कविताएँ ::
त्रिभुवन

त्रिभुवन

उपेक्षा

इतना रेतीला मत करो
कि समा जाऊँ गहरे भँवर में।

आँखों में इतने जलमहलों का निर्माण न करो मेरी
कि सम के धोरे पर रख दी गई मछली हो जाऊँ!

कवि

एक

मैं फंदे की रस्सी बुन रहा हूँ
मैं अभ्यास कर रहा हूँ
सबसे अच्छी गाँठ लगाने का

मैं अभी बुलाने जाऊँगा जल्लाद को

दोस्त, जल्दी करो, मुझे देर हो रही है
मेरी कविता पूरी हो गई है!

दो

अपनी क़ब्र ख़ुद ही तैयार करनी है
ख़ुद ही रखना है भीतर इसके।

फूल भी ख़ुद ही लाने हैं
ख़ुद ही फावड़ा, गेंती और बसूला
ख़ुद ही लकड़ी, कीलें और आरी
और ख़ुद ही बनाना है ताबूत सुंद-सा।

ख़ुद ही रखना है ख़ुद को भीतर इसके
फिर ताबूत को भी रखना है भीतर क़ब्र के
ख़ुद ही लाने होंगे और ख़ुद ही रखने होंगे पत्थर।

ख़ुद को ही करना है अपनी क़ब्र का प्रबंधन
ख़ुद को ही लाना है क्रॉस
ख़ुद को ही जलानी होंगी हर रात मोमबत्तियाँ।

कविता में छंद, अलंकार और भाव-सौंदर्य से भी ज़रूरी तत्त्व यही है।

झूठ की लयकारी

उसकी थाली में
व्यंजनों की कटोरियाँ रखी रहती हैं,
जो पोषक तत्त्वों से भरपूर होते हैं।

वह खाने को माँ के हाथ का बताता है
माँ, जो बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनाती थी
अब जिसके हाथ अपने कौर को उठाते काँपते हैं।

माँ देखती रहती है चाँदी के उस गिलास को
जो वह किसी ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास डिब्बे से लाया था
और जिसे उसने हिमालय की कंदरा में मिला बताया था
किसी साधु से, साधु जो पांडव युग से अब तक तपस्या कर रहा है
गिलास, जो द्रोपदी के पिता ने दहेज में दिया था,
गिलास, जो द्रोपदी ने दूध पीने साधु को दिया था
गिलास, जो मूलतः एक पुर्तगाली पर्यटक का था
भीतर ‘महाभारत’ और बाहर ‘रामायण’ से जुड़ गया था।

वह हर दिन झूठ पकाता और झूठ खाता है
वह झूठ पीता और झूठ पिलाता है
वह झूठ ओढ़ता और झूठ बिछाता है
वह सच सुनने का आदी नहीं,
लेकिन अदभुत गाता है।

वह झूठ को बहुत रागों में सुनाता है
कभी भातखंडे तो कभी विष्णु दिगंबर की
स्वरलिपियों में लयकारियों के साथ
और तो और, उसे बाईस श्रुतियों को स्वरों में
विभाजित करके भी झूठ को गाना आता है।

झूठा आदमी स्वरलिपियों में कभी शुद्ध,
कभी कोमल, कभी तीव्र स्वरों का प्रयोग करता है
वह कभी मध्य सप्तक, कभी मंद्र सप्तक
और कभी-कभी तार सप्तक में गाता है।

उसके झूठ का स्वर सौंदर्य बहुत ही कमाल है
मींड, कण और खटका सुनकर तो
भातखंडे की आत्मा निहाल हो जाती है
और कभी-कभी तो ऐसा भी होता है
जब भातखंडे आनंद हिलोर में सो जाते हैं
तो झूठ की स्वरलिपियों का नया सम्मोहन सुनकर
विष्णु दिगंबर पलुस्कर अचानक भातखंडे को जगाते हैं—
सुनो, सुनो यह तुम्हारी स्वरलिपि में क्या
यह मेरी स्वरलिपि में भी देखो
कितने आसानी से और कितने वैज्ञानिक ढंग से
झूठ को सहज माधुर्य में डुबोकर गा रहा है!

