कविताएँ ::
रचित

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मेरा दौर

मैं ऐसे दौर में पैदा हुआ
जब करने को कुछ नहीं
या कुछ करने का कोई फ़ायदा नहीं।

इसलिए मैं सिर्फ़ फ़ेसबुक पर लिखता हूँ।

मेरे हिस्से का विरोध कर गए भगत सिंह
प्रेम कर गया मजनू
मेरे हिस्से की गोली चला गए चे ग्वेरा,
खा गए गांधी
मेरे हिस्से की शहादत को हो चुके
एक सौ एक साल जलियाँवाला बाग़ में।

मेरे हिस्से की क्रांति कर गए महात्मा बुद्ध,
त्याग श्रीराम।

मेरे हिस्से की सज़ा दे दी गई दो हज़ार साल पहले।

अब किसी से बिछड़ना बुरा नहीं लगता
कि मेरे हिस्से की हिजरत हुए हो गए चौदह सौ साल।

और मैं हूँ कि कुछ नहीं कर पाता इन लोगों से—
ईर्ष्या के सिवाय
जिनके पास कितना कुछ नया था करने के लिए।

मैं सिर्फ़ फ़ेसबुक पर लिखता हूँ।

रास्ता

रास्ता कोई मज़दूर नहीं बनाता
कोई लक्ष्य भी ऐसा नहीं जो आप बनाए रास्ता।

इसे बनाते हैं मनुष्य
लाखों-करोड़ों मनुष्य
एक ही लीक पर चलते हुए सालों-साल,
पार करते हुए कई सदियाँ
बिना पूछे एक दूसरे का नाम
अपने हर गिरते क़दम के साथ
धरती को समतल करते हुए
चलने के और अनुकूल बनाते हुए।

मुझे लगता है
देश भी ऐसे ही बनता है!

प्रार्थना

ईश्वर,
ध्यान देना…
जब खड़ा होना पड़े मुझे
तो अपने अस्तित्व से ज़्यादा जगह न घेरूँ।

मैं ऋग्वेद के चरवाहों कि करुणा के साथ कहता हूँ—
मुझे इस अनंत ब्रह्मांड में
मेरे पेट से बड़ा खेत मत देना,
हल के भार से अधिक शक्ति,
बैल के आनंद से अधिक श्रम मत देना।

मैं तोलस्तोय के किसान से सीख लेकर कहता हूँ :
मुझे मत देना उतनी ज़मीन
जो मेरे रोज़ाना के इस्तेमाल से ज़्यादा हो,
हद से हद एक चारपाई जितनी जगह
जिसके पास में एक मेज़-कुर्सी आ जाए।

मुझे मेरे ज्ञान से ज़्यादा शब्द,
सत्य से ज़्यादा तर्क मत देना।

सबसे बड़ी बात
मुझे सत्य के सत्य से भी अवगत करवाना।

मुझे मत देना वह
जिसके लिए कोई और कर रहा हो प्रार्थना।

संभावना

जब वे ग़ुस्सा करें
तब आप यह सोचकर ख़ुश होइए
कि वे गालियाँ नहीं दे रहे।

जब वे गालियाँ दें
तब ख़ुश होइए
कि वे हाथापाई नहीं कर रहे।

और अगर हाथापाई करें
तब भी ख़ुश हुआ ही जा सकता है
कि वे हत्या नहीं कर रहे।

और जब वे हत्या करें
तब ख़ुश होकर मरिए
कि पुनर्जन्म होता है।

आत्मनिर्भरता

रोता हुआ नागरिक कैमरा देखकर चुप हो जाता है
और बताता है कि वह राशन की कमी से परेशान नहीं है
बल्कि नेहरू की मृत्यु का शोक मना रहा है अब तक।

वह ख़ाली गैस सिलेंडर नहीं
बल्कि महमूद ग़ज़नवी द्वारा ढहाए गए
सोमनाथ-मंदिर के दुख से दुखी है अब तक।

उसे नौकरी चले जाने से ज़्यादा ख़ुशी
इस बात की है
कि वह अपने पैरों पर चलकर घर आया है।

