कविताएँ ::
ज्योति यादव
एक
ताकता रह गया आदमी,
हर एक माथे पर मढ़ दिया गया क़त्ल,
शहर वीरान हुआ तो अजनबी लगने लगा है।
पिता को याद नहीं वो चौक
जहाँ उन्होंने पहली बार माँ को देखा था।
उस चौक पर बंदूक़ें ताने खड़े हैं न जाने कौन लोग।
सब्ज़ियों की दुकानें बाज़ार से होते हुए,
गलियों में पहुँचीं फिर गुम हो गईं
और भून दिए गए दुकानदार।
जो ज़िंदा बचे हैं, उन्हें ज़िंदा कहना
जीवन की तौहीन होगी।
स्कूलों में घूमते हैं अब पूर्वजों के भूत,
इस शहर के बच्चे घरों से नहीं निकलते।
यहाँ पानी ज़हर हो चुका है और ख़ून पानी,
गला सूखता ही नहीं किसी का…
सूख जाए तो एक घूँट डर गटक लेते हैं बाशिंदे।
बाग़ीचे के फूल मर जाना चाहते हैं, कुछ मार देना चाहते हैं
जीने का ख़याल किसी को नहीं आता।
सैंतालीस का नेहरू रोता है,
किसी दरख़्त पर उल्टा लटककर…
और एक कोई आवाज़ दिल्ली में बैठकर हँसती है।
मुल्क में शोर है कि कहीं कुछ अच्छा हुआ है
शहर का सन्नाटा पश्तो में कुछ और ही कहता है,
बाकि का मुल्क पश्तो नहीं समझता…
पर एक कोई आवाज़ अब भी दिल्ली में बैठकर हँस रही है।
दो
हॉस्टल के कमरों में सिर्फ़ हल्ला नहीं होता,
एक ख़ामोश चीख़ भी होती है
जो किताबों की अलमारी में बहुत भीतर
छिपा दी जाती है
और फिर कभी सुनी नहीं जाती।
अगली बार, आप किसी से उसके कमरे पर मिलने जाएँ
और वह दरवाज़ा खोलने में देरी करे
तो थोड़ा वक़्त दें उसे…
बहुत संभव है कि वह अपनी तमाम मायूसी पोंछ,
आपसे सिर्फ़ मुस्कुराकर मिलना चाहता हो।
घर से दूर जाकर किसी मज़दूर का बच्चा
अपने सपनों का इतना सटीक हिसाब रखता है न
कि संसद के सर्वोत्तम बनिये तक शर्मिंदा हो सकते हैं।
ये बात मात्र तीस या तीन सौ रुपयों की नहीं है
ये बात उन चालीस पैसों की भी है
जिसे बचाने वह डेढ़ किलोमीटर दूर वाले
ज़ेरॉक्स सेंटर तक पैदल जाता है।
आपकी बेहूदा संपन्नता
दाल का पतलापन और रूखी रोटियाँ
देख सकती है, खा नहीं सकती
और समझ तो हरगिज़ नहीं सकती।
ये बच्चे जब सिर्फ़ अपने मजबूर बाप के लिए रोते हैं,
तो भी उस मराठी किसान के लिए रोना नहीं भूलते,
जो इस साल भी अपने घर को दीवाली नहीं दे सका।
अपने कमरे के सीलिंग फ़ैन से लटक जाने वाले छात्र,
और अपने ही हाथों लगाए नीम के पेड़ पर झूल जाने वाले किसान,
हुक्मरानों के एक दस्तख़त से बचाए जा सकते थे,
बचाए नहीं गए।
ढिबरियों की रौशनी में देखे जाने वाले ख़्वाब
जब तक पूरे नहीं किए जाते,
आँखों में केरोसिन की तरह जलते रहते हैं…
और उनके साथ जलता है लखनराम का पसीना-ख़ून,
कि जिसका बड़ा लड़का जे.एन.यू. में पढ़ता है।
आपसे अपील है और विनम्र, करबद्ध अपील
कि आप कम से कम एक दफ़ा
अपना ख़ून पसीना जलाकर ज़रूर देखें
और तब भी अगर आप ज़िंदा बचे, तो मेरी ये बात याद कर लें
कि छात्र, किसान और विश्वविद्यालय
मर जाने से डरते नहीं हैं
इसलिए और सिर्फ़ इसलिए इन्हें ज़िंदा रखना
हमारी-आपकी साझी ज़िम्मेदारी है, महोदय!
