कविताएँ और तस्वीरें ::
सोमेश शुक्ल
जीवन की शक्ल
एक
रात से मैं, रात में फँस गया हूँ
मेरा होना कुछ न कह पाने में गोल-गोल घूमता है
समय मुझमें अनिच्छा के प्रतीक के रूप में एक रेखा रोज़ खींचता है
मैं अँधेरे में देखता रहता हूँ अँधेरे को
जैसे कोई अपने शरीर को याद करता है
दूर जलते प्रकाश को खिड़की से देखते हुए
सफ़ेद रंग की हर गुंजाइश में होकर लौट आता हूँ
सबसे ज़्यादा थकना क्या होता है?
मैं अपने पैरों के भीतर ही भीतर चलता रहता हूँ
दो
जब मैं कोई इमारत देखता हूँ, देखने में देखते ही कूद जाता हूँ
वस्तुएँ आत्महत्या का औज़ार बन गई हैं
नोकों से कट जाओ
ऊँचाई से कूद जाओ
धरती में कहीं भी दफ़्न हो जाओ,
इस सोच में जी रहा हूँ
वह जो मेरी अनुपस्थिति देखकर मुझे पहचान लेते हैं
और कहते हैं कि अबे तू,
तू यहाँ क्या कर रहा है?
मैं उन्हें सुन पाऊँ इससे पहले वे अदृश्य हो जाते हैं
बहुत सारे लोग हैं जो अपना पीछा करते हुए,
पीछे की तरफ़ चले गए
मैं अपने साथ चल रहा हूँ,
इसलिए कभी कहीं नहीं गया
एक-एक होकर मेरी उपस्थिति हर जगह
मेरी प्रतीक्षा कर रही है
कहाँ जाऊँ, कहाँ नहीं जाऊँ में…
जीवन की शक्ल बहुत उदास हो चली है
तीन
सोचने में अधिक से अधिक दूर मैं एक स्वप्न तक पहुँच जाऊँगा
‘फिर क्या होगा?’
हमेशा की तरह बना रहेगा
मैं अघटित घटनाओं का टापू हूँ—
थोड़े समय से बच गए अनंत समय में
मैं एक रास्ते की थकान में उतरा हूँ
मेरा सोचना मुझसे अलग है
मैं उपलब्ध हूँ हर उस एक विचार के लिए
जो तुम्हें दूर से देखकर लौट आता है
दूर से देखना,
आँखों से देखने जैसा नहीं है
मेरे ख़ाली हाथ किसी प्रयोजन के लिए तय हैं
सोते समय ये मेरी छाती पर आ लगते हैं
क्या पता मुझे किस लिए और किस से रोक लेते हैं
चार
बाहर देखो : विश्व में कितना कुछ हो रहा है, लेकिन इसमें से कुछ ही कल के अख़बार में छप सकने में सफल होगा… बाद बाक़ी व्यर्थ हो जाएगा, जैसे मैं इस कमरे में व्यर्थ हो जाऊँगा। ये बर्तन, ये किताबें, ये सारी वस्तुएँ अपनी-अपनी आवाज़ों से भरी हैं। मैं किसी को नहीं छुऊँगा, इनकी आवाज़ें इन्हीं के भीतर भरती रहेंगी और मैं ऐसे ही चुपचाप इनके बाहर ख़र्च हो जाऊँगा, जैसे इस खिड़की में फँसा यह दृश्य, इसमें ही फँसा-फँसा ख़र्च हो जाएगा।
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सोमेश शुक्ल हिंदी के नए कवियों में से एक हैं, लेकिन उनके विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी कविताएँ हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशन माध्यमों पर देखी गई हैं, या उन्होंने अपनी कविताओं से ध्यान खींचा है या उनमें संभावना है या उनकी तैयारी आश्वस्त करती है… ये वाक्य अब तक सोमेश शुक्ल के परिचय में जुड़ नहीं पाए हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति और कविताओं में एक आध्यात्मिक और व्यग्र विवेक है। वह कुछ खींचने और मंच पर चढ़ने के लिए नहीं रच रहे हैं। इस स्थिति में वह हिंदी-कविता-संसार का ध्यान कब खींचेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह दिल्ली में या शायद दिल्ली के आस-पास रहते हैं। उनसे someshshukl@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति में प्रयुक्त तस्वीरें भी कवि की ही रचनाएँ हैं।