कविताएँ ::
वसु गंधर्व

वसु गंधर्व

बोलो ज़ख़्म

एकांत की परतों में बोलते ज़ख्म
पीड़ा की अपनी पुरानी परिभाषाओं से बाहर आओ
मेरे उत्कर्षों में बोलो

चुनो आत्मा से होकर देह
और देह से होकर आस-पास तक
जल की तरह फैलने का अपना बहाव
मेरी रिक्तताओं में बोलो

ख़तों में जहाँ दस्तख़त करना भूल जाऊँ
रिस पड़ो बनकर रक्त की एक बूँद
अपने नाम से कहीं अधिक बंद हूँ तुममें

विवर्ण उस अंधकार में बोलो
जिसमें कट गए हसदेव के वृक्ष
वृक्षों के साथ कटते लोगों की पीड़ा को
मेरी देह में आकर बोलो

बोलो जैसे मेरा लिखा-पढ़ा सब कुछ तुम्हारा है
जैसे मेरा टूटने
और फिर जुड़ने
और फिर टूटने का नीरस गद्य
तुम्हारी तासीर में ही आकार पाता है

पृथ्वी से इतनी दूर बाज़ की उड़ान में बोलो
शांति के उस कबूतर की फड़फड़ाहट में बोलो
जिसे नोच खा गए हैं गिद्ध

मेरी संवेदनाओं की छिछलाहट में
खोजो अपनी पुरातन गहराइयों का अ-तल

इतना गहरा बोलो
इतना अबूझ बोलो
इतना अदेह बोलो

बोलो।

प्रेम

मैंने कहा अलविदा की अपनी भाषा में तुमसे प्रेम
तुमने आवेगों के तीव्रतम सिरों पर उसे सुना
एक ही समय
अपरिचय को परिचय में बदलता एक नगण्य-सा शब्द
प्रकृति के जिस अनगढ़ मौन से नदियाँ सीखती हैं अपने मीठे गीत
अकेलेपन की वे निस्तेज ध्वनियाँ
जो सूर्य के ताप से दूर
चंद्रमा का अंधकारमय मुख बुदबुदाता है

भूलने की अपनी भाषा में मैंने कहा प्रतीक्षा
तुमने उसमें क्रूरताओं की अलक्षित गहराइयों को सुना
मल्लाहों के हृदय की क्षीण धड़कनों में दबे
डूबने के उनके भय को सुना

अलविदा की अपनी भाषा में मैंने फिर से कहा प्रेम

जब तक उन्माद ढल गया विक्षिप्तता में

जब तक विक्षिप्तता हुई नक्षत्रों का ज्वार

दुहराने की अपनी भाषा में मैं कहता रहा प्रेम।

टूटता वृक्ष

टूटता वृक्ष बहुत धीमी गति से
पृथ्वी को सौंपता है
अपने अध्यात्म के सूत्र
घास को सौंपता है अपनी छाल पर
चढ़ आने की जगह
अनेक गिलहरियों, चिड़ियों, बाँबियों में रहते जीवों को
अपना कष्ट जर्जर शरीर
और अपनी क्षीण होती आत्मा

कि जब उसके हृदय से पूर्णतः लुप्त हो जाए जीवन का संगीत
तब भी पृथ्वी पर जीवन के सर्वत्र अनुनाद में
वह जोड़ सके अपना एक स्वर

ऐसे होता है वह अमर

जिन भी दुःस्वप्नों में मैं टूटता हूँ, ढहता हूँ
उनमें सबसे अधिक दिखाई देते हैं प्रियजन
और जैसे सीनों पर धरे सुराख़
उनकी विवर्ण, जर्जर आत्माएँ।

रात के बाद

बिना शब्द की ध्वनियों में
अपनी मीमांसा के अवशेषों को उठाकर
बिखेर देना संवाद की थकी काया पर।

जैसे कराहना; ज़ोर से कहना खीज का कोई बेमतलब हर्फ़।

बहुत प्यास लगी हो तब भी लुढ़का देना लोटे को पृथ्वी की ओर, छुपा लेना जल की फैलती आवाज में अनवरत झरती ओस जैसे कानों पर गिरता घड़ी का शोर।

फिर कुछ न कहना। खोखली करवटों से रिसते देना किसी अन्य ऋतु के बोझिल विवरणों को जिसमें नींद का रूपक एक बौराए नीले कुत्ते के भूले पदचाप से बना रस्ता, और बचे हुए वाक्य हमारी पालतू मछलियों की लहराती पूँछ।

कोई गीत हो यहाँ तो उसे नज़रंदाज़ कर देना बेझिझक।

जब टूटे तिलिस्म तो पूछना बार-बार

कोई आवाज क्यों नहीं देता

कहाँ गए सब लोग!

