कविताएँ और तस्वीरें ::
शोभा प्रभाकर

तुम्हें याद करते हुए

थकी शाम की अनमनी सैर में,
तुम मुझसे,
खोई हुई ख़ुशबू की तरह मिलते हो

पेड़ों की झुकी टहनियाँ
मुझे तुम्हारी, मेरी ओर बढ़ीं,
खुलती बाँहों की याद दिलाती है
तुम्हारी आँखों के काले घेरे,
बदरंग नाख़ून, गर्म हथेलियाँ,
पिता सरीखीं,
और वे गुलाबी तलवे
मुझे करुणा से भरते हैं

देखो न,
तुम्हारी पीठ से घाव चुनते-चुनते
मेरी उँगलियों के पोरों से
सैकड़ों कलियाँ जन्म ले चुकी हैं
इनकी भीनी ख़ुशबुओं को
लिफ़ाफ़े में बंद कर तुम्हें भेज रही हूँ
तुम्हारे तने हुए माथे पर थाप धरने के लिए

मैने अपना सारा घनत्व खीसे में डाल
नदी में बहा दिया है
मिलो, कभी इस तरह कि ख़ुद को पा लूँ
मेरी मिठास तुम्हारा स्वाद हो
मेरा रक़्त तुम्हारा स्वेद
मेरे ताप से तुम्हें ऊर्जा मिले

लौटती रहूँगी, पहले से ज़्यादा उजली,
मुझे भाषा के प्रकारों में मत खोजना
न मनोरंजन के विस्तारों में
मेरी चुप्पी और उदासी में फ़र्क़ समझना
देखना बच्चों की ठिठोली में
महसूस करते रहना फूलों के खिलने पर
बात कर लेना मुझसे पत्तियों के झड़ जाने पर

मुझे पाने की कोशिश मत किया करो
एन वहीं तुम चूक जाते हो

मिज़ाज

मौसम का मिज़ाज पर फ़र्क़ पड़ता है।

मैंने हर तीसरी किताब,
एन अंत आने से पहले छोड़ दी।
गिलास का आखिरी घूँट शिष्टाचार से पीया,
तबियत से नहीं।

अन्न के पीछे आलस्य,
प्रेम के पीछे पीड़ा,
त्याग के पीछे तृष्णा,
निश्चित है।

तो संताप के पीछे सृजन
क्या हर बार संभव है?

वह सुथरा और साबुत बचा रहता है
एक आदमक़द दलील देकर :
‘आख़िर मैं एक इंसान हूँ।’

पत्थर बनने का मशविरा देने वालों,
तुम फूल क्यूँ नहीं बन जाते?

जीवन चलता है

‘ब्रह्म मुहूर्त में उठने के फ़ायदे’
‘दो मिनट में संविधान समझें’
‘खोया हुआ प्यार वापिस पाएँ’

कितनी समस्याएँ, कितने समाधान!

बहुत सारा आराम, बहुत कम चैन।

धूप का रंग सफ़ेद है।
पत्तों पर पड़ने से
इनकी चमक बढ़ी हुई मालूम होती है
पत्तों का रंग हरा ही है।

बच्चों की ‘स्कूली’ प्रार्थनाएँ
माहौल में हल्की ठंडक
हवा में ख़ुशबू और मिठास
बचपन की गर्मियों की याद

सदाबहार के फूल झूम रहे हैं
नए उगे टमाटर चिड़िया चख चुकी है
कितना सुंदर चहचहाती है

कपड़े सूखते हैं
रोटी फूलती है
जीवन चलता है।

रफ़्तार तो मोटरों की होती है
कारख़ानों में मशीनों की
नोटों की गिनती में
अफ़वाहों में, नकारात्मकता में।

दिन, मौसम, मासूमियत
सब बदलते हैं
तुम और मैं से—हम
हम से—तुम और मैं भी
जीवन चलता है
हौले-हौले
चुपचाप!
चुपचाप!

प्रतीक्षाएँ

प्रतीक्षाएँ स्थगित हो जाती हैं,
रुप बदल लेती हैं
प्रतीक्षाएँ ख़त्म नहीं होतीं

मुझे इस बात का ख़याल है!
समय आने पर ये करना, वो करना है!

चीज़ें पूरी तरह छूट जाने से पहले
पूरी तरह होना माँगती हैं

जो चीज़ें होने से पहले
स्थगित रहते हुए छूट जाएँ
वे मुक्त करती हैं

जो चीज़ें सहज छूट जाएँ
वे श्रेष्ठ हैं

जो चीज़ें न होने से श्रेष्ठ हैं
उनके हो जाने की कल्पना
और कल्पनाएँ असीमित,
स्मरण कराती हैं

ख़ैर छोड़ो, ये बताओ

रंग, बारिश, फूल,
धूप, चाय, नज़्म,
संगीत, बेफ़िक्री,
बतकही या मनमर्ज़ियाँ?

मेरी स्मृतियों के चिह्न कहाँ हैं?

बीज

जंगली पौधे
घर में रखे
तुलसी और गुलाब के
पौधों में भी दिखते हैं

वे अनमने उगते हैं
बढ़ने की इच्छा से विरक्त
फिर भी बढ़ते हैं
और उँचा पहुँचते हैं

हर बीज एक नया जीवन है!

मन के भीतर
सैकड़ों बीज पनपते हैं
कितने जन्म, कितने जीवन
कितने जीव या निर्जीव
कौन जाने!

अस्तित्व

क्या परीक्षा है,
इतनी लंबी दुपहरें क्यूँ नहीं कटतीं,

साँस ले-लेकर भर चुकी हूँ गले तक।

मुझ तक पहुँचती हर चीज़ टकराकर गिर जाती है
या चिपक जाती है।

‘ग्रहण’ करने की युक्ति खो गई है मुझसे,
जैसे अर्घ्य किए चावल के दाने
रसोईघर में कहीं रखकर भुला दिए जाएँ।

मेरी देह से, देखो,
नमक के डले गिर रहे हैं,
इतने खारे कि मुँह का स्वाद बिगड़ जाए।

मेरे छोटे नाख़ूनों के भीतर भी रेत जम गई है,
लबालब,
काँच का कण ही चुभ गया
रक्त निकल आएगा,
तो भान भी न होगा।

चेतना के कमोबेश प्रत्येक स्तर पर
काले धुएँ की परतें जम गई हैं।
देह ऊर्जा से ख़ाली, मन इच्छा से।

सारा अस्तित्व,
पहले ही उदासीन ब्रह्मांड पर
केवल नगण्य छींटा,
एक गंधाता हुआ लोथड़ा,
व्यर्थ सिद्ध, हर बार,

कल मिटता,
आज मिट जाए।


शोभा प्रभाकर की कविताओं और तस्वीरों के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए हैं यहाँ देखें : देह की संवेदनाएँ मुझे एक-एक कर चिढ़ाती हैं

1 Comments

  1. सुमित त्रिपाठी अप्रैल 9, 2023 at 12:23 अपराह्न

    अच्छी कविताएँ हैं। सहज सुंदर।

    Reply

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