तीन
ताज़ा दुपहरों में
तपते हुए सिर, घूँघट की ओट में
सूर्य देवता को अर्घ्य देते हैं
जिन्हें देखकर ख़ुश होते, तमाम लोग
जलते हुए तलवों से धरती नापती पत्नियाँ
जिनके पतियों की लंबी उम्र होनी है
नहीं देख पातीं अपने सिर की सफ़ेदी।
पत्नियाँ, जो कभी किसी की प्रेमिकाएँ रहीं
प्रेमिकाएँ, जिन्होंने कभी कहीं लगाया था
अपना पूरा मन।
अब वही खोया हुआ सुकून ढूँढ़ती हैं
अपने पति की बढ़ी हुई तोंद में।
दाल में ग़लती से नमक ज़्यादा होता,
तब पति मुस्कुराकर पानी से रोटियाँ निगल लेते
और याद कर लेते हैं अपनी पूर्व-प्रेमिकाओं को।
सात चक्करों में मन्नत का धागा गूँथती पत्नियों ने
जब सातवाँ चक्कर अपने सासरे के नाम से नहीं लिया,
बिलकुल तभी लड़कों ने चोरी से देख ली
अपनी विस्मृत क्लासमेट की तस्वीर।
ये दुनिया सत्ता से नहीं,
मुहब्बत से चलती है…
और पूर्व-प्रेम के अनुभव से
चलती रहती है एक स्वस्थ गृहस्थी।
चार
मुझे पूरी तरह समझने से पहले
तुम्हें किताबों की एक लंबी फ़ेहरिस्त से गुज़रना चाहिए।
तुम्हें पढ़नी चाहिए सबीर हका की दस कविताएँ,
ताकि तुम्हें इल्म हो
कि मुहब्बत में मज़दूर होना भी उतना ही ज़रूरी है,
जितना ज़रूरी है कवि होना।
तुम्हें मिलना चाहिए सादिया हसन और उसकी दुनिया से…
क्योंकि दंगों की आग में झोंक दिए गए प्रेमपत्र,
सदियों बाद भी पूरी तरह जल नहीं पाते।
तुम्हें अदीब की अदालत में भी जाना चाहिए
तब तुम महसूस कर पाओगे कि
दुनिया में चीख़ते-चिल्लाते मुर्दों के बीच,
हर घड़ी जन्मते न जाने कितने पकिस्तानों के बीच,
किसी सलमा की मख़मली आवाज़ के मायने क्या हैं?
और ‘गुनाहों के देवता’ को पढ़ते तुम्हें सोचना चाहिए
कि चंदर ने बेरहमी से सुधा की क़िस्मत क्यों लिखी ?
जबकि वह लिख सकता था उसके लिए एक प्यारी नज़्म,
और बचा सकता था अपनी पूरी दुनिया।
अगर तुम नहीं जानते
कि आधी रात को हथेली पर प्रेम लिखना
हृदय पर प्रेम लिखने जितना ज़रूरी है
कि मन्नू भंडारी का सच,
दुनिया के तमाम लोगों का सच है।
अगर तुम ये सब नहीं जानते,
तब फिर तुम मुझे नहीं समझ सकते
और हम ज़िंदगी में बहुत दूर तक साथ नहीं चल सकते
तब फिर मुझे तुमसे पाश की तरह विदा लेनी होगी दोस्त…
और क्योंकि जाना हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है…
मैं जाते वक़्त तुम्हें दूँगी कुछ किताबें, दो ख़त
और जौन एलिया का एक शे’र।
तुम किताबें पढ़ना, ख़त जला देना मगर याद रखना
कि आख़िरी मुलाक़ात के ठीक पहले इश्क़ जावेदाँ होता है
इश्क़ को ज़िंदा रखने के सिलसिले में
बहुत बार आशिक़ों को मर जाना होता है।
पाँच
जा रहे हो? जाओ
पर मैं तुम्हें हिंदी में विदा नहीं करूँगी
नहीं करूँगी
मुझे मेरे शहर को जवाब देना है
उसी भाषा में,
जिसमें मुझे तुम पर ज़रा-ज़रा यक़ीन होता रहा।
क़ि जिस भाषा में आज तलक
कभी कोई झूठ नहीं बोला जा सका।
मेरे शहर की सड़कें सिर्फ़
वही लिपियाँ पढ़ सकीं
जिनमें कभी कोई ख़्वाब तोड़ा नहीं गया,
कोई लकीर खींची नहीं गई,
जो आदमी को आदमी से बाँटती हो।
थकता हुआ शहर और ऊबे हुए लोग
एक-से मनहूस दिखते हैं।
आवारा हवाओं से दिल बहलाता प्रेमी
जिसकी महबूबा पूरब में उसका इंतज़ार करती हो,
मुझे ग़ैरज़रूरी इक अहद से ज़ियादा कुछ नहीं लगा।
और इन तमामों बातों को सोचते
मैं उस पुल पर पहुँच जाती हूँ
जहाँ से सबसे ख़ूबसूरत दिखता है मेरा शहर।
तुम्हारे जाने का ख़ौफ़ मुझे बिल्कुल नहीं है
तुम्हारे तआक़ुब में वो ताब नहीं
क़ि मुझे ख़ुद से ही कहीं दूर ले जाए
न तुम वो सुकून हो कि… ख़ैर
जा रहे हो? जाओ…
ज्योति यादव आई.आई.टी, कानपुर से पी.एच-डी. कर रही हैं। उनकी कविताएँ प्रमुखता से कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे jyotiyadav403@gmail.com पर बात की जा सकती है।
बहुत खूब