चुंबन

किस चुंबन के अतिरेक से विस्थापित हुआ पुष्प
आकाश में जाकर सूर्य हुआ

किस एकाकी चुंबन के विवरणों से उतरी धूल
बन गई दिशाएँ

किस चुंबन के रस्ते पहुँचा हम तक एकांत
एड़ियों में भरता ठंडापन
दीवार की गर्द में उकेरता अपनी शक्ल

किस चुंबन ने हमारे साथ की भीतरी तहों में
रोप दिया एक अंधे वृक्ष का बीज
जिसके दिशाहीन फैलाव से
खो गईं परस्पर देहों की नैसर्गिक सीमाएँ
तुम्हारे पुष्प की गंध हुई मेरे जड़ों की
जिनका अंधकार फिर हो गया तुम्हारे पत्रों का

किस चुंबन ने हमें कीलों जैसे ठोंका
अपने निर्दिष्ट साँचों में
कि वर्षा में भींगते
अपनी ज़ंग खाई आकृति में डूबते, ख़त्म होते
हम देख ही नहीं पाए कि किस ओर थी मुक्ति

किस चुंबन ने दी हमें अनंत संभावनाओं की एक रात

और बिना संभावनाओं की अनंत रातें।

कौन

कौन प्रतीक्षारत कि पार करनी थी यह दुर्गम नदी
कि लाँघने थे पर्वतों के सुस्ताते उदर

कौन बोलता प्रेम के शब्द
कि जल की तरह निमग्न
बहने देना था अपने श्रवण को
अपनी कंदराओं से बाहर

कौन ज्वलंत इतना
कि जला देनी थी देह से आत्मा तक सब परतें
कि अपने कंकाल तक संकुचित रखना था
अपने होने के सभी रहस्यों को

कौन इतना विस्मृत, उजला, छूटता
कि पिरो लेना था स्मृति की अनंत तहों को
उसके नाम के संगीत में
स्मृतिलोप हुए बूढ़े की तरह
बुदबुदाना था उसकी असंभव मीमांसा तक
अनर्गल शब्द

कौन असंभव इतना
कि बदल देने थे
संभावनाओं के शिल्प

इतना कठोर कि उसकी दरारों में भरनी थी
अपनी पिघली हुई काया
इतना असह्य कि सहना ही था उसका ताप

इतना दूर कि पार करनी ही थी यह दुर्गम नदी
लाँघने ही थे पर्वतों के सुस्ताते उदर।

आने वाले दुख

आने वाले दुख
अपने पूर्वनिश्चित आकारों में ढलकर आएँ
जैसे हलक़ में पानी के घूँट का आकार
जैसे नींद में
प्रिय के स्वप्न का आकार
इतनी तरलता से कि उनका आना
कोई अतिरिक्त घटना न हो जीवन की सामान्य लय में

उन्हें किवाड़ खटखटाने की ज़रूरत न हो
उनके पदचाप से ही खुल पड़ें सब किवाड़
कोई भाषाई अतिशयोक्ति न हो उनकी गंध में गुँथी
सुबह या शाम, दूर या पास के दोस्तों से कर सकें उनकी बात बेझिझक

हमारे सुखद एकांत में
उनकी ख़ाली जगह में गूँजे वर्षाजल जब वे आएँ
एक विरक्त उदासीनता में डूबा जीवन
उनके साथ को तन्मयता से तलाशे
जब वे आएँ

आने वाले दुख ऐसे आएँ
जैसे लौटते हों निर्वासित प्रेमी।

पीड़ा

ऐसा अक्सर होता है यहाँ
कि किसी की पीड़ा
कह पाता है कोई और
मसलन कि कितना थक गया है आकाश
यह जल ही उच्चार पाता है
पृथ्वी भूल गई है अपने दुःखों की गिनती
लेकिन उन्हें कोई नदी बिना बुदबुदाए कैसे रहेगी
वृक्ष ही कहेंगे इंद्रधनुष के थके रंग
वातास की लय के डूबते स्वर
किसी दूब का हरापन ही तो बोलेगा

न इतना स्वार्थ
न इतना समय किसी के पास
कि अपना रोना ख़ुद रोए
न इतनी भाषा ही बची
हर क्षण टूटती जिजीविषा में सर्वत्र

दोस्त मेरा प्रकाश छद्म है
व्यर्थ हैं मेरे अधिकतर संघर्ष
उघाड़ कर दिखलाता हूँ तुम्हें
सूखे हुए रक्त से काला पड़ा हृदय

बोलो इसका अँधेरा
इसका मौन।

नींद में

नींद में कटते हैं हाथ
नींद में थामता हूँ बार-बार वह
जो नींद के बाहर फिसलकर
गिर जाता है हर बार

नींद में किया प्रेम
आख़िर जागने पर
आस्वादन के कितने रंगों से भर सकेगा
आकाश को

नींद में मृत्यु
कितना पाट पाएगी
रोज़मर्रा की निर्विकार निस्संगता
नींद में स्मृति
कितनी दूर झाँकेगी अंधकार में
पुरानी अनावश्यकताओं को टोहती

नींद से बाहर एक दूसरी नींद में ढुलकते हम
खोजते हैं पिताओं के, दोस्तों के, प्रेमिकाओं के
पसीने से अटे हाथ

नींद से बाहर
नींद में गिरते हम होते हैं
इतने भरे जितनी वर्षा की बूँदें
और इतने ख़ाली
जितना पीछे छूट गए बादलों का अनुनाद।

भूलना

भूलना वेदना के कठोर दृश्य
चेहरे की ख़ाली तश्तरी पर
एक क्षण को ठहर फिर बह जाता स्पंदन
प्रेम जो भरता नहीं
रीतता हृदय को
ऋतुएँ जो अपने दंश से
रोक लेतीं अगली ऋतुओं का आगमन

धूसर चुंबन
जिनमें बीत गई वर्षाओं की खोखली आवाज़ बजती है
पुराने दोस्तों के पुराने पड़ चुके नाम
उबासियों से भरी लड़कपन की अपनी कोई
बेमतलब तस्वीर
अनगिनत दराज़ों में भूले हुए ख़त

इस आश्वासन के साथ भूलना चीज़ों को
कि समय रहते भूलना
याद रखने से कितना बड़ा और ज़रूरी है
कितना शाश्वत है
कि पृथ्वी सिखाती है त्यागना
बटोरने से अधिक

भूलते हुए जीवन के एक-एक दिन
इतनी तन्मयता से पलटना इस कथा के पन्नों को
कि यह दुनिया की सबसे दुखद नहीं
सबसे सुखद कथा हो।

आलाप

क्या मेरा होना
कहता नहीं तुमसे कुछ
क्या मेरा होना
सिसकता नहीं रहता लगातार
बुदबुदाता नहीं अपने मन के अनर्गल वाक्य
फड़फड़ाता नहीं अपने आधे कटे पंख

दीवार पर धूप
रोशनी और गर्माहट से अलग भी कुछ कहती है
रंगों को टोहते
दरारों में पिछली गर्मियों के अवशेष खोजती
प्रकाश और छाया के अपने प्राचीन शिल्प में
कितना कुछ नया बोलती है अपने हर इंगित में

चलते पैरों को पृथ्वी कब बतलाती है
अपनी साँस की डूबती लय
आकाश कब सिखलाता है उन्माद में डूबे हृदयों को
कि उड़कर कैसे ओझल हुआ जाता है

कौन सिखाता है देह को प्रेम या मृत्यु

कौन बतलाता है इसे वासना का सही मतलब

अपनी यौनिकता के बिखरे आश्वासन में
एक मूक पराजय के राग में यह लौटती है बार-बार
अपनी प्रतिबद्धताओं की चट्टानों से चोटिल

