

फूल कभी नहीं चाहता
वह उन लोगों के लिए खिले
जो किसी को खलें

पूरे एक देश को
खलने का काम
काँटे भी नहीं करते

स्मृति में

उसे याद करो
तो सीने में
एक चाक़ू उलट जाता था

उसे सूँघो
तो एक उफ़नती गंध
साँसों में चढ़कर
हृदय को दबाती थी

उसे हटाओ
तो इक भारी पत्थर की तरह
सीने पर बैठ जाता था

उसमें मरो
तो प्यार पर लानत

उसमें जियो
तो एक लंबित आत्महत्या

उसे छुओ तो हाथ नहीं खुलते थे
छुपाओ तो खुल-खुल जाता था
कहो तो अव्यक्त रह जाता था…

एक खोया हुआ प्रेम
कितनी पाई हुई स्मृतियों का नाम था।

सामान्य व्यवहार

यहाँ दिनों-दिन सब इतना असामान्य है
कि अब वही सामान्य है

यहाँ दिनों-दिन कोई हलचल नहीं होती
यहाँ दिनों-दिन कुछ नहीं दिखाई देता
यहाँ सब अक्सर अराजनीतिक होते हैं
यहाँ दिनों-दिन ख़ामोशी फैली रहती है

फिर एक दिन किसी राष्ट्रीय गौरव पर
गड़गड़ाकर बजती हैं तालियाँ
जैसे कि जहाँ अन्याय होता है
वह कोई दूसरा मुल्क हो
जहाँ कोई उपलब्धि होती है
वह कोई दूसरा देश हो

इस देश के गौरव में सभी का साझा है
इस देश की शर्म में किसी की शर्म नहीं है

इस देश की चुप्पियाँ
अब बस बधाइयों में टूटती हैं
चुप्पी और बधाई—
यही अब इस देश का
सामान्य व्यवहार है।

देश

घर टूटता भी है तो
‏घर की स्मृति बची रह जाती है
‏याद रहती है वह जगह
‏जहाँ कभी घर था

‏घर नहीं ढहता है
‏वह देश—
जिसे तुम अब सिर्फ़ अपना
महान् सहिष्णु देश कहते हो—
भरभराकर गिरता है
और ज़मीन-आलूद हो जाता है।

अम्मी

तेरह बरस थी कुल अम्मी की उम्र
जब वह अपने अब्बा का घर छोड़कर
उस घर आ गई थीं
जहाँ उनकी शादी हुई थी

उनके साथ उनके खिलौने आए थे
(गुड्डा-गुड़ियों वाले रिवायती खिलौने)
उनके पहनने के रंगीन कपड़े
कुछ मिट्टी के खाने-पकाने के खिलौना-बर्तन…
कुछ और भी चीज़ें थीं
जो अम्मी को अब याद नहीं रहीं

याद करने को अब बीसियों काम थे
जो इस घर में तब से उनके प्रतीक्षारत थे
जब से उनके पति का जन्म हुआ था

नींद का अभाव वह ख़ुदा के घर से लाई थीं
ज़िम्मेदारियाँ उनकी नींद तक में चली आती थीं
उनकी पुकार में किसी सोते हुए इंसान की
साँसों की लय नहीं बिगड़ती थी
और वह नींद से हड़बड़ाकर उठ जाती थीं

उनके पास बसों और रेलगाड़ियों और मेट्रो में
सतर्क रहने के वृत्तांत ज़रूर कम थे
पर अब बदले हुए संदर्भों में ही सही
उनका अपना एक घर था

वह अपनी जवान होती लड़कियों के प्रति सतर्क थीं
किस लड़के-लड़की का अफ़ेयर नहीं चलता…
मैं उन्हें समझाता था
वह इस वाक्य में ‘अब इस ज़माने में’ जोड़कर
हामी भर लेती थीं
आपका नहीं था क्या कभी…
मेरे पूछने पर
हँसते-लजाते
कुछ-कुछ विजित भाव से
उनका जवाब आता था—
इतनी कम उम्र में ब्याह हो गया था,
उससे पहले क्या ही होता…

मैं भूल गया था कि वह स्त्री थीं
और उन्हें अपने साथ हुए ग़लत को भी
अपना रक्षा-कवच बनाना पड़ता था

