कविताएँ ::
सुजाता गुप्ता

सुजाता गुप्ता

अठारह से तीस

दूधिये रंग जैसा होता है
अठारह-बीस का प्यार
उन्माद की सुनामी जैसा
भाषा बनने की तैयारी जैसा
एक नगीना लगता है
प्रेम जो कंठस्थ किया जाता है
पृथ्वी पर आते ही केंचुआ बन जाता है
फड़फड़ाहट बेचैनी भय-सा
आगे जाकर सूख जाता है
आदर्शवाद की लता में लिपटा
नीचे धँस जाता है।

अट्ठाईस-तीस का प्यार
आकाश के रंग-सा होता है
परिकल्पन के समुद्र-सा
लिपि बन जाने जैसा
एक ख़ज़ाना लगता है
प्रेम जो होमोसेपियन्स के पार देखा जाता है
सभ्यता में आते ही कछुआ बन जाता है
गति अवसाद वितृष्णा-सा
नीचे जाकर फैल जाता है
यथार्थ के जंगल में भटकता
गोल घूम जाता है।

कई जगहें

उपस्थिति के बाद भी
ख़ाली रह जाती है कुर्सी के नीचे की जगह
गमले के नीचे के स्थान काला रह जाता है।

मुट्ठियों को कसने पर भी
छूट जाती है ऊपर की जगह
गिरे हुए पत्ते नहीं देख पाते अपना वसंत।

नहीं सुन पाती हँसी अपनी खिलखिलाहट को
तस्वीर का पिछला
बिस्तर का कोना
रह जाता है अछूता प्रेम-प्रसंगों से।

दीये का उजाला
नहीं जला पाता अपनी परछाई को
चेहरे के बीचों-बीच पहुँच नहीं पाता
होंठों का खुरदुरापन।

ऐसी कई जगहें जो अलगा दी जाती हैं
अपने अस्तित्व से
ऐसी जगहें मौन साध लेती हैं
पृथ्वी अभी मौन है।

फूल

नहीं खिला पाते लोग
गुलाब अड़हुल
गेंदा सूरजमुखी के फूल भी
अंतरात्मा पर अपनी
वे उगाते हैं
धतूरा अरंडी
ओलिएंडर तम्बाकू
फैलाते हैं अपने हिस्से का
सूखा ख़ून
गीला दुख
ठंडी जलन!

चाहती हूँ खिलाना
पलास अमलतास
जूही सेमर के फूल
सरकाती हूँ पन्ने इसलिए
गुनगुनाती हूँ
कविता या कहानी
बुदबुदाती हूँ संगीत
देख लेती हूँ कला
पेड़ आसमान में
चुन लेती हूँ
हिस्से के अपने
सेमर पलास जूही और अमलतास।

दुनियादारी में लिप्त तुम
आगे बढ़ गए हो कला से
मिट्टी की पराकाष्ठा है फूल।

एक बार ज़रूर
क़ब्र देख आनी चाहिए।

संज्ञा

बोलो
बुलाते रहो
सुनो
सुनाते रहो
चलो
चलाते रहो
पढ़ो
पढ़ाते रहो
उगाओ
और बाँटते रहो।

क्रिया की परिचायक है पृथ्वी
संज्ञा सर्वनाम विशेषण के
नेपथ्य से भी ख़ाली
विशेषण सर्वनाम संज्ञा की पर्यायवाची है
जिसकी सक्रियता
नैसर्गिक गुण है
विडम्बना!
निष्क्रियता का एकमात्र कारण भी है।

सुख के कई कारण होते हैं
दुःख का सिर्फ़ एक।

सुंदरता

नैन साहिलों पर रात मत बसाना
आहटों पर उमर भी मत बिछाना
संगमरमरी मुखड़े को सराहना भी मत
झम-झम बारिश में दिल के गीत ना गाना
गुलाब चमेली मोगरा का कोई चेहरा ही देना
चाँद पर बोलों को मत रखना
गहरे मोती में धुत्त भी मत होना
साँप से रेशमी बादल में तैरना भी मत
घुमावों पर नदी कविता फूल उगाना ना
बसंती आँचल की मौजों में चेहरा ही छुपाना।

तुम प्रेम का रंग नारंगी रखना
पहले और आख़िरी समय
तुम्हारे मेरे
कोई भी अतिशयोक्ति न हो।

रोमांटिसिज़्म का मल्हार बन चुके
हर फूल को नकारती हूँ
नहीं चाहती
रथ या घोड़े पर आओ
सादी-सी बैलगाड़ी में आओ
मगर आओ
अपना कुछ लेने के लिए
दो पल की चाभी लिए हुए।

एक पेड़

गालियाँ दो
ख़ूब कोसो
पेड़ को गिराने के लिए
कमज़ोरिया गिनाओ उसकी
ख़ूबियों को लाल रँग दो
उकसाओ बार-बार
कि फूट पड़े धीरे-धीरे
बोली बूँद-बूँद
शाखाओं में फिसलने लगेगी
टप्प-टप्प
जड़ों में रिसती जाएगी
ज़मीन से आसमान तक फैल जाएगी
देखते ही देखते
ग़श खाकर गिर जाएगा किसी पहर
मिट्टी उखाड़ देगा फर्राटे से
आत्मा धम्म गिर पड़ेगी
वहीं फैल समा जाएगी
आह की परछाई है सागर
गहरा स्वाद
दुःख की चरम सीमा है।

एक भोज का प्रबंध होगा
(वास्तव में तेरहवीं)
गप्पे हाँकी जाएँगी गुच्छों में
चटखारे लिए जाएँगे
हिसाब होगा मेहनत का
बोली की गुणवत्ता का
बनेगें मुँह मियाँ मिट्ठू
ठहाकों से श्रद्धांजलि होगी
गिनती अगले की फिर
धार पर चढ़ाई जाएँगी तलवारें
एक और मेहनत के हिसाब के लिए।


सुजाता गुप्ता की कविताओं के प्रकाशन यह प्राथमिक अवसर है। वह अर्थशास्त्र से परास्नातक हैं। उनसे sujata23gupta@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. नीरज जुलाई 25, 2023 at 9:57 पूर्वाह्न

    ‘एक पेड’

    सबसे ज्यादा सुंदर लगी।
    अच्छी कविताएं
    सदानीरा को साभार💙

    Reply
    1. सुजाता गुप्ता अक्टूबर 17, 2023 at 7:20 पूर्वाह्न

      सराहने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

      Reply

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *