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ख़ुर्शीद अकरम

ख़ुर्शीद अकरम

मिलिए वासुकी इंडिकस1गुजरात में दुनिया के सबसे बड़े साँप Vasuki Indicus का फ़ॉसिल मिला है। से

अपने गुजरात ही का है
वासुकी इंडिकस
दुनिया का सबसे बड़ा
लाखों साल पुराना
साँप है तो क्या?
पूर्वज है हमारा

तब हम इंसान नहीं हुए थे
होंगे भी तो मेंढक जैसे
(साँप का पसंदीदा निवाला )
तब शेर भी नहीं थे
होंगे तो चूहे जैसे
(साँप के मनभाते खाजा)
वासुकि एक दिन नहीं रहा
उसकी साँप-आत्मा
उसका विशाल शरीर छोड़ गई

आत्मा कभी मरती है क्या?
मरती नहीं
जून बदलती रहती है आत्मा
आज भी
ज़िंदा है साँप-आत्मा
आत्मा को शरीर चाहिए अपने भार का
और वह मिल गया
वहीं आस-पास
गुजरात में
इस बार ख़बीस आत्मा को मिला
मानव सरीखे दानव का शरीर

अब गर्व करो
अपने गुजराती पूर्वज पर
…कि डर करो!

…कोमा में

बाहर हवा गर्म थी
मैं निकलता तो झुलस जाता
तो मैं क्या करता
सफ़ेद चादर बिछाई
और सो गया

सोए हुए आदमी की कोई आवाज़ नहीं होती
सोया हुआ आदमी सोच सकता है वही
जो सपने में आए
मैं सपने में चला गया
बग़ैर किसी कोशिश के
वहाँ से चला गया कोमा में
बिना किसी सवारी के

उधर में सरोद सुनता हूँ सर धुनता हूँ
शे’र पढ़ता हूँ वाह करता हूँ
अज़ान होती है सिजदे करता हूँ

मुझे जगाओ नहीं
नींद नहीं …मैं कोमा में हूँ!

यह जानकर जीना…

कितना शानदार है इस यक़ीन के साथ जीना
कि कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है
तुम पेड़ की छाँव में सो सकते हो
और भूनकर कुछ भी खा सकते हो
भुट्टा हो या बकरा
दिल चाहे तो गा सकते हो
ब्रह-गीत अपनी धुन में
या आल्हा-ऊदल लहक लहक कर
शहद लाने जंगल जा सकते हो
या गहने बनवाने शहर में
या हीरा निकालने पाताल मे

…कि कोई तुम्हें गाली नहीं देगा
तुम आश्वस्त हो
पिछवाड़े जो निशानाबाज़ी की मश्क़ हो रही है
वह तुम्हारे लिए नहीं
तुम कहीं भी घर बना सकते हो
और पड़ोसी तुमसे मुस्कुराकर ही मिलेंगे
तुम्हें इत्मीनान है कि यह वर्दी वाला
तुम्हारा मुहाफ़िज़ है
तुम निश्चिंत हो कि तुम्हारा बच्चा स्कूल जाएगा
और मास्टर के हुकुम पर
अपने साथी बच्चों से पिटवाया नहीं जाएगा
तुम मुतमइन कि कोई तुमसे सबूत नहीं माँगेगा
तुम्हारे वजूद का
किसी को तुम्हें कुछ यक़ीन नहीं दिलाना पड़ेगा
जबरन कुछ गाना नहीं पड़ेगा

…कि कोई तुम्हारा दुश्मन है
कितना कठिन है यह जानकर जीना

तुम सो नहीं सकते दोनों आँखें बंद करके
तुम अपनी पसंद का खाना नहीं खा सकते
कहीं भी तुम्हें गाली दी जा सकती है
बसने से पहले देखते हो महफ़ूज़ मुहल्ला
तुम्हें डर लगा हुआ है
पिछवाड़े वाली मश्क़ से
बच्चे को स्कूल भेजते डर रहे हो
डर रहे हो
कि बेटा डिग्री लेकर निकले
और सीधा जेल न भेज दिया जाए
डर रहे हो अपनी ज़मीन देखकर
कि अगला क़दम कहीं
बारूदी सुरंग पर न पड़ जाए
डर रहे हो
डॉक्टर को नींद न आने की सही वजह बताने से
डर रहे हो कि कभी भी कह दिया जाएगा
दिखाओ काग़ज़
डर रहे हो ‘डरोना-वायरस’ से
कौन कितना संक्रमित है नहीं पता
किससे हाथ मिलाना साँसें दूभर कर देगा
और किसके मुँह का वायरस घातक साबित होगा

घड़ी की टिक-टिक डर है
बिल्ली की म्याऊँ डर है
इंसानी आवाज़ें डर है
हल, कुदाल, दराँती डर है
मालिक डर है, चाकर डर है

अज़ाब है जीना
…कि (बे-कारण)
कोई तुम्हारा दुश्मन है!

डर लगता है

डर लगता है
रंग से
हरे केसरिया रंग से
टीका-क़श्क़ा से
दाढ़ी-टोपी से

डर लगता है राम नाम से
अल्लाह-ओ-अकबर से

हमारा डर बहुत गहरा गया है।

लड़ना साथी

लड़ना ज़रूरी है साथी
हथियारों की लड़ाई हथियार से
विचारों की विचार से
पर आग की लड़ाई आग से नहीं
आग जब बेक़ाबू हो जाए
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम
चारों दिशाओं में फैल जाए
लड़ना होगा तब भी साथी…
…मगर आग से नहीं
आग की लड़ाई पानी से
लड़ना साथी…।

औरत नई है

रात है…
रौशनी कहीं है
कहीं नईं है
पार्क में

सैर करता आदमी
बार-बार गुज़रता है
रौशनी के हाले से
अँधेरे के पाले से

एक औरत आती है
ट्रैक-सूट पहने
…जैसे मर्द
मगर वह उल्टा चक्कर लेती है

चलते जाते हैं दोनों
और… आमना-सामना होता है
…उजाले में
मर्द ठिठक जाता है
औरत… गुज़र जाती है

…फिर अँधेरे में
मर्द सरक जाता है किनारे
औरत…

अगले उजाले से पहले मर्द
रास्ता बदल लेता है
(औरत अपने रास्ते चलती है)
अँधेरे से पहले
ख़ुद ही बदल जाता है
मर्द के चक्कर का रास्ता

फिर एक और औरत…

अँधेरे और उजाले से बचते कटते चक्कर
बार-बार बदलाव
बार-बार भटकता रस्ता
बार-बार