कविताएँ ::
आसित आदित्य

आसित आदित्य

टुकड़ों का योग : मैं

नींद की लहरों पर हिचकोले खाते मेरे स्वप्न में
एक बरसाती रात है
एक सुनसान गली है
और उस गली के अंतिम छोर पर है—
एक उजाड़ लैम्पपोस्ट।

नीली छतरी वाली एक लड़की अक्सर
बरसाती रात में उस लैम्पपोस्ट के नीचे आती है
और सुनसान गली में बिछ जाता है उसके प्रेमी का इंतज़ार।

घरवालों के तानों से छलनी अपनी मुट्ठी में अपनी आत्मा लिए
अक्सर आता आँखों के नीचे निशानों वाला एक लड़का।

वह लैम्पपोस्ट के नीचे सिगरेट सुलगाता है
विचारों के प्रेतों के सहारे आत्महत्या की रणनीति बनाता है।

कभी-कभी जब भौंकते हैं गली के आवारा कुत्ते
ख़ून सने कपड़ों में एक शख़्स दौड़ते हुए आता है
और लैम्पपोस्ट से ख़ुद को टिका रोता है फफक-फफककर।

(ये वो है जिसने अपनी पत्नी और उसके प्रेमी की हत्या कर दी।)

मैं कहाँ हूँ?
नहीं, अपने स्वप्न में बिल्कुल नहीं।

मैं नीली छतरी वाली लड़की के इंतज़ार में हूँ,
मैं उदास लड़के के आत्महत्या की रणनीति में हूँ,
मैं ख़ून सने कपड़ों वाले क़ातिल के आँसुओं में हूँ।

आदम का वंशज मैं,
बना हूँ मानुष जोड़-जोड़कर टुकड़े सबके।

कुछ अनकही बातें मेरी और एक प्रश्न आपसे

वह जिसने खो दिया था स्वयं को मुझमें कहीं
उसका हृदय छोटी-छोटी ख़ुशियों का संग्रहालय था।

बड़ी-बड़ी बातें मेरी
मेरी पूर्व प्रेमिकाओं के नाम थे जैसे—
हज़ारों बार आकर मेरे होंठों पर ही ठहर जाते।

उधर विरह की अग्नि में वह जली-मरी
और इधर कुछ बातें दफ़्न हो गईं
भरभरा कर गिरे मेरे ख़्वाबों के आशियाने में।

मुझे कहना था उससे
कि उसकी दो आँखों के अलावा
इस दुनिया की करोड़ों आँखों के आँसू सूख चुके थे मेरे लिए।

मुझे कहना था उससे
कि उसका प्रेम पाकर उतना ही करुण हो जाता था मैं
जितना थे सूली पर टँगे लहूलुहान यीशु।

मुझे कहना था उससे
कि आधी रात जब बादलों के कान में
फुसफुसाता था मैं नाम उसका
तब सितारे ख़ुद-ब-ख़ुद ढल जाते थे उसके नाम की आकृति में।

…और मुझे ये भी कहना था उससे
कि मेरी जान देखना एक रोज़ हमारे पाक प्यार की लाश पर
मँडराएँगे परंपराओं के भूखे गिद्ध।

हाँ, मुझे ये सब कुछ कहना था उससे।

हे पाठक! तुम्हीं बताओ,
मेरी इन बातों को सुनने एक न एक दिन वह लौट आएगी न?

आसित आदित्य हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक हैं। उनसे aaditheloafer@gmail.com पर बात की जा सकती है।

3 Comments

  1. Parul bansal सितम्बर 9, 2020 at 7:20 पूर्वाह्न

    वक्त निकल जाने पर अफसोस करने से कोई फायदा नहीं होता।

    Reply
  2. आसित आदित्य सितम्बर 10, 2020 at 2:34 अपराह्न

    जी पर पश्चताप का खंज़र पल-पल जान निकलता रह जाता है। ये कविता उसी खंज़र के ज़ख्मों की उपज है।

    बहुत शुक्रिया आपका ❤️❤️❤️

    Reply
  3. Uma जनवरी 21, 2021 at 2:46 अपराह्न

    आपकी ये दूसरी कविता मुझे बहुत रिलेटेबल लगी।
    मुझे अपना चेहरा दिखने लगा। मैंने अपने डायरी में लिख लिया।
    आपको और पढ़ना पसंद करुंगी।

    Reply

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