कविताएँ ::
हर्ष भारद्वाज
गाँव की लड़कियों को देखना
मैंने गाँव की लड़कियों को देखा है
—अक्सर—
शहर के उदास कोनों में
चुपचाप बैठे हुए।
उनकी किताबों से भी
मिट्टी की ही गंध उठती है
और सही शब्दों की कमी में
वे कम-कम कहना सीख जाती हैं—
सब कुछ!
वह ख़ून को
ख़ून कहना नहीं जानती थीं
न ही देह को देह
तब
जब उसने बहुत कर इतनी हिम्मत जुटाई
कि मुझसे गले मिल
हँस नहीं तो कम से कम रो सके।
‘‘तुमने कभी… ख़ुद को चिट्ठियाँ लिखी हैं?
हमारे शब्दों की कमी को
हमारे सिवा कोई नहीं समझता
इसलिए
हम बहुत कम उम्र से
ख़ुद को चिट्ठियाँ लिखना सीख जाते हैं।
मन ही मन सही,
हम गाँव की लड़कियाँ…’’
उनकी ज़िंदगी के पन्नों पर
गुलाबी रंग से कहीं गहरा जमा होता है
नमक का रंग।
उनकी डायरी में होते हैं अक्सर
बहुत से गोंजे हुए पन्ने
जिनमें कभी दर्ज थीं वे बातें
जो वे ख़ुद से भी नहीं कहना चाहतीं।
‘‘मेरी जाँघों पर एक
नीले रंग का दाग़ है।
मेरे घरवालों ने जिसे पालतू कहा
असल में वह एक आवारा साँप था,
मेरे भाई का,
जिसने मुझे मेरी जाँघों पर
कई-कई रात डँसा
और हर बार मैं
मरने का ढोंग करती रही
जैसा कि माँ ने सिखाया था।
तुम कभी… बिना चीख़े मरे हो?
…हमारे शब्दों की कमी को
हमारे सिवा किसी ने
कभी जानना भी न चाहा
और हम ख़ुद ही ख़ुद को चिट्ठियाँ लिखते रहे
लिखकर चुपचाप मरते रहे!
सारी-सारी रात की चिट्ठियाँ—
—ज़हर और ज़ख़्म की—
मेरी सहेलियों ने भी लिखकर जला दीं
और वह आवारा साँप
किसी का भी हो सकता था—
चाचा, दादा, बाप या फूफा… कोई भी!
…ख़ून की आदत होना ही
क्या स्त्री होना है?
स्त्री होना, असल में
ज़ख़्मी होना है
उस बस्ती में, जहाँ
दूर-दूर तक कोई दवाख़ाना न हो।
स्त्री होना
असल में उस दवाख़ाने की तलाश है
जिसके न मिलने पर
अपनी-अपनी जाँघों के ज़हर को
हमें ख़ुद चूसकर,
रह-रह थूकना होता है।’’
मेरे गले लिपटकर
जो उस दिन रोई वह
—गाँव की लड़की—
मुझे हर स्त्री के चेहरे में दिखती रही
बहुत तलाश के बाद
आख़िरकार वह उस दवाख़ाने तक पहुँच गई
जो कि असल में एक पुस्तकालय था।
‘‘तुम मेरी एक कविता सुनोगे? मेरी एकमात्र… संपूर्ण कविता?’’
कहो।
‘‘परिवार
परिवार
एक घिनौना शब्द है।
बस!’’
शहर जलता है
इस शहर में जलती है देह जिस तरह
ये दिल अब उस तरह नहीं जलता है।
साज़िशें हैं कि ख़त्म नहीं होतीं
घर हैं कि बुझाए नहीं बुझते हैं,
शहर है कि जलता जाता है;
जल जल जाते हैं लोग जिस तरह
ये दिल उस तरह क्यों नहीं जलता है?
जिस तरह जलते हैं प्रेम के दस्तावेज़
क्या लोहा जलता है उसी तरह?
आपकी आँखें भी क्या पिघलती हैं उसी तरह
जिस तरह मेरी बहनों का कलेजा पिघलता है—
—मोम से सपनों-सा—
और क्या पिघलता है?
आपका कौन-सा सूरज और कौन-सा कोयला जलता है
उस तरह
कि जिस तरह
आज ये शहर जलता है?
हैं कि बस जलते जाते हैं लोग
जिस तरह ये दिल कभी नहीं जलता है।
रोम की लाइब्रेरी जलकर हुई जो
क्या मेरी दादी भी जलकर वही हुईं
और मेरे दादा का बस्ता
कहाँ छूटा?
उस लाइब्रेरी में या उस रसोई में
जिसकी दीवारों पर कोई तस्वीर नहीं
बस एक परछाईं पलती है अब—उजली-सी?
समय ख़ुद जलकर
सबको एक कर देगा
मगर यह समय क्यों नहीं जलता
उस तरह
कि जिस तरह आज ये शहर जलता है?
