कविताएं ::
नेहा नरूका
आखिरी रोटी
सुनती आ रही हूं :
उसकी और मेरी मांएं एक ही कुएं में डूब के मरी हैं
कटोरे भर चाय और बासी रोटी का नाश्ता मैंने भी किया था
इसकी वजह अभाव नहीं, लोभ था
स्टील के टिफिन में होती थीं कई नरम रोटियां
पर उसकी आखिरी रोटी जो भाप से तर हो जाती,
मेरी ही थाली में सबसे नीचे रखी जाती
चाहे मैं सबसे पहले खाऊं
मैं हमेशा तीन रोटी खाती थी
चौथी रोटी कब मांगी याद नहीं
ऐसा नहीं कि मिल नहीं सकती थी
घर की हवाओं में क्या मिला था
कुछ कहा नहीं जा सकता
पर हकीकत यही थी कि मैं तीन रोटी खाती थी
मेरा घर रईसों और इज्जतदारों में गिना जाता था
मेरे लिए रईस और इज्जतदार दूल्हा ढूंढ़ा जाता था
और मैं थी कि रहती—
स्वादिष्ट सब्जी और घी चुपड़ी रोटी के जुगाड़ में
उसकी कहानी मुझसे अलग थी
उसके पास रोटी के नाम पर कुछ जूठे टुकड़े होते
जो मेरे जैसे घरों से बासी होने पर हर शाम उसे मिलते
उसके पास भूख का तांडव था
उसके घर में तीनों समय अकाल पड़ता था
भुखमरी की घटनाएं होती थीं
मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं थे
उसके पास कपड़े ही नहीं थे
कपड़ों के नाम पर थी कुछ उतरन
जो मेरे जैसे घरों से हर त्यौहार की सुबह उसे मिलती
मैं अपने दांत सफेद मंजन से मांजती,
मेरे पास ब्रश और पेस्ट नहीं था
वह अपने दांत कोयले या राख से मांजती
उसके पास मंजन ही नहीं था
उसके दांत पीले थे और हल्के भी
इसलिए शायद मेरा मांस सफेद था और उसका काला
वह जाती जंगल, खेत, सड़क…
रोटी के जुगाड़ में
मुझे बाहर जाने की अनुमति नहीं थी
मेरे पुरखों को डर था
कि कहीं बाहर जाते ही मेरे सफेद मांस पर दाग न पड़ जाए
मेरे पुरखों का मानना था कि सफेद चीजें जल्दी गंदी होती हैं
इसलिए मैं भीतर ही रखी जाती
जल्द ही मेरा सफेद मांस पीला पड़ गया
मेरे पीलेपन को मेरा गोरापन कहा जाता
मेरी गिनती सुंदर लड़कियों में की जाती
और उसकी बदसूरत लड़कियों में
मेरे घर के नैतिक पुरुष जंगल, खेत, सड़क… पर जाकर उसका बलात्कार करते
और रसोई, स्नानघर, छत… पर मेरा
उसका घर हर साल बाढ़ में बह जाता
और मेरा घर उसी जगह पर पहाड़ की तरह डटा रहता
मेरे घर के किवाड़ भारी थे, लोहा मिला था उनमें
और उसके घर के हल्के, इतने हल्के कि हवा से ही टूट जाते
न मैं उसके घर जा सकती थी, न वह मेरे घर आ सकती थी
वह सोचती थी मैं खुश हूं
और मैं सोचती थी कि वह तो मुझसे भी ज्यादा दुखी है
बस एक ही समानता थी
कि हम अपने-अपने घरों की आखिरी रोटी खाते थे
अगर हमारी मांएं जीवित होतीं तो ये आखिरी रोटियां वे खा रही होतीं
सफेद रंग की प्रेमिका
वह काला था
क्योंकि उसकी मां ने खाया था काला लोहा
मुझे पसंद था काजल
उससे मिलने के बाद मैंने पहली दफा जाना
काले रंग की खूबसूरती, आकर्षण और ताकत को
उसकी सोहबत में मेरी बटन आंखें
बैलगाड़ी का पहिया हो गईं
मैंने उनसे देखा
नग्न भारत माता
धरती पर दहाड़ मारकर रो रही हैं
उनके लंबे घने काले बाल जमीन पर जंगल बने थे
जंगल के बीच-बीच में गड्ढे थे जिनमें रक्त भरा था
मैंने आंखें बंद कर लीं
