कविताएँ ::
जयंत शुक्ल

नदियाँ
नदियाँ रह जाएँगी
जैसे प्यार किसी का,
मैला-कुचला
हरा, लाल, पीला
होंठों-सा सूखा,
आँखों-सा गीला।
नदियाँ रह जाएँगी
जैसे गाँव किसी का,
मैला-कुचला
हरा, भूरा, नीला
स्त्री-सा दबा,
पुरुष-सा गर्वीला।
लौट आओ मेरे!
लौट आओ मेरे!
सारे ग़ुस्से के साथ,
ममता के साथ,
जीवन की सारी आकांक्षाओं के साथ
मुझे पहुँचाकर मृत्यु तक
चाहो तो लौट जाना,
या खोजना साथ चलने का द्वार,
दूर तक नज़र नहीं जाती
जीवन यहीं तक तो नहीं
आगे साथ देख सकते हैं
चलने को
गिरने को
और मर जाने को।
चाहना
मैं कुछ कामनाओं से
विलग रहना चाहता हूँ
पर तुम्हारे पैरों में अलक्तक लगाना
तुम्हारी पायल को बचाते हुए
अलक्तक तुम्हारे पैर को घेर ले
मेरे हाथों पर उसकी छाप रहे
और कुर्ते की बाँह पर रँगाई…
इस चाहना का क्या करूँ?
मनुष्य होने का इतना दुख कभी नहीं हुआ
मृत्यु के आकर्षण के परे
जीने की तमाम संभावनाएँ होती हैं
—मेरे जीवन में रही हैं
अब भी हैं!
पर इन संभावनाओं से ख़ुशी बटोरना
अधूरेपन को पूरा करना
और तमाम रंगों को साफ़ देखना
कोई क्योंकर सिखलाएगा?
नियति है हर एक मनुष्य की
एक ही राह के पथिकों की
कि हम सब एक राह पर चलें
उन्हीं पत्थरों से ठोकर खाते
उसी कीचड़ में धँसते
समस्त चेतावनियों के साथ
बिना किसी निवारण के।
रचना
और कितनी कविताएँ चाहिए तुम्हें?
हर बार ख़त्म होती मेरी इच्छा
कुछ रचने की
और तुम्हारा हठ
निर्माण का
और उससे ज़्यादा
उस प्रक्रिया में घुलने का।
बहुत कुछ करने की आकांक्षा
और कुछ न करने की ग्लानि
सब मिल जाता है तुममें
तुमसे मिलकर
अपने आपमें मैं इतना बड़ा होता हूँ
कि अकेला रह जाता हूँ
तमाम मिथकों से परिपूर्ण
ईश्वर से भी अकेला,
उसकी तरह नहीं है मुझमें
अपनी ऊब को
सृष्टि में बदलने का कौशल।
परत-दर-परत
खुलते जाते हैं भाव
बनती जाती हैं बातें
और बिखरते हैं शब्द
विशेष विन्यस्तता में।
लिखता हूँ इस उम्मीद में
कि अक्षर कभी नष्ट नहीं होते
शब्द रहते हैं जीवित,
जीवन देते हुए
और वाक्य करते हैं सृष्टि।
रचना,
जो मैं करना चाहता हूँ
नहीं होती,
होता है कुछ और उसका रूप
जैसे प्रेम की कविता लिखते
ये कुछ और ही रास्ते उतर आई है
पर अंततः
कवि जानता है
अपनी कविता का मूल भाव
जैसे मैं जानता हूँ अपना प्रेम
उसका सान्निध्य
और अकेलापन।
आओ!
कितने दिनों के बाद
एक चेहरा दिखा है
मायूस-सा चेहरा
उदास-सा चेहरा
काले पन्नों में लिपटा-सा चेहरा
लाल स्याही में रँगा-सा चेहरा
ये मैं ही हूँ
यहाँ मेरा ही स्वरूप-विस्तार है
तुम्हारे होने में
तुम्हारे न होने में
ये मैं ही हूँ
जो निराधार है।
मैं फटकारता हूँ
उन प्राचीन उपमानों को
जो विरह में जलाते हैं देह
निराश्रित पलों को बताते हैं युगों-सा।
मैंने समझा है
कि समय बीत ही जाता है
अपनी गति से
टपकते आँसुओं-सा
मुरझाते फूलों-सा
मरते मनुष्य-सा।
मैं उपेक्षित हूँ
और स्वयं उपेक्षा करता हूँ
अपने काव्य की
जिसमें लय नहीं है
तुक नहीं है
जिसमें तुम नहीं हो
प्रेम की संभावनाएँ नहीं हैं।
मैं देवताओं का पलायन चाहता हूँ
और तमाम लौकिकता के साथ
पुकारता हूँ तुम्हें
आओ मेरे हृदय में!
आओ मेरे शब्दों में!!
आओ मेरी कविता में!!!
मुझे यक़ीन है
जो तुम आ जाओगी
तो मेरी कविता भी लौट आएगी।
सौंदर्य
कैसे ठंडे लोहे ने जकड़ लिया है
मुझे
कहाँ ले जा रहा है यह?
समाज की नैतिकता मुझसे छूट रही है
टूट रहे हैं संस्कार
और समेटे जा रहा है भाव एक!
क्या मृत्यु के दिनों में भी
तुम्हारा सौंदर्य जीवन पाता है?
वो तो वहीं रहता है
निश्चल…
मैं देखता भी हूँ उसे
पर समाज इसे नैतिक नहीं कहता
(जबकि उसकी हर एक इकाई यही करती है)
कौन परवाह करता है
(करनी पड़ती है!)