हैं कि जल जाते हैं लोग जिस तरह
उस तरह अब न ये दिल जलता है
कहते हो तुम कि एक जंगल जलता है
मैं कहता हूँ कि कोई आदिवासी बाप जलता है
तुम्हारी परेशानी है कि जलावन भीग जाते हैं
मगर जो आँच उठती है
बारिशों में भी
कहीं उसमें मेरी
बहनों की माँ जलती है
मगर न जलता है उसके ख़ुदा का दर आज भी
कि हाय! अब किस तरह ये शहर जलता है?
हैं कि बस जल जाते हैं लोग
जिस तरह
उस तरह
क्या कभी कोई दिल नहीं जलता?
मैंने देखा है ख़ून खेतों में
सड़कों पे भी बहते हुए
तुम ही कहो,
क्या तुम्हारे आकाश में
फिर कोई गुलमोहर खिलता है?
कितना ज़हर पलता है
तुम्हारी आँखों में
कि इस बुझे हुए शहर को देखकर भी
न तुम्हारी नज़र झुकती है,
न तुम्हारा जिगर जलता है!
हर्ष भारद्वाज की यहाँ प्रस्तुत कविताएँ ‘सदानीरा’ को नई पीढ़ी के आलोचक सुशील सुमन के मार्फ़त प्राप्त हुई हैं—इस परिचय के साथ : ‘‘दिल्ली विश्वविद्यालय के वेंकटेश्वर कॉलेज से अँग्रेज़ी साहित्य में स्नातक कर रहे हर्ष भारद्वाज की कविताओं से मेरा पहला परिचय दो-तीन साल पहले हुआ, जब वह संभवतः ग्याहरवीं के छात्र थे। उनकी प्रारंभिक कविताओं में ही जिस तरह की संवेदनात्मक बेचैनी और तनाव की मौजूदगी थी, वह प्रभावित करने वाला था। बाद में ‘स्त्रीकाल’ और ‘बनास जन’ में उनकी कुछ कविताएँ प्रकाशित हुईं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ उन्हीं कविताओं की कड़ी में कवि के उर्ध्वमुखी विकास का पता देती हैं। इन कविताओं में मौजूद कवि की संवेदना, उसकी सामाजिक पक्षधरता, ज़मीनी समस्याओं को देखने की उसकी तीक्ष्ण दृष्टि, अपने समकाल के प्रति उसका आलोचनात्मक नज़रिया और साहसिक भाषिक अभिव्यक्ति… इस कवि से उम्मीद की वजह है।’’ हर्ष भारद्वाज से bhardwajharsh.432@gmail.com पर बात की जा सकती है।
स्त्री की मनोदशा का वर्णन बहुत सुंदर शब्दों में किया है छोटे-छोटे सीधे-साधे शब्दों में जो वर्णन किया है मन में अंकित हो गया बहुत-बहुत धन्यवाद
किसी एक व्यक्ति या एक परिवार में हुए कुकर्म के चलते पवित्र परिवार शब्द के बारे में ऐसा कथन पूर्णरुपेण गलत है
कैसे लिखना आता है पर क्या लिखना अभी सिखना है
Bakvaas kavita hai
बकवास।
वास्तविक समाज से भिन्न, लाखो हजारों मे कुछ हो हुवा हो, उसे ही मुल धारणा बनाकर और निराशाजनक शब्दों को खपाने से अधिक नहीं है।
Jaruri Nahin Ki samaj mein Har Mahila ke sath Is Tarah Apradh Ho samaj mein do 4 ghatnayen Aksar hoti rahti Hain iska matlab yah Nahin Ki Gaon ki ladkiyon ki koi Ijjat nahin karta Yahan Ke man Baap Bhai Bahan Dada Is Tarah Ke Hote Hain apni Kavita Mein Dard likhane Se Pahle Kisi ghatna ko Bade Samaj Ko Badnaam karna acchi baat nahin hai Mana ki ki Kuchh darynda Hain Jo Samaj Ko kharab kar de
काव्य लेखन बंद ही कर दें, आपके बस की बात नहीं है। अपने अनुभव और उम्र से अधिक विद्वान् दिखने का आपका भरसक प्रयत्न स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है।
शानदार , जानदार , धारदार कविताएं
बधाई तो बनती ही है
Very very nice poem , no one can understand the women’s feeling in the world.
Haunting words and daunting work,Harsh.
Hindi Poetry!
thought it to be long gone.
But it is still very much alive.
Very touchy. Per ye vednaayein sirf gaanv ke ladki ki nahi, her ladki ki hai, bhale hi woh kitni bhi padhi likhi aur sheher ki kyun naa ho :'(
सर आपकी कवताओं में वो सच्चाई है जो आज के वर्तमान युग में महिलाओं के साथ हो रहा है इसके माध्यम से आपने वर्तमान स्त्री को व्यक्त किया है पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आपको आपके उ्ज्वल भविष्य के लिए बहुत बहुत बधाई । मनोज नारनोलिया
स्वयं स्त्री हो कर भी “स्त्री” की इससे अच्छी परिभाषा मैं शायद ना दे पाती…
स्त्री होना, असल में
ज़ख़्मी होना है
उस बस्ती में, जहाँ
दूर-दूर तक कोई दवाख़ाना न हो।
बहुत सा प्रेम। हर्ष 🙂