कविताएँ ::
विक्रांत
अधकपारी
ताँबे और तुलसी वाले आँगन में
अमरूद के पेड़ पर लटका रहने वाला अधकपारी
भेज दिया गया शहर की ओर—
उम्मीद से
वह धुआँ उगलती लाल चिमनी से
पगडंडी पकड़
क़ब्रगाह पार कर
निकल आया चौड़ी सड़क पर
और पहुँच गया होड़, शोर और शहर में
टूटे प्लास्टर और नमी से भरे कमरे में
शरणार्थी-सा ख़ुद को बंद कर
वह टटोलता रहा अपनी हड्डियाँ,
मांसपेशियों का आकार
साफ़ करता रहा दाग़-धब्बे,
सूखती चमड़ी
और खिड़की से ताकता रहा—
शहर और वक़्त
इतना वक़्त! कितना वक़्त?
गूढ़-सा,
मूढ़-सा
चुप्पी साधे
रहस्यों को लपेट वह लगाता रहा कालिख के लेप
और उस पर पोतता रहा मिट्टी
बावजूद इसके कि उठती है मुर्दागंध
और चिमनी का धुआँ अपने माइंड-प्लेस में अब भी ढूँढ़ता है—
ताँबा,
तुलसी,
आँगन,
अमरूद।
अवशेष
अभी तक अंतर्मन की गुफाओं में बचे हैं अवशेष—
कलहरा, ख़ानक़ाह, कुंजड़ खेती के
और धड़-धड़ी के बज्जड के
किसी यक्ष की तरह
मैं बचाए फिर रहा हूँ इन अवशेषों को
फिर भी रिसता रहता है मवाद,
ख़ून, गंदा पानी और बहुत कुछ
तिस पर भी बहरेपन की वजह से चिल्ला नहीं पाता
चीख़ता हूँ बस अंदर ही अंदर
अंतहीन दर्द में—
शापित-सा
इसलिए भागता रहता हूँ
हर गिरफ़्त से
आर्ट से, एब्सट्रेक्ट से, अब्सर्ड से
जहाँ उलझने के मौक़े बहुत ज़्यादा हैं
नानी की कहानियों की तरह
मनुष्य-गंध, मनुष्य-गंध, मनुष्य-गंध
खिचड़ी-पापड़, पापड़-खिचड़ी
फलना खाए खीर और हम खाएँ खुद्दी चूना1भोजपुरी की एक लोकोक्ति जिससे आशय है कि आप बेहतरीन चावल की खीर खाइए और हम जो चावल टूटकर खुद्दी चूना यानी इतना टूटा हो कि चूना जैसा लगे, उसका भात खाएँ!
वैसे उलझना बेहतर रहता
शायद!
जमदूत
भलमनसाहत की परिधि में रहकर
जब मैं धुत्त था शून्य में
जमदूतों ने मुझे घेर लिया
विक्षिप्त,
बीमार
और संवेदनाओं से भरे हुए जमदूत—
प्रेम करने को आतुर
जो बातें कर रहे थे
विकास और काया-कल्प की
उस समय शायद मैं ही था संकटमोचन—
धुरीहीन
बस जेब में एक डिबिया सिगरेट
और उलझे बालों में सफ़ेदी
उनसे उकताकर-खीझकर
मैं बस निकल भागना चाहता था
पर परिधि!
और यह सवाल—
मैं ही क्यूँ?
***
यहाँ प्रस्तुत कविताएँ और कवि की तस्वीर ‘सदानीरा’ को कवि राजेश कमल के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं, इस परिचय के साथ—‘‘विक्रांत एक संवेदनशील अभिनेता हैं और कुछ वर्षों से रंगकर्म की दुनिया में सक्रिय हैं। वह पटना थिएटर की एक नई पहचान की तरह उभर रहे हैं। उन्होंने कई लघु फ़िल्मों में भी अभिनय किया है। इस दरमियान उनका कवि भी अपना काम करता रहा है, यह अलग तथ्य है कि उनकी कविताओं का अब तक कहीं (फेसबुक को छोड़कर) कोई प्रकाशन नहीं हुआ है।’’ प्रकाशन के इस प्राथमिक अवसर पर विक्रांत को शुभकामनाएँ। वह पटना में रहते हैं। उनसे vikrant.chhauhan@gmail.com पर बात की जा सकती है।