इस निश्छलता में कितना छली हुआ जा रहा हूँ।
सुंदरता
आधे रास्ते में भी
मैं लिख सकता हूँ
सबसे सुंदर प्रेम-कविताएँ।
बड़े कवियों की रचनाओं से भी सुंदर?
सुंदरता तो व्यक्ति-सापेक्ष होती है!
काट सकता हूँ दु:खों को
भेद सकता हूँ ग्लानि को
सौंदर्य की धार से,
बच सकता हूँ
अकाट्य जीवन की मार से।
उभरी हुई सुंदर आँखें
इन्हें किसी कविता की ज़रूरत नहीं
ज़रूरत मुझे है
इन पर लिखने की।
न लिखूँ, तो इतना आवेश सँभालूँ कैसे?
मेरे इतने पास है इतना सौंदर्य
एक छोटे स्केल की दूरी पर
और मैं बचता हूँ
उन्हें चूम लेने से
(क्योंकि आधे रास्ते पर हूँ अभी!)
थकी हुई हँसी
कितना बुरा हो सकता है
बार-बार याद करना
जब आप अतृप्त भी हों
और किसी उम्मीद में ख़ुश भी
कितनी बुरी होती है झूठी उम्मीद भी
और कितनी भयावह होती है
भावों की कमी
और अधिकता भी!
किसी से मैं सब कुछ कहता आया हूँ
और अब वह अपने में इतना थक चुका है
कि बस हँसता है
उस हँसी में मैं घुल नहीं पा रहा
तो बस दूर हूँ
और वह तीसरा जिसके बारे में बात करनी है
अब सच ही में ‘तीसरा’ न बन जाए
कितना बुरा हो सकता है अब और
कि मैं शायद जानकारों को कुछ न बता पाऊँ
और करता रहूँ अपना काम (कैसे?)
गुलमोहर ढक ले अगर शहर को
और करते रहें सब प्रेम
हंसों की तरह सफ़ेद और कोमल
तो अच्छा भी हो सकता है
पर कितना बुरा हो सकता है
कि जो मुझे चाहे
मैं उसे न देख सकूँ
और देखता रहूँ अनंत में
किसी और की उम्मीद में
और जीता रहूँ हताशा में
और जो बचा सके मुझे
वह तो थक चुका है
और बस डूबा हुआ है हँसने में।
तुम्हें प्यार करते हुए
समाज के इन कठिनतर दिनों में
मनुष्य
अपनी अस्मिता खो रहे हैं
सो रहे हैं मेंढक
कुछ छिपकलियों का ख़ून
जम चुका है
ठंड में ठिठुर रहे हैं
सड़क के कुत्ते।
मैं कवि हूँ
परंपरा से बँधा हूँ
इसलिए घुमाकर बात कहूँ
तो यह संसार एक पेड़ है
और अब इस पर
सिर्फ़ एक पत्ती बची है
प्रेम नाम की।
यह पेड़ अजीब लगता है
लेकिन
कम से कम
एक पेड़ तो लगता है
टेढ़ा खड़ा एक ठूँठ तो नहीं।
मैं कवि हूँ
आधुनिकता के बोध से भरा,
सीधी बात कहूँ
तो तुम्हें प्यार करते हुए
मैंने जाना कि
मैं देह से ही नहीं
हृदय से भी
मनुष्य बचा हुआ हूँ।
***
[इस कविता का बेनाम होना बेहतर है]
ठंडी हवाओं में
पेड़ पर
झूलता है वसंत
उल्टे मुँह गिरता है
झुलसता है दिगंत।
मैंने प्रयत्न किए हैं बहुत
होना चाहा है सफल
अतल में धँसता गया हूँ
हर बार
पार किए हैं
कितने ही पत्थर
निडर होकर
पर
अब डरता हूँ
सब खोने से
अपने ऐसा होने से।
समाज को विलोम पसंद नहीं
मरघट का डोम मैं हो नहीं पाता।
स्वभावतः टूट जाएँ यदि स्वप्न
दफ़्न हो जाएँ
अनुकूल बहने लगें धाराएँ
शिलाएँ स्वतः हट जाएँगी।
सिर्फ़
एक ने
जाना है कि
मैं कर्मों से स्खलित नहीं।
स्थगित हैं अब सारे काम—
कविताएँ पढ़ना
प्रकृति से मिलना
कई पुस्तकों से
धूल झाड़ना
और जीवन से भी।
मैं छोड़ सकता था
प्रेम करना भी
पर
यह जाता ही नहीं
आता नहीं वैराग्य।
किसी अमूर्त आधार ने
अब तक
बचा रखा है
हृदय ने पचा रखी है करुणा।
एक घुटना टूट गया है
स्थिर हूँ फिर भी
शिथिल नहीं।
बस लगता है
कि
कल्पना क्षीण हो चुकी है
बिम्ब अब बनते नहीं
और
पीड़ा की नीरवता
वहन नहीं होती।
सहन नहीं होती
वाणी की उष्णता
जल चुकी हैं आकांक्षाएँ
नग्नता फिर भी छिपाता
फिरता हूँ
बिखरता हूँ
कुछ विकल्पों में
सबके लिए।
जयंत शुक्ल [जन्म : 2004] नई पीढ़ी के कवि हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह झाँसी से हैं और काशी हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद वर्तमान में डीएवीपीजी कॉलेज [वाराणसी] से हिंदी में परास्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं। उनसे jay497shukla@gmail.com पर संवाद संभव है।