वह झूठ के जीवन में जी जाता है
वह सच के जीवन में मर जाता है
वह झूठ से ऐसे जीवन कमाता है
वह बैठता है दिन भर अपने बग़ीचे में लगे
झूठों के सबसे सुंदर झुरमुटों के तले,
जिन्हें दुनिया के बेहतरीन माली सजाते हैं।

वह झूठ का जादूगर है
उसकी आँखों में झूठ नाना प्रकार के
सच के आकार में ढलकर बाहर आता है
उसकी समस्त ज्ञानेंद्रियाँ
और कर्मेंद्रियाँ झूठ का जाप करती हैं।

उसने सबसे पहले अपनी स्त्री से झूठ बोला,
उसने स्त्री के भाई से झूठ बोला,
उसने अपनी शिक्षक से झूठ बोला,
उसने झूठों का एक शक्तिशाली संप्रदाय चुना,
जिसने झूठ के चार वेद, छह शास्त्र, अठारह पुराण
और असंख्य उपनिषद अलग ही रच रखे थे।

उसके संप्रदाय के लोग झूठ की त्रिकाल-संध्या करते थे
वह उषाकाल में उठकर सबसे पहले
बुज़ुर्ग लोगों से झूठ बोलता, फिर युवाओं से और
यहाँ तक कि जिन बच्चों से कभी किसी झूठे आदमी ने भी
झूठ नहीं बोला था,
वह उनसे भी झूठ बोलता।

झूठे आदमी के देश में एक पुरानी परंपरा थी
झूठ बोलकर जीवन दे दो
भले नरक में ही क्यों न जाना पड़े,
लेकिन झूठा आदमी झूठ गढ़-गढ़कर
निरपराध लोगों का ख़ून लेता था
और इस ख़ून को अपनी सम्मोहक मुस्कान के साथ
सोने के गिलास में पीता था, जिसके बाहर
एक गुरु और एक लघु वर्ण के दो समान अक्षर
प्राचीन पांडुलिपियों के अक्षरों की धज में खुदे होते थे।

वह अपनी हँसी अपने कंठ में सजाए था
सच पूछो तो वह झूठ का जादूगर था
वह झूठ से बिल्लियाँ बनाता था,
ख़रगोश बना देता था
और मन आता तो वह झूठ के
नए-नए शब्दकोश और नए-नए थिसारस रचता था
वह झूठ के व्याकरण का नया पाणिनि
और झूठ के महाभाष्य का नया पतंजलि था।

वह झूठ का शाइर था
क्योंकि उसने झूठ का पहला दीवान रचा था
उसके झूठ के बिल्कुल अलग छंद थे
उसके झूठ नई लय लेकर आए थे
उसके झूठ की एक ख़ास बहर थी,
जो गीतों के आहंग से भरी रहती थी।

वह एक ख़ास बग़ीचे वाले विशाल राजसी भवन में रहता था
जहाँ पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा झूठ का था
जिसकी शोभा झूठ के नाना रंगों से बना एक इंद्रधनुष बढ़ाता था।

वह इंद्रधनुष एक ख़ास लोकतंत्र के क्षितिज पर टँगा रहता था
जो झूठ के लिए, झूठ का, झूठ के द्वारा
सबसे झूठे आदमी को लोकप्रिय मानकर प्रफुल्लित रहता था।

वह कभी-कभी झूठ को सत्य की ध्वनि में गाता
कभी मधुर ध्वनियों में कंपन लाता
कभी-कभी वह धर्म के तानपूरे या
सियासत की सितार के तारों पर आघात करके कंपन लाता
और झूठ में नाद सौंदर्य पैदा कर देता
कभी-कभी वह लालक़िले की प्राचीर से
झूठ के एक सप्तक में असंख्य नाद ला देता
वह ऐसे गाता कि एक साथ एक ही कंठ से निकले
दो झूठों की श्रुतियों में भेद जान लेना आसान न होता।

