कविताएँ ::
आंशी अग्निहोत्री
गुलमोहर
धीरे-धीरे मेरा बदन टूटता जा रहा है
मेरी रूह लिखती जा रही है
दिन-ब-दिन बुढ़ाते गुलमोहर की
हर शाखा से जुड़ा है हमारा रिश्ता
वह उधेड़ता जा रहा है
अपनी जड़ों से मेरा आँगन
(जो अब हमारा नहीं है)
गुलमोहर के फूल लाल हैं
लाल हैं मेरे भीतर के कुछ दाग़
मेरी आत्मा के अमिट हिस्से में तुम हो
जैसे अमराई और गुलमोहर
मेरे आँगन के हिस्से में
मेरा बुढ़ापा मुझे कसकर
गले लगा रहा है
जैसे गुलमोहर की जड़ें जकड़े हैं
ज़मीन और आँगन
(जो अब हमारा नहीं है)
मेरे मन के भीतर उग आई है दूब
और दूब से पटा है मेरा आँगन
शरीर और आँगन कसमसाते रहते हैं
यादों की यातना से झुलसता
मेरा घर मोम हो रहा है
(जो अब हमारा नहीं है)
अमराई की चिरैया रेढ़ती है
दिन रात मेरे घर के अँधेरे
घर में दिया जलाया नहीं जा सकता
घर मोम हो रहा है
मैं घर के साथ सोते-जागते
अँधेरे की हो गई हूँ।
उम्र
एक वक़्त बाद समंदर की तमाम लहरें
मेरी चमड़ी पर उतर आएँगी
उतर आएँगी मेरे होंठों पर पेड़ों की छालें
बालों में झीनी-झीनी झड़ आएगी
चाँद की मिट्टी
और हाथ
पतझड़ के जैसे सूखे पत्ते
हवा संग काँप-काँप जाते हैं
वैसे कँपकँपाएँगे
आँखों में उतर आएगा
ब्रह्मांड का समूचा रहस्य
और उसके नीचे के काले घेरे भी
लोग कालेपन को नहीं समझते
इसीलिए वे ब्रह्मांड को नहीं समझते
मुझे उम्मीद है :
मेरा यौवन ढलने के बाद
लोग मेरी सुंदरता देख पाएँगे।
कुछ सपने
नन्हा-सा भाई है
और बड़ी-सी मैं
दोनों के अलग-अलग सपने हैं
उसके सपने में पंखा बन जाते हैं
मोर और बगुले
मेरे सपने में वे
बन जाते हैं इंसान
उसके सपने में आते हैं :
मेढक, शेर और कछुए
मेरे सपने में आते हैं इंसान
उसके बगुले, शेर और कछुए
रंग-बिरंगे होते हैं
मेरे सपने के इंसान होते हैं काले
वह शेर से बचने को
माँ के पास छुपकर सोता है
और मैं इंसानों से बचने को
उसके पास सो जाती हूँ।
कुछ और सपने
कुछ जंगली सपने
जो गरजती-उफनती लहरों के साथ उठते हैं
मेरे दिल के कोने भिगाते हुए
तूफ़ान लाते हुए
और एक तेज़ हवा का झोंका
उन्हें लाकर पटक देता है
मेरी आँखों की पुतलियों के भीतर
कुछ और सपने
मेरी चमड़ी को छीलते हुए
मेरी रूह गुलज़ार करने आते हैं
मेरी रूह खींच लेती है
उनके हिस्से की साँसें
वे मर जाते हैं
वे मेरे ख़ून से सँवरने आते हैं
या कहूँ मरने आते हैं
दूर जंगली चमेली की कोख फूटी होगी
मेरे हिस्से की कुछ कलियाँ
जो अब फूल बनने को आई हैं
चाँदी की तस्तरी में ख़ुशबू समेटे हुए
रूमाल लपेटे हुए
बड़ी दूर से मेरा मुँह मीठा करने आई हैं
वे मेरे ख़्वाब हैं
शहर के उजालों से मावरा हैं
जिन्हें नूर और ग़ुरूर की
सरगर्मियों से मतलब नहीं
जिन्हें सुफ़ेद दुपट्टों की क़द्र है
उन्हें दाग़दार करने का मक़सद नहीं
वह मुसाफ़िर मेरे राज़ जानता था
वह ख़्वाबों की वकालत पर उतर आया था
जिन्हें मैं जंगल से गुज़रते हुए
किसी परिंदे के परों में टाँक आई हूँ
उन ख़्वाबों का ज़िक्र बेमानी है
मैं अब उन जंगलों का रास्ता नाप आई हूँ।
स्टेशन
ट्रेन की धड़-धड़…
मानो हवा के दुपट्टे फट रहे हैं
मैं निचली बर्थ पर लेटी हूँ
सीधे—चुप—एकदम चुप
ख़याल आता है—
कुछ इसी तरह रखी जाती हैं लाशें
बर्थ-दर-बर्थ
सीधे—चुप—एकदम चुप
पर लाशों में विचार नहीं होते
यादें नहीं होतीं
दर्द और आँसू नहीं होते
मेरे पास ये सब कुछ हैं
मैं जीवित हूँ
और उन लाशों को सोच रही हूँ
मुझे डर लग रहा है
धड़कनें गँवाने से पहले
स्टेशन आने से पहले…
आंशी अग्निहोत्री की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह फ़तेहपुर (उत्तर प्रदेश) की रहने वाली हैं। उन्होंने इसी वर्ष अपना स्नातक इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरा किया है। उनके विषय हैं : इतिहास और अँग्रेज़ी। उन्हें फ़िलहाल अमृता प्रीतम पसंद हैं। उनसे anshiagnihotri123@gmail.com पर बात की जा सकती है।
स्मृतियों और तकलीफों से विहीन मनुष्य यंत्रों से भी अधिक यंत्रवत होगा।
अच्छी कविताएं हैं। कुछ पंक्तियां और उनसे उपजते दृश्य बहुत अच्छे हैं। कवि को शुभकामनाएं।
बहुत ही अच्छी है कविताएँ कवि ऐसे ही आगे बढ़े और अपना और अपने परिवार का नाम रोशन करें
आपकी कविताएँ शानदार, सरल, स्पष्ट और वास्तविक है….. Amazing😍🤩👍 🥰😍😘😘
ashi
aapki kavitayein bahut sundar hain. कुछ सपने atisundar hai. shub kamnayein.