मंत्रोच्चार की तरह बुदबुदाती
छूट गई क्रांतियों के नाम और चिह्न

अग्नि में प्रविष्ट होती औरत
अपनी देह में जमी वर्षों की अरण्य-गंध
अंततः पृथ्वी को ही तो सौंपेगी

मेरे युग की दंतकथाओं में कितनी बची है पृथ्वी
कि सौंप सकूँ इसके सिंचित रहस्य।

विस्मरण

मुझे याद नहीं अपना पहला दृश्य
शायद वह अस्पताल के कमरे की स्लेटी छत का रंग होगा
या लेडी डॉक्टर की बड़ी घूरती आँख
या माँ की देह की अकुलाई सँवलाहट
रुलाई आने से ठीक पहले
जो दृश्य दर्ज हुआ होगा स्मृति में
वह खो चुका है

मुझे कहाँ याद दूध की पहली बूँद का आस्वाद
हवा का पहला संस्पर्श
रोटी का पहला टुकड़ा
खीर का एक दाना
माथा चूमते अनगिनत लोग
गाल सहलाते अनगिनत स्पर्श
पानी की पहली छुअन
प्रेम का वह उत्सव
जिससे उसके ठीक बाद छिटक गया मैं
थोड़ी ही दूर

अधकटे वृक्ष-सा डोलता हूँ पृथ्वी पर
महसूसता हूँ घास के पोरों से
माँ की प्रसव वेदना की आँच

खोजता हूँ
क़द में अलविदा के ठीक बराबर
अपना कोई शब्द।

ढूँढ़ना

मेरी ही देह की भाषा में
मुझे लौटाओ मेरे रहस्य

मेरे ही स्पर्श के उष्ण से
परत दर परत उतारो
मेरी ही जिजीविषा की परतों को

मेरे ही टूटने की ध्वनियों से
गढ़ो मेरे बोलने का चुप

कितनी बचती है स्मृतियों के बाहर देह
इतिहास की वीभत्स आकृतियों के बाहर
कितना देख पाता है ख़ुद को
अपनी बहुत-सी उदासियों में लिपटा देश

जब थककर लौटूँ घर
तब मेरी नींद को दो अपनी उदासियों के शब्द।

एकांत

रात के सबसे उबाऊ क्षण
घड़ी की अनवरत टिकटिक
चाहे जो कहे तुमसे
लेकिन अकेला इस ब्रह्मांड में कुछ नहीं होता

उदाहरण के लिए
जिस शुष्क पत्ती को तुमने कुचल दिया था कल
उसके अवशेषों में अब तक
अनगिनत चीज़ें मुखरित होकर बोलती हैं
उसमें कितना सारा अतीत है,
जीवन के कितने रंग,
कितने राग
कितने झरने,
कितनी आग

इसमें ऋतुओं के वे आख्यान दर्ज हैं जो वृक्ष ने नहीं सुने, किसी दूसरी पत्ती ने भी नहीं
धूप के हृदय में कुछ ऐसा गोपन था जो उसने बस इससे ही कहना चुना
विस्मृति की भाषा बोलता पतझर कितने अलग संगीत में विन्यस्त हुआ इसकी शिराओं में
कोई नहीं जानता कि रात क्या बुदबुदाती थी इससे हर रोज़

यह जब गिरा पृथ्वी पर
तो जिस सौम्य सिहरन से काँपा पृथ्वी का अंतर
उसकी धुँधली याद शायद कभी पूरी तरह नहीं मिटेगी

इसके होने की कथा ईश्वर तक पहुँच सकती है
अब बहुत सहजता से
निकाल लिए जा सकते हैं गंभीर दार्शनिक निष्कर्ष

लेकिन दरअसल इतनी ही बात खरी है, और सच्ची

कि अकेला कुछ नहीं होता ब्रह्मांड में।


वसु गंधर्व (जन्म : 2001) हिंदी की नई पीढ़ी के अत्यंत समर्थ कवि हैं। उनकी एक काव्य-पुस्तिका ‘किसी रात की लिखित उदासी में’ प्रकाशित हो चुकी है। उनसे vasugandharv111@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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