कविताएँ ::
विजया सिंह

poet Vijaya Singh
विजया सिंह | क्लिक : संदीप सहदेव

पुराना तकिया

पुराना तकिया, बूढ़ी डायन की तरह
कहे-अनकहे सब राज़ जानता है
नींद के हर कुएँ, बावड़ी, इमारत का नक़्शा
रूई की तहों में सहेजे
कितने ही घायल रास्तों से लौटा लाता है
—कि अब गिरे, तब गिरे
पहाड़ से,
या पानी में—

अंतर्मन का प्रथम प्रहरी
हमारे आँसू, राल और बालों के तेल का स्वाद चख चुका
तकिया जानता है सिर की गोलाई
कितनी-सी जगह में सिमट आती है

गिलाफ़ पर छपे बादाम के हल्के गुलाबी फूल
वॉन गॉग की पेंटिंग की सस्ती-सी नक़ल तो है
पर नींद के लिए उपयुक्त
इन नर्म किनारों से उतरा जा सकता है
पाताल और अंतरिक्ष, दोनों ही में

हालाँकि नींद और बूढ़ी डायनें
भरोसे के लायक़ हों यह ज़रूरी नहीं
किन अज्ञात तटों पर वे आपको ला पटकेंगी
इसे जाना नहीं जा सकता

आप सुरक्षित लौट आएँगे
यह कहा नहीं जा सकता

हो सकता है लौट ही न पाएँ
उन रास्तों से
जहाँ आज भी विक्रम बेताल को तलाश रहा है
और बेताब है बेताल नए प्रश्न लिए

तकिए के किसी छोर से निकली सूत की डोर
ही रही होगी थीसिएस की साथी
उन भूल-भुलैयों में
जहाँ दहशत मनुष्य का धड़ और बैल का सिर है

नींद मरने का अभ्यास है तो
चेतना ज़रूर तकिए से होकर निकली होगी
फिर ये ज़रूरी नहीं कि तकिया हाथ का हो या गठरी का
नींद सबके लिए बनी है।

लाल बेर और मोटा नमक

लाल बेर और मोटा नमक सभ्यता के दायरे में नहीं
उन्हें अब भी डूँगर और रेत पसंद हैं
कम पानी वाली जगहों और तमाम कच्चे रास्तों पर
वे अपने आप उग आते हैं
सिर्फ़ बकरियाँ और ऊँट उन तक पहुँच पाते हैं
और वे जो स्कूलों में नहीं

उमस भरी गर्मियों, मेलों और सरकारी स्कूलों के बाहर
पार्कों के आवारा और बच्चे
पानी में भीगे लाल बेर और मोटा नमक
चटखारे ले-लेकर खाते

आत्मा के उस छोर की ओर लौटते हैं
जहाँ बीहड़ अब भी ज़िंदा हैं
कोई नदी इस आमंत्रण पर उफान में आती है

उसके किनारे गोता लगाना
स्फिंक्स की प्रतिमा के ठीक नीचे पहुँचना है
स्फिंक्स की नाक टूटी है और आँखों में दया नहीं
है तो सिर्फ़ प्रचंड कौतूहल

उसकी पहेलियाँ अब भी
उन रास्तों की ओर धकेलती हैं
जहाँ घर छोड़ते हुए भी,
घर ही की ओर लौटना है।

रद्दी और कॉकरोच

भूखे आदमी की आवाज़ दूर से सुनाई पड़ती है
उसकी आवाज़ की खनक
भूख रोकने के रसायन से उपजती है
जर्दे की गंध और बीड़ी का धुआँ
उसकी आवाज़ के किनारों को समेट लेते हैं
उनसे बचकर निकली दस्तक
भाषा के आरंभ का स्वर है

उसे पुराने अख़बार और पत्रिकाएँ चाहिए
जिनके ढेर बंद दरवाज़ों के पीछे
ख़ाली कोनों में बढ़ते जा रहे हैं
जिनके नीचे कॉकरोच
अंडे और बच्चे सँभाले हैं

चिरकाल से विस्थपित वे जानते हैं
घर कभी स्थायी नहीं होते
स्थायी है तो बस घर की तलाश
फिर वह काग़ज़ हो या काँच
वहाँ रहा जा सकता है

काला अक्षर भैंस सही
आने वाली नस्लों के लिए महफ़ूज़ और सुकून की जगह है
कम से कम तब तक
जब तक भूख से भी आदिम स्वर
फिर नए घर की तलाश में न धकेल दे।

पिता और देश

पिता भावुक हैं
ख़ासकर देश को लेकर
देश जिसके लिए उन्होंने फ़ौज की वर्दी पहनी
परिवार से दूर, जंगलों भटके, जंग लड़ी
कोहिमा, इम्फाल, ऐजवल, जोशीमठ
के किनारों को बूटों से नर्म और समतल किया

सरहद से सरहद को नापते
उनके सूजे पैर
गुनगुने नमक के पानी में डूबते-उतराते
कभी एक बाहर, कभी एक अंदर
बढ़ते जाते एक ख़बर से दूसरी की ओर

जब तक बाईं ओर के अख़बार दाईं ओर पहुँचते
माँ शिकायतों का पुलिंदा तैयार कर चुकी होती
दुपहर के खाने से पहले जब भूख सबसे तेज़ होती
पेशी का बुलावा आता

पिता की नर्म आँख काँच हो चुकी होती
लगता हम जिसे देख रहे हैं
वह, वह नहीं जिसे हम पहचानते हैं
कोई और है
और अभी लौट रहा है गुप्त अँधेरों से
पाँव में छाले और पीठ में दर्द लिए

उनका क्रोध
क्रोध था या भय :
उन किनारों का
जहाँ से वे गिरते-गिरते बचे
या उन क़बीलों के सरदारों का
जिनके गाँव फ़ौज के निशाने पर थे?

विजया सिंह हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों में लिखती हैं। सिनेमा उनकी रुचि और शोध का विषय है। उनकी किताब Level Crossing : Railway Journeys in Hindi Cinema Orient Blackswan से प्रकाशित हुई है। उन्होंने दो लघु फ़िल्में भी बनाई हैं, जिसमें Unscheduled Arrivals एक डॉक्यूमेंट्री है और दूसरी फ़िल्म ‘अँधेरे में’ निर्मल वर्मा की लंबी कहानी पर आधारित है। वह चंडीगढ़ के एक कॉलेज में अँग्रेज़ी पढ़ाती हैं। उनसे singhvijaya.singh@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 21वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

3 Comments

  1. अवनीश कुमार अक्टूबर 21, 2021 at 5:37 पूर्वाह्न

    बहुत ही सुंदर वैचारिकी👌👌

    Reply
  2. प्रमोद अक्टूबर 21, 2021 at 7:25 पूर्वाह्न

    भाषा और विचार दोनों स्‍तरों पर सुन्‍दर कविताएँँ हैं।

    Reply

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