उन्होंने अपना जीवन
एक ऐसे इंसान के साथ लगा दिया था
जिसे नौकरी में ठीक-ठीक
कितनी तनख़्वाह मिलती है
वह कभी यह तक नहीं जान पाई थीं

धीरे-धीरे अम्मी के लड़के बड़े होते गए
इतने बड़े कि अब वह अम्मी को ही टोक सकते थे—
अम्मी को ज़रा देखो कैसे सज-सँवरकर तैयार हैं

अम्मी ने सजना-सँवरना छोड़ दिया था
अब लड़के बड़े हो गए हैं क्या सोचेंगे…
वह अब हर बात में यही सोचती थीं

मैं अम्मी को देखता था
और सोचता था
और उनके दुखों को
कविता में लाता था

एक स्त्री और माँ की पारंपरिक भूमिका में
अपनी माँ को दर्ज करने के अलावा
मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था।

अनुभव-विस्तार इन दिनों

हम मिलते हैं एक-दूसरे से
तुम कहाँ से हो… के जवाब में
अब कुछ कहा नहीं जाता
कुछ भी नहीं ऐसा कि अरे वहाँ तो…
जिसके आगे जुड़ी होती थी
हमारी जगह की कोई मख़्सूस ख़ासियत
जिसे सुनकर एक सुखद परिचय में
चमक जाती थीं आँखें

जोड़ने वाली अब कोई बात नहीं जोड़ती हमें
हमारी कोई भौगोलिक विशेषता नहीं
विविधता में एकता जैसी कोई कपोल-कल्पना नहीं
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है—1सरशार सैलानी की ग़ज़ल का एक मिस्रा
जैसा कोई शे’री तसव्वुर नहीं
ऐसा कुछ भी नहीं

हमें जोड़ने वाली सारी बातें
जैसे सब दूसरे ज़मानों की बातें थीं
इनकी परिभाषा अब ऐसे देनी चाहिए कि
ये सब अब एक ख़ौफ़नाक अजनबीपन के साथ अलगाती हैं हमें

अब इलाक़े हैं
और हर इलाक़े से जुड़ी हुई एक घटना है
हर नई बात में सरकार है
भीड़ है
हिंसा है
गलियों में सिराता ख़ून है

अनुभव की प्रामाणिकता
और सर्व-व्यापकता अब यूँ है
कि एक फ़ाशीवादी अनुभव-विस्तार जोड़ता है हमें।

वे

वे इतने क्रूर हैं
कि बनाए हुए हैं चेहरे पर
तैरती शालीनता का
सभ्य-सा दीखता
कोमल ठहराव

वे इतने शातिर हैं
कि व्यवहार की अंतरतम
तहों में समेटे हुए हैं
धोखे भरा हत्यारा प्रयास

वे इतने व्यस्त हैं कि
तुम्हारे साथ
चाय की चुस्की लेते हुए
बना रहे हैं तुम्हारी हत्या का
दूरगामी प्लान

और तुम इन सबसे दूर
हो सिर्फ़ इसलिए निश्चिंत
कि वे तुम्हें सामने से नहीं मारेंगे

सामने से न मारने की रियायत ही
अब इस समाज में
प्रेम का सर्वोत्तम उदाहरण है।

अंत (?) में इच्छा

प्रसन्नता के पर्यायों की देवी!
देखो कि अकथ उदासियों से चूर हूँ मैं
सारे ख़ुदा
सारे पयम्बर मिलकर भी
जिसका मदावा नहीं कर सकते
तुम्हारी कोई भी परिभाषा
कोई भी पर्याय
नहीं कस सकता
मुझे तुम्हारी कसौटी पर
कैसे भी नहीं हटाया जा सकता
मुख से कुम्हलाया भाव
और नहीं लिखी जा सकती
ख़ुशी की कोई मख़्सूस इबारत…

हम-ज़ाद कोई शैतान नहीं
थी एक दाइमी उदासी ही
जो पैदा हुई थी मेरे साथ

ऐसा सुख दो देवी!
कि जी उठूँ
कि निहार सकूँ
सिर उठाकर खुला आसमान
कि गा सकूँ जीवन-मादकता से भरा
एक अमर प्रणय गीत…

और अंत में फिर लौट आऊँ
अपनी अकथ उदासियों की ओर…

देवी!
मरने के कितने हीले हैं
कितने तरीक़े
कितने दर
मैं इन सबको छोड़
और तुमसे भी दूर
अपनी उदासियों के सीने पर सिर रखकर
मरना चाहता हूँ!