क्योंकि वे अक्सर ऐसी तस्वीरें देख लेती थीं
जिन्हें देखने के बाद जिंदगी के फलसफे बदल जाते हैं
मुझे वे सारे रंग याद हैं
जिन्हें पहनकर मैं उससे मिलने जाती थी
उस रात भी मैंने काला रंग पहना था
वह रात भी काली थी
और काली थी वह देह भी
हम थे अदृश्य और मौन
हम दो ही थे उस दिन इस पृथ्वी पर
तीसरा कोई नहीं था
ईश्वर भी नहीं
उस रात के बाद सफेद सुबह हुई
मैं उससे बिछड़ गई
और वह मुझसे
मुझे फिर धीरे-धीरे काले रंग के सपने भी आने बंद हो गए
मुझे काला रंग उतना पसंद भी नहीं रहा
पसंद तो मुझे सफेद रंग भी नहीं था
पर यह बात मैंने सबसे छिपाकर रखी
जो रंग चढाओ
वही चढ़ जाता है इसके ऊपर
कोई ‘नहीं’ नहीं दिखता
‘हां हां’ दिखती है बस
यही बात परेशान कर जाती है इस रंग की मुझे
हां! इसे मिट्टी का सबक सिखाया जाए
कीचड़ में घुसाया जाए
रोटी-सा तपाया जाए
तब कुछ खासियत बनती है
मेरा रंग भी सफेद है—
फक् सफेद
पिछले दिनों वह मुझे फिर मिला
जैसे वैज्ञानिक को मिल गया हो वह सूत्र
जो दिमाग की नसों में कहीं खोया था सालों से
उसे केसरिया रंग पसंद है
मुझे भी पसंद है यह रंग लेकिन रंग की तरह ही
मेरे नए जूते इसी रंग के हैं
जिन्हें मैंने अपने हाथों से बनाया है
मेरे पास कुछ मांस था
मैं उससे बना सकती थी कुछ और भी
पर मैंने जूते बनाए
उनके चंगुल से आजाद करके लाऊंगा इस रंग को
जिन्होंने इसे कत्लगाह में तब्दील कर दिया
एक दिन इसी रंग को अपने शरीर पर घिस-घिसकर बनाऊंगा आग
और जलाऊंगा उन्हें
जिन्होंने इसका इस्तेमाल लाश बोने में किया
सिंहासन उगाने में किया
इन्हीं सफेद हाथों से मैंने उसे टोका :
सिर्फ उन्हीं को जलाना जो सूखे हैं और सड़ चुके हैं
जिनसे कोई कोंपल फूट नहीं सकती
चाहे कितना भी सूरज डालो
चाहे कितना भी दो पानी
जिनमें बाकी हो हरापन उन्हें मत जलाना
क्योंकि हरा रंग जलता है तो धुआं भर जाता है चारों तरफ
जलाने वाले का दम भी घुटने लगता है
और कभी-कभी तो आग ही बुझ जाती है
इस तरह सूखे भी बच जाते हैं साबुत
मैंने हरा रंग भर लिया है अपने भीतर
मेरे पैरों में हैं केसरिया जूते
मैंने पहन लिया है काला लोहा
मेरी मां ने गर्भावस्था के दौरान पीया था जिस ‘गाय का दूध’ उसकी मौत के बाद एक शहर ही दफन हो गया उसके शव के नीचे
उस शहर के प्रेत ने मुझे अभिशाप दिया था
सफेद रंग की प्रेमिका होने का
ये काले केसरिया हरे गंदले रंग
मुक्ति के मंत्र हैं
ये मंत्र मैंने उस औरत से लिखवाए हैं
जो सचमुच का काला लोहा खाती है
जिसका शरीर रोटी का तवा है
पिशाच
एक
वह हमेशा बोलता ‘मैं इंसान नहीं पिशाच हूं’
और मैं इसे मानती किसी इंसान की ईमानदार अभिव्यक्ति खुद के बारे में
मैं इसे मानती किसी नंगे शासक को नंगा कहने का साहस
मैं मानती हर व्यक्ति अंदर से पिशाच है
मैं मानती नर पिशाच है और कुछ मामलों में मादा से बड़ा पिशाच भी
पिशाच के बारे में कई कथाएं सुन रखी थीं मैंने
पर उन कथाओं पर कभी यकीन नहीं हुआ उस तरह
जिस तरह उनमें वर्णन होता था पिशाच का
मसलन पिशाच सिर्फ रात में आता है, खून पीता है और सुबह होते ही गायब!