उसे किसी ने बताया
कि इसमें है पुण्य
कई सौ तीर्थ यात्राओं का।

अब कम से कम उसकी लाश की
दुर्गति तो नहीं होगी
मुंबई के फ़ुटपाथ पर।

अब वह बेरोज़गार
भले ही मर जाए
लेकिन बेकफ़न नहीं मरेगा।

उसकी अर्थी अब उसी पुश्तैनी मरघट पर
जलेगी शान से धू-धू कर—
पूरे आसमान को काले धुएँ से भरती हुई—
जहाँ उसके बाबा की लाश जली थी…
हालाँकि बाबा की मृत्यु का कारण अब तक अज्ञात है।

नौकरी जाने से वह ख़ुश है
कि अब फ़ालतू ख़र्चे बंद हो गए हैं।

वह ख़ुश है कि अब पहले से कम बीड़ी
और पहले से ज़्यादा पानी पीता है।

यह कविता प्रिय कवि देवी प्रसाद मिश्र की एक कविता-पंक्ति से प्रेरित है।

नया कलेवर

जीवन के सादे काग़ज़ पर
कितने रंग पड़े दिखते हैं
सोच रहा हूँ इस फागुन में
सबको नया कलेवर दे दूँ।

पानी वाले रंग से गढ़कर
नाव के चेहरे जैसा सपना,
गंगा पार तरसते दुबले
नाविक की आँखों में रख दूँ।

स्याह रंग से घोलूँ स्याही
लिखकर क, ख जैसा कुछ भी
पीछे वाली बेंच पे बैठे
छुटकू के पोरों में रख दूँ।

और ओज़ोन से परत से लेकर
साँसों के रंग की ऑक्सीजन
किसी पुराने अस्पताल के
आई.सी.यू. में रखवा दूँ।

हब्बल टेलिस्कोप से ढूँढ़ूँ
अगर कहीं पानी मिल पाए
राजस्थान के इक क़स्बे में
सुबह-सुबह बारिश करवा दूँ।

सबने फूलों के आभूषण
पहनाए कविता-देवी को,
सोच रहा हूँ मैं अब इनको
कुछ मिट्टी के ज़ेवर दे दूँ।

सोच रहा हूँ इस फागुन में
सबको नया कलेवर दे दूँ।

किसी रंग से सस्ता खाना,
तीन रुपए की चाय बनाकर,
सबसे बड़े चाय वाले के
चश्मे पर चिपका दूँ जाकर।

दुनिया भर की सब फ़ौजों को
गेंदे की माला दे बोलूँ—
सरहद पार के अपने
जानी दुश्मन को आएँ पहनाकर।

लहराकर मज़दूर का गमछा,
राष्ट्रसंघ के कार्यालय से
करूँ घोषणा—‘‘झंडा होगा
आज से यह सारी धरती का!’’

मंगल पर बसने से पहले,
यह भी निश्चित करता जाऊँ
चेहरा ज़्यादा बदसूरत
न हो जाए बूढ़ी धरती का।

इधर-उधर की बातें मैंने
गीतों में कितनी कर डालीं
सोच रहा हूँ अब गीतों को
सच्चाई का तेवर दे दूँ।

सोच रहा हूँ इस फागुन में
सबको नया कलेवर दे दूँ।

रचित की कविताएँ विधिवत् किसी प्रतिष्ठित प्रकाशन स्थल पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह कई अखिल भारतीय काव्य-मंचों पर अपनी रचनाएँ सुना चुके हैं। उनसे rachitdixit2020@gmail.com पर बात की जा सकती है।

3 Comments

  1. सिमन्तिनी रमेश वेलुस्कर अप्रैल 9, 2021 at 2:44 अपराह्न

    रचित भैया हमेशा मेरे फेवरेट रहे हैं जब से उनको पढ़ना शुरू किया है. उनकी कविताएं जीवन के सच से लबरेज़ किसी भी आडम्बर से रहित मन को सहज ही छू लेने वाली होती हैं. वे शानदार कहन के मालिक़ हैं. मेरा ख़ूब प्यार और ढेर शुभकामनाएं कि आपकी कविताएं हर जगह पंहुचें और अपना असर दिखाएं.💐💐💐

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  2. निर्मल अप्रैल 10, 2021 at 7:57 पूर्वाह्न

    कुछ कवितायें पहले facebook पर भी पढ़ चुका हूँ । कुछ पंक्तिया पढ़ते पढ़ते रुक कर उनके सजीव दृश्य देखने लगता हूँ ।

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  3. Sifar अप्रैल 11, 2021 at 9:30 पूर्वाह्न

    Kamaal hai bhyi ❤️

    Reply

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