ग़लत सुख

हमने जितना मातम मनाया
वह इतना भी सच नहीं था
सुख इतने भी निष्ठुर नहीं रहे
वे आए जीवन में
दरवाज़े की घंटी की तरह बजे
हमने दरवाज़ा खोला और कहा—
तुम ग़लत पते पर आ गए हो दोस्त!

ख़ुदा का वादा

ज़िंदगी में कितने काम थे
फिर भी मैंने रोज़मर्रा के कामों में
उसे तकलीफ़ नहीं दी
उसकी इस दुनिया के हवाले से ही
कभी-कभी उसे पुकारा

वह किसी और दिन के वादे के साथ
हमेशा ही ग़ायब रहा

एक रोज़ मैं उसके दर से उठा
इतनी बेचैनियाँ समेटे उठा
कि देखने वाले भी कई उठ पड़े

मुझे नहीं चाहिए वह ख़ुदा
जो मुझसे क़यामत के रोज़
मुख़ातिब होगा।

प्रेम करते हुए

ऐसे देखता हूँ तुम्हें
जैसे इस दुनिया में
पहली बार आँखें खोली हों

रखता हूँ सीने में काँपता एक दिल
और फिर प्यार करता हूँ तुम्हें

ऐसे उतरती है तुम्हारी याद
जैसे पयम्बरों पर सच में उतरते हों सहीफ़े

ऐसे सँजोता हूँ तुम्हारी स्मृतियाँ
जैसे अपनी बिखरी आत्मा का संगीत सँजोता हो कोई।

तुम्हारे बाद समय

क्या होगा उन दिनों का
जो तुम्हारी आस में काटे नहीं कटे
जो चढ़े रहे वक्ष पर
बोझ से कसे रहे

वे शामें जो खिंचती गईं रातों में
रातें दुपहरों में
दुपहरें उन दिनों में
जिनकी भोर में तुम्हें आना था

वह समय
जो तुम्हारी प्रत्याशा में चू गया
जिसकी आधी घड़ी
तुम्हारी कलाई पर बँधी थी
जिसमें समय अब असमय था

उस समय
उन शामों का
क्या होगा
उन दिनों का
जिनका विस्तार
इन दिनों तक है।

हम ऐसों की नज़्म

हम वो लोग ठहरे
जो अचानक उदास हो गए
ढलती शामों में
चढ़ती रातों में

हम बे-वजही की वजह से उदास हुए
हम वजह की बे-वजही से उदास हुए
हम उदास हुए जब ग़म ही ग़म था
जब ग़म न रहा हम और उदास हुए

हम शापित रहे
पत्तों के झरने के मौसम में
फूलों के खिलने की ऋतुओं में
एक अव्याख्यायित उदासी हमें घेरे रही

हमने ख़ुदा को समझा और उदास हुए
ख़ुदा के बंदों से और भी उदास हुए
हम सर्द रातों को उठ-उठकर
ऐसे दुःखों के लिए रोए
जो दुनिया की निगाह में दुःख ही न थे
हम अपने रंजों पर टूटकर हँसे
और जिन पर कोई न रोया था
उन पर रो दिए

जब सब उदास हुए
हम खड़े रहे चुप
जब सब हँसे
हम उदास हुए

हमारे ग़म का कोई
मदावा न हो सका

हम दुत्कारे गए
हम पे लानतें-मलामतें हुईं
पूछते रहे हम ख़ुद से
वो कौन लोग हुए
जिन्हें बेचैनियाँ न हुईं
जो अक्सर ख़ुश रहे
उन्हें हम फटी आँखों से देखते रहे…


अनस ख़ान [जन्म : 1999] नई पीढ़ी के कवि हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह लखीमपुर खीरी [उत्तर प्रदेश] से हैं और वर्तमान में जामिया मिल्लिया इस्लामिया [नई दिल्ली] से हिंदू-उर्दू की कविता-आलोचना पर शोध कर रहे हैं। उनसे anasahmadkhn956@gmail.com पर संवाद संभव है।

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