मैंने उसे खून पीते हुए तो नहीं, हां गोश्त खाते हुए जरूर देखा
वह गोश्त खाता और मैं इसे मानती पेट की जरूरत
मैं फिर वकालत करती कि गोश्त जरूरी है इंसान के विकास के लिए
पर यह गोश्त किसका हो मुर्गे का, बकरे का या इंसान का
यह सवाल अक्सर बंदूक की तरह दनदनाता मेरे दिमाग में
दो
एक दिन सुबह होते ही वह गायब हो गया
मैंने इसे माना किसी चिंतक का एकाएक मौन हो जाना
गोया यह भी एक जरूरी परिघटना हो सभ्यता के इतिहास की तरह
तीन
वह पिशाच ही था इंसान के भेष में
और जिस सच की वह बात करता था
वह इंसान की नहीं, पिशाच की ईमानदार अभिव्यक्ति थी
इसका सीधा-सा अर्थ था पिशाच ज्यादा ईमानदार है इंसान के बनिस्बत
दरअसल, इंसान का जो दिमाग है वह एक लबादा है
इस लबादे के भीतर है चालाकी
यही चालाकी उसे सिखाती है सत्ता का प्रपंच
इसके प्रयोग से ही वह गढ़ता है गुलाम
आदम के इस गुलाम और पिशाच के उस गोश्त में मुझे कुछ समानताएं दिखीं
जैसे दोनों खुराक हैं, शासक और पिशाच की
पर तब तक ही जब तक गुलाम और गोश्त दोनों का रंग सफेद है
***
नेहा नरूका (जिनकी अब तक प्रकाशित कविताओं के साथ उनका नाम नेहा नरुका देखने में आता है) अपनी ‘पार्वती योनि’ शीर्षक कविता से करीब पांच बरस पहले चर्चा के केंद्र में आई थीं. बाद में उनकी कविताएं कुछेक वेब और प्रिंट पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं और इनमें एक खास किस्म के विद्रोह और स्थानीयता की आवाजें लक्षित की गईं. हिंदी में इन दिनों जो दृश्य है, उसमें इस स्वीकार्यता से काफी कुछ पाया जा सकता था— कविता और विद्रोह को छोड़कर. लेकिन नेहा में मौजूद कविपन और उनकी कविताएं इस बात का प्रमाण हैं कि उन्होंने खुद को हिंदी के उस समकालीन कविता-संसार से जिसमें आधी कौड़ी की रचनाएं भी रचनाकार की मार्केटिंग का हिस्सा हो गई हैं, भरसक बचाए रखा है. यहां प्रस्तुत नेहा की ये नई कविताएं बहुत आग्रह के बाद ‘सदानीरा’ को प्राप्त हुई हैं. उनसे nehadora72@gmail.com पर बात की जा सकती है.
नेहा नरूला की यह कवितांए , बेचैन करती कविताएँ हैं । पुरूष वर्चस्व के प्रति तीव्र विद्रोह , स्थापित मान्यताओं के विरूद्ध नकार और असमानता के विरूद्ध प्रश्नचिन्ह , इन कविताओं को धार देता है । आप कहीं भी उस पैनी धार से असहमत हो ही नहीं सकते बल्कि सवालों को सटीक शब्दों की गहराई से भीतर महसूस करते हैं ।
आदर्श
आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार. कवयित्री का नाम नेहा नरूका है.
नेहा नरूका की ये कविताएँ समय पर छा आए धुएँ को छाँटती हुईं अपनी तरह का प्रतिकार दर्ज करती हैं।इन्हें पढ़कर वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक भयावह समय से लड़ने की शक्ति मिलती है।
-सोहन लाल
नेहा जी की प्रकाशित हुई किताबों की जानकारी दे…ताकि और पढ़ा जा सके….