कविताएँ ::
रवि भूषण पाठक

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रवि भूषण पाठक

आज और आज से पहले के कवि

पहले के कवि मृत्यु और जीवन बाँटते थे—
प्रजा को, राजा को, देवता को
मृत्यु के बाद भी स्वर्ग और नर्क के प्रकार
स्वर्ग के बाद : नई योनि, जाति और प्रारब्ध

आज का कवि बस मृत्यु बाँटता है
वह भी केवल कवियों को
जीवन है ही नहीं उसके पास
उसकी साँसें टकराती नहीं किसी की साँसों से
पास कोई हो तब न आए उसके पसीने से उबकाई
ख़ून उसका मरता है अपनी ही मौत
भरे शुक्राशयों के लिए नहीं ख़ाली
दुनिया की बंजर से भी बंजर ज़मीन।

दिनचर्या

शाम को तीन बार धरती को पैदा किया
छह बार उल्टा-पुल्टा कर देखा
चौथी बार फिर से प्रसव-पीड़ा हुई
कि पत्नी ने सब्ज़ी लाने वाला झोला रख दिया सामने
सब्ज़ी ख़रीदते हुए रहा पूरा दुनियावी
यद्यपि पत्नी को शक नहीं विश्वास था
कि सबसे घटिया और महँगी सब्ज़ी उसका ही पति ख़रीद सकता है
घर लौटते ही
विचारों को तकिये की तरह मोड़कर रखा सिर के नीचे
फिर फैलकर दरी की तरह लेट गया
इससे पहले कि फिर से बिग-बैंग हो
पत्नी लहसुन दे गई छीलने के लिए।

कैसे

किसान को पता है,
धरती को पता है
बस बीज को पता नहीं है कि वह बीज है
चिड़ै-चुनमुन्नी को पता नहीं
वनमूस-गिलहरी को भी पता नहीं
यदि पता भी हो तो अपना धर्म वह जाने!

इसलिए अनजाने में ही यह चमत्कार हो गया
कि एक छोटे से बीज में उगा पौधा
धरती का सहारा छोड़ विपरीत दिशा में जाने लगा
कैसे हुआ अचंभा?
कि जो एक छोटा-सा बीज था
उससे लगे पेड़ में अब सैकड़ों फल, हज़ारों बीज हैं
तो इस जीवमंडल को आप सलाम नहीं करेंगे
पर हुआ कैसे?
कैसे बीज ने अपना संकोच-खोल गलाने को सोचा?
कैसे ख़ुद को छोड़ दिया दोमट की नमकीन नमी में?
अरे साहब आकार मत गुणिए
बहुज्ञों ने धरती के तीन-चौथाई गुलाब-वन में आग लगा दी है
यदि आप शुद्ध मन से जाएँगे
तो तने भी बीज बन जाएँगे
मेरी मत मानिए किसी नींबूखेत के बूढ़े किसान से पूछ लीजिए।

उनकी कृपाएँ

वे चाहते हैं कि वे जितना समझाना चाहें मैं उतना ही समझूँ
वे चाहते हैं कि मैं बंद कर लूँ आँख,
मैं उतना ही देखूँ जितना वे चाहें
वे चाहते हैं कि गर दिख भी जाए उनका कोई गंदा कोना,
मैं चुप रहूँ
वे चाहते हैं कि मैं भूल जाऊँ अभिधेतर धर्म
यह भी भूल जाऊँ कि मैं भी ब्रह्मा था ऐसे-ऐसे यज्ञों का
मेरे संकेतों पर ही देवगणों को गंध-पुष्प प्राप्त होता था
मैं भी डराता था अशुद्ध मंत्रों के काल-कोप से
उनका पूरा बल है स्मृतिलोप पर
सारे चित्रों के नष्ट होने पर ही
उनकी कृपाओं का नल खुलेगा।

तू

रेल जैसे मर्दाने विभाग में
कैसे काम करती है तू
कैसे सहती इतना लोहा,
इतना कबाड़
इतने लोग,
इतनी उठी उँगलियाँ
ख़बरदार
कैसे याद रखती काग़ज़ और फ़ाइलें असरदार
कितना शर्म करते बेटिकट लंबरदार
कितनों को यूँ छोड़ती
बस चेता के!
अगली बार…

दुष्टमित्र

प्लास्टिक की तरह होते हैं दुष्टमित्र
इतने सजीले, रंगीले, इतने नरम-मुलायम
इतने रूपाकार, इतना आयतन
कि आप सारे विकल्प खो देते हैं

दुष्टमित्र तीन हज़ार साल जीते हैं
हज़ार साल लगकर सोखते हैं आपकी हरीतिमा
आपकी हवा और धूप रोक कर
ज़मीन और नमी छीन कर
सभ्यता के दस परत नीचे
आपका किया जाता है संरक्षण
फिर वे समुद्रों में लभरकर चिपक जाते हैं आपसे
ज़मीन में मिलकर आपसे रोक देते हैं
आपको मिट्टी बनने से
स्वर्ग के रास्ते में आपके पैरों में फँस जाते हैं
नर्क का सारा सौंदर्य, सारा शिल्प तो उनका है ही
आगे के हज़ार साल आपकी आत्मा‍ उनकी खोल में बंद रहती है
उन्हीं के गाँठकौशल में क़ैद—
यश के लिए छटपटाती, भीख माँगती।

कविता का विषय

डॉक्टर जानता था कि राजा, मंत्री और कुत्ते कैसे पेट में आते हैं
डॉक्टर यह भी जानता था कि ये सारे पेट से कैसे बाहर आते हैं
(शायद आचार्य भी जानते थे, पर यह कविता का विषय नहीं रहा)
लपलपाना और मचलना नामक क्रिया से भी दोनों परिचित थे
ये भी जानते थे कि कुत्ते के पास नहीं था लाल लंगोट और सुथरी भाषा
पर दोनों ने नहीं सोचा कि आदमी के पास भी तो नहीं है पूँछ
पर कोई कसर भी तो नहीं छोड़ता
देह के लचीले व्याकरण एवं सभ्यता की सारी सीढ़ियों के साथ
डॉक्टर को पता है आदमी की मांसपेशियों का लचीलापन
(आचार्य को पता नहीं होने के कारण कविता का विषय नहीं था)
नागरिकशास्त्र में कहीं नहीं लिखा कि कुत्तों का कोई देश नहीं
न ही ब्रह्म-ऋषियों ने कुत्ते में ब्रह्म नहीं माना
रीतिकारों ने सफ़ेद, काले, चितकबरे की जाति निर्धारित कर
बना दिया था अपने ज्ञान का मक़बरा
यूरोप बेच रहा अद्भुत से भी अद्भुत नस्ल का कुत्ता
जिसकी क़ीमत नोबेल पुरस्कार से भी ज़्यादा
आचार्य की शब्द-शक्ति के समक्ष हैं लाखों झाड़-झंखाड़
केवल कुत्ते का ही नहीं गिद्ध और गिरगिट का भी रंग चूक रहा था
शब्द-शक्तियों की मौत ही कविता का विषय था शायद।

***

रवि भूषण पाठक इतिहास पढ़ते हुए साहित्य की ओर आकर्षित हुए। पहली कविता ‘वसुधा’ में और इसके बाद पत्रिकाओं से एक सम्मानजनक दूरी। मैथिली में एक नाटक ‘रिहर्सल’ शीर्षक से प्रकाशित। हिंदी में एक उपन्यास में प्रकाशनाधीन। इन दिनों उत्तर प्रदेश के बदायूँ में रह रहे हैं। उनसे rabib2010@gmail.com बात की जा सकती है।

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