वह झूठ को कभी-कभी षड्ज में गाता
कभी गाता ऋषभ, गंधार या मध्यम में
तो कभी-कभी पंचम, धैवत या निषाद में
और कभी-कभी तो उसके झूठ के स्वर
शुद्धावस्था से थोड़ा ऊपर चले जाते।

वह इतना दक्ष था कि झूठ को आरोह-अवरोह में गाता
तो कभी द्रुत गति में राग के स्वरों को आकार देता
वह एक कठिन गायक है
वह कण, मुर्की, मींड, कंपन और गमक से
अपने झूठ को सजाता है।

वह झूठ को मधुर कंठ से लय और ताल के साथ गाता
वह शुद्ध उच्चारण में जन-मन-रंजन लेकर आता
वह बिलावल थाट में इतना रम जाता है
कि झूठ राग हंसध्वनि हो जाता है!
वह शोकाकुल कंठों से फूटते रुदन को
कभी झूठ के झपताल की दुगुन से
धी-ना-धी-धी-ना-ती-ना-धी-धी-ना…
कभी झूठ के चारताल की दुगुन से
धा-धा-दिं-ता-कि-ट-धा-दिं-ता-कि-ट-त-क-ग-दि-ग-न…
कभी झूठ के रूपक ताल की दुगुन से
ती-ती-ना-धी-ना-धी-ना-ती-ती-ना-धी-ना-धी-ना…
कभी झूठ की एकताल की दुगुन से
धिं-धिं-धा-गे-ति-र-कि-ट-तू-ना-क-त्ता-धा-गे-ति-र-कि-ट-धी-ना…
तो कभी झूठ के तीन ताल की चौगुन से
धा-धिं-धिं-धा-धा-धिं-धिं-धा-धा-तिं-तिं-ता-ता-धिं-धिं-धा…!

विष्णु दिगंबर पलुस्कर और विष्णु नारायण भातखंडे ही नहीं,
राजा हरिश्चंद्र भी डरे हुए हैं,
क्योंकि वह राजर्षि गायक घोषित हो चुका है
वह पहले पूरे देश को शवासन में बिछाकर पद्मासन लगाता है
और फिर अपने दशों कंठ से झूठ का गायन शुरू करता है!

शासक

उसे मोर और बाघ से असीम प्रेम है
वह अपनी हथेली पर दाने रखकर चुगाता है मोर को
वह बाँहों में भर लेता है बाघ को अक्सर।

मेरा ध्यान उसके चेहरे पर ही नहीं है
मैं उसके बाज़ुओं को भी देखता हूँ
जिन पर शुभ दिन, मंगल घड़ी
और सौभाग्यशाली नक्षत्र में
बाँधे गए हैं सोने में मढ़े दो गंडे।

एक गंडे में मोर की और दूसरे में चीते की आँख रखी है
उसे अभी अपनी दो और भुजाएँ उगने का इंतज़ार है
जिन पर बाँधे जाने वाले गंडों में बाक़ी दो ऑँखें रखी जाएँगी।

मोर उसके लॉन में अब भी कूक रहा है
और बाघ दहाड़ता है पहले से भी ऊँची आवाज़ में।

चाँद, सपना और मैं

मुझे सपना आया
मैं चाँद हूँ
और चाँद के सपने में
मैं आया हूँ।

मेरी नींद टूटी
सपना टूटा
चाँद छूटा!

अब मैं कौन हूँ?
मैं,
जिसे सपने में चाँद दिखा
या चाँद,
जिसके सपने में मैं आया था?

सपना टूटा!
चाँद छूटा!
छूटा मैं भी अपने आप से!

सम्मोहन

झरते जाते दिन प्रेम के
चुंबक-चुंबक होता जाता चाँद

भरता जाता मुझमें लोहा-लोहा।

प्रेम

देह खटखटाती है दरवाज़ा देह का
देह को भीतर बुलाती देह,
जैसे नेह में है ना और हाँ; हाँ और ना।

स्वाद देह में देह का नहीं,
प्रेम का है।

चाँद के बिंब

है था
गिरी हुई पत्तियाँ में।

चींटियाँ थीं नथुनों से आती-जाती
वह एक बहुत सारा नहीं था?

