कविताएँ ::
प्रदीप्त प्रीत
दीवार
एक
अक्टूबर के दिनों में
अनिश्चित काल की विदाई लिए
बारिश चली गई है मायके
रात और हरसिंगार अभी भी
डूबे हुए हैं नवरात्रि के जलसों में
मानता हूँ
लुभावना रहा है इंतज़ार हमेशा से ही
लेकिन कब तक!
इस निपट अकेलेपन में
शीतल
स्निग्ध
सोन्हाती हुई दीवार
सहवास का सुख दे रही है।
दो
बिन प्रेम किसी से
लिपट जाने की सज़ा क्या हो सकती है?
गँवानी पड़ सकती है
नागरिकता
मनुष्यता
सालों से कमाई गई सामाजिकता
दीवार से बोलना
दीवार को देखना
दीवार मिलती है सिर्फ़ और सिर्फ़
वहाँ से जहाँ आज़ादी के गीत गाए जाते हैं
एक दिन में अड़तालीस घंटे
दीवार ताकने की सज़ा ने
आने वाले दिनों का
क़र्ज़दार बना दिया
मैं दीवार देखता रहा
बस देखते रहने से ही वहाँ
चित्र उभरते रहे
फूल खिलते रहे
भँवरों की तरह गीत गाए दीवारों ने
ख़ून के आँसुओं के दाग़
उन्हीं दीवारों पर लगते रहे
वहीं दरारों में चीटियाँ डोल रही हैं
मकड़ियाँ लिपटी हुई हैं वहीं पास
वहीं नन्हा बरगद का एक पौधा
बढ़ रहा है धीरे-धीरे।
तीन
पसीने से लथपथ
कमर के निचले हिस्से का दर्द
अधकपारी का तांडव
आँख का धुंधलापन भी तो
बढ़ता ही जा रहा है
मैली-काली गर्दन—
न जाने किस बात की अकड़ है!
तुम पूछती हो :
दवा ली?
चेकअप कराया?
और हाँ
तुम्हारे अनजाने बुख़ार का पारा क्या है?
दूर से महसूस होता अपनापन
कानों में आती तुम्हारी
चिंतित आवाज़
चले आने की हिम्मत पर सवार है
मत आओ!
दीवारें तो हैं साथ
अकेला भी नहीं हूँ अभी।
प्रदीप्त प्रीत हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : कितनी सारी दुनियाएँ हैं इस दुनिया में