कविताएँ ::
अंशू कुमार

अंशू कुमार

सजाना

कभी खाने को नहीं मिली
जिसे सजी हुई थाली
उससे उम्मीद है
वह कोना-कोना सजाए

कभी सुना नहीं गया जिसे
ऊँची आवाज़ में बुलाया गया सदा
उससे उम्मीद है
वह शब्दों को सजा-सजा कर बात करे

कभी नहीं पूछा गया
जिससे उसका हाल
उससे उम्मीद है
वह सबका ख़याल रखे

कभी कुछ सजा-सजाया नहीं मिला जिसे
उससे उम्मीद है
वह सिर्फ़ घर ही नहीं
ख़ुद को भी सजा कर पेश करे

और इसलिए
इसलिए ही मुझे
कविता हो या जीवन
दोनों को सजाने से समस्या है

पिता और माँ में अंतर

पिता और माँ में
जितना अंतर तुमने समझा है
बस उतना ही अंतर तुमने
बौद्धिकता और बोध में जाना है

जबकि चाहत दोनों को
दोनों होने की थी

बहुत बार पिता ने
माँ होना चाहा
और माँ चाहती रही
पिता होना

लेकिन बीच में खींची गई लकीर
इतनी बड़ी थी कि
एक की कभी सुनी नहीं गई
और एक कभी रो नहीं पाया!

मैं कौन हूँ

एक दिन उसने पूछा—
फिर मैं कौन हूँ!

लड़की ने कहा—
नहीं पता…
लेकिन इतना पता है कि
मैंने प्रेम में तुम्हें कोई
गुलाब का फूल नहीं दिया
जो किसी किताब में रखकर
तुम भूल जाओ

मैंने मुकम्मल एक लड़ाई लड़ी
लड़कर एक ख़्वाबगाह सजाई
मेहनत से एक छत जमाई

बालकनी में खड़े हो
मैंने मौसम देखा
और लोगों को आते-जाते देख
मैंने सिर्फ़ तुमको देखा

मैंने साथ जीने की चाह में
एक दिन की मोहलत रोज़
ज़िंदगी से उधार ली

इस पर भी अगर
तुम पूछते हो—
मैं कौन हूँ
तो मुझे नहीं पता—
तुम कौन हो
मैं कौन हूँ!

कहाँ मिलेंगे

मैंने पूछा उससे—
अब आगे मिलना हुआ तो कैसे मिलेंगे?

उसने बहुत आश्वस्त होकर कहा—
दुनिया बहुत बड़ी है
कहीं भी मिल लेंगे…

मैं उससे पूछना चाहती हूँ कि
मेरी देखी दुनिया में
प्रेम के लिए एक इंच भी
जगह तय नहीं है

प्रेमियों को सिर्फ़
हाथ में हाथ थामने के लिए
गुफाओं-खंडहरों-सिनेमाघरों में
भटकते देखा है मैंने

प्रेमियों को सिर्फ़ कंधे पर
सिर टिकाने के लिए
बग़ीचे के तमाम फूलों को छोड़कर
सबसे पुराने, व्यापक और विस्तृत वृक्षों की
ओट में छुपते देखा है मैंने…

इस सबके बाद प्रेम में
प्रेम के पहरेदारों से हताश
अनिश्चितताओं से घिरे प्रेमियों को
कभी बिछड़ते
कभी रोते
कभी लड़ते…
देखा है मैंने

फिर तुम बताओ—
तुम कहाँ मिलोगे?

टूटना

टूटने का डर हमेशा रहा
इसलिए हर परिस्थिति में
सबसे ज्यादा बाँध
ख़ुद के लिए बनाए मैंने

जब भी ज़रा-सी भी
ख़ुद को ढील दी मैंने
वहीं टूटने की आशंका
सबसे ज़्यादा महसूस हुई

बावजूद इसके
आज जब टूट रही हूँ
तो बदहवास हूँ
और बेआवाज़ भी!

क्योंकि योजनाएँ
बचाव के लिए हो सकती हैं,
बहाव के लिए नहीं…


अंशू कुमार नई पीढ़ी की कवि हैं। उनकी कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनकी उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हुई है। उनसे anshupusugs@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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