कविताएँ ::
अंकिता शाम्भवी
साथी
काश मैं तुमसे तब मिली होती,
जब जूते के फ़ीते नहीं बाँध पाती थी,
माँ की बड़ी-बड़ी काँच की चूड़ियाँ,
और दुपट्टे की साड़ी पहनकर चहक उठती थी।
कभी घर के कोने में छिपकर, न्यूज़-रिपोर्टर बन जाया करती थी,
न जाने क्यों मेरा समाचार पढ़ना सबको लोट-पोट कर देता था!
तुम होते तो तुम्हें मुझ पर गर्व होता न?
काश मैं तुमसे तब मिली होती,
जब आटे के लोई की गुड़िया बनाया करती थी,
और मिट्टी के छोटे-छोटे घरौंदे,
जब लगता था, जल्दी सो जाने पर,
परी-रानी सचमुच आकर तोहफ़े दे जाएगी…।
हाँ, मैं तब मिलना चाहती थी तुमसे,
तुम समझ लेते मेरी सारी बेसिर-पैर की बातों को
मुझे गुड़िया चाहिए थी एक,
जो मेरी आवाज़ सुनकर वैसे ही दोहराए,
मुझे घर में बंद रहना अच्छा नहीं लगता था,
खिड़की से बाहर देखते-देखते भी थक जाती थी मैं,
कोई भी नहीं आता था मुझसे मिलने,
कोई काबुलीवाला भी नहीं आया कभी…
मुझे गणित से नफ़रत होती थी
पाँच और दो के जोड़-घटाव सिर के ऊपर से गुज़रते थे,
तब तुम होते तो सारा दिन बैठकर अपनी गुड़िया से खेलती,
बिल्कुल बेपरवाह, निर्द्वंद्व!
नहीं इंतज़ार करती तब, किसी भी काबुलीवाले का,
नहीं सीखती कोई जोड़ना-घटाना,
ख़ूब खेलते हम, शाम ढलने तक
घास पर ओस की बूँदें पड़ने तक।
काश, तुम मेरे बचपन के साथी होते!
अभ्यस्त हूँ
तुम्हारे नहा लेने के बाद,
तुम्हारे भीगे तौलिये से अपना बदन पोंछना,
तुम्हारा स्पर्श पा लेने जैसा है,
ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ावों के बीच ये मेरे रोज़ का एक हिस्सा है।
तुम्हारे खा चुकने के बाद,
थाली में बचे हुए ज़रा से अन्न का निवाला,
चाव से खाना,
जैसे तुम्हारे हाथों का कौर ही हो
मेरे लिए प्रेम यही तो है।
साँझ ढले तुम्हारे काम से लौट आने के बाद,
तुम्हारी क़मीज़ से आती हुई पसीने की गंध को
धुलने से पहले,
अपने सीने से लगाना,
यह गंध मेरे लिए हरसिंगार के फूलों की गंध-सी होती है।
मैं अभ्यस्त हूँ इन तमाम कामों की,
जैसे रोज़ सूरज के उगने की…
मैं बेहद क़रीब हूँ, तुम्हारे पसीने की गंध वाली क़मीज़ के,
बेहद क़रीब हूँ मैं, तुम्हारे भीगे तौलिये के स्पर्श के।
तुम्हारी घड़ी और मोज़े सँभाल कर
रोज़ उन्हें ठीक जगह पर रख देना,
मेरे लिए प्रेम कर लेना है।
राग यमन
आसमान और चाँद मिलकर हो गए हैं मद्धम,
एक ज़रा-सा रेशमी कंपन…
और चू पड़ा है चाँद मेरे होंठों पर,
यूँ सरगम गीले हो गए हैं
तुम्हें जाते हुए देखती हूँ,
बहुत दूर चले जा रहे हो,
अभी तो इक नूतन राग बनाना था हमें
सितार पर साथ थिरकनी थीं हमारी उँगलियाँ,
न जाने क्यों, मेरे सुर अब रूठ गए हैं मुझसे…
कहीं स्मृतियों के प्रांगण में,
कोई गा रहा है राग यमन
(नि-रे-ग-रे-नि-रे-सा)
मैं याद नहीं करना चाहती ‘तीव्र म’…
तुम दूर जा रहे हो मुझसे,
इक टीस उठती है कलेजे में,
और,
मैं भूल रही हूँ राग यमन…।
अंकिता शाम्भवी की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ‘हिंदी निर्गुण संतों और बाउलों के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ (हिंदी साहित्य) विषय पर शोधरत हैं। वह संगीत और चित्रकला के संसार से भी संबद्ध हैं। उनसे ankitashambhawi@gmail.com पर बात की जा सकती है।
बहुत ही मार्मिक चित्रण।
Good work
Teeno kavitayen bahut sundar hai❤️😍
आज आपकी रचनाएं पहली बार पढ़ी है।अब आपकी सभी कविताएं पढ़ना चाहता हूं। सहज ही मन में उतर जाने वाली रचनाएं है।
शुक्रिया इतना ख़ूबसूरत रचने के लिए।