खरोंच दिया गया हृदय की त्वचा से
पाँवों के नीचे से खींच ली गई पृथ्वी
बची रह गई पूरी एक जर्जर पत्ती।

हथेलियों से निकाल लिया गया
प्रफुल्ल चेतन आसमान
यहाँ-विहीन
वहाँ-विहीन।

भीतर तक सर्द और ज़र्द
हवाएँ सब हैरान
देखते स्वर्ण विहान
रहो, नृत्यविहीन
हीन।

सिर्फ़ शिशु की आँख मुस्कुराए
फूल का मन हो तो ठूँठ बुलाए।

देह हरिद्रा में गंधाती
बर्फ़ की सिल्लियों पर तितलियाँ गातीं।

अकेले रह गए ब्रह्मांड सारे
एक गया
संसार गया
वह में हम भी चला, जला।

सारे रेगिस्तान अँधेरे की अट्टालिकाएँ
समस्त आधुनिक शहर रेत के पहाड़
कोमल हाड़ जीवित
ढेर ही ढेर शवों के शेर
कोंपलों का नरसंहार
विचारों ने ज़िबह किए मनुष्य।

पाता काले लिबास की एक रूह में
अपने आपको बंदी मैं
लेकिन मुझे स्वतंत्रता
कि उसकी नसों में बेआवाज़ पच जाऊँ।

आख़िरी साँसों में हैं
अंकुरण की समस्त संभावनाएँ
मृत्यु ही होगी प्रेम की आकुल पुकार की ‘हाँ’
कहेंगे रहेंगे नहीं तो
है था
विकल प्रेम की प्यास का प्रतिबिंब!

भविष्य का अतीत

मैं सोलहवीं सदी की पीठ पर लटका हुआ
कुछ क़दम दूर ठिठकी
बाईसवीं सदी को देखने की कोशिश कर रहा था।

पैलिलियोलिथिक, नियोलिथिक, चाल्कोलिथिक, ब्रोंज एज, आयरन एज
या मिडिल किंगडम्स या लेट मेडिवल पीरियड के बारे में भी कुछ नहीं सूझा।

पुनर्जागरण के किसी अंकुर की कोई ख़ूबसूरत पत्ती दिखाई नहीं दी
अँधेरे, दुर्दिन, विभीषिकाएँ और बुरे सपने मुख़बिरी में मुब्तला मिले।

कहीं दिखाई नहीं दिया डच, डेनिश, फ़्रेंच या ब्रिटिश इंडिया
पीठ से उचका भी बहुत मैं,
लेकिन नहीं दिखा दिल्ली में लोकतंत्र की लंगरगाह का कोई निशान।

ख़ून-खच्चर, ज़ख़्मी घोड़ों और रक्त सने हाथियों के अलावा कुछ नहीं दिखा
न कबीर, न नानक, न तुलसी, न रहीम, न जायसी, न मीरा, न रैदास,
न विद्यापति, न सूरदास और न केशव, न बिहारी दिखे।

अब मैं इक्कीसवीं सदी की पीठ पर लटका हुआ
घृणित युद्धों पर चुप हूँ
मुझे बुलाते हैं कश्मीर, सीरिया, ईरान, इराक, अफ़ग़ानिस्तान में बने रक्तकुंड!

यह सदी उन्मादित-सी भटक रही है ब्रेक्जिट से अमेज़न के संकटों तक
सूर्य के भीतर मचलते तूफ़ानों की चिंता है, पाँवों में जलती धरती नहीं दिखती
ख़ानक़ाहों में शोर इतना है कि आँगन में आम के पेड़ पर गाती बुलबुल सुनाई नहीं देती!

छठा तत्त्व

आग की नमी
पवन की पाँखुरी
धरती का रस,
आकाश का अंकुर
जल की जिजीविषा।

ब्रह्मांड का छठा तत्त्व—
प्रेम।


त्रिभुवन (जन्म : 1964) सुपरिचित हिंदी कवि-लेखक और पत्रकार हैं। ‘शूद्र’ शीर्षक से प्रकाशित उनका कविता-संग्रह चर्चा में रहा है। उनसे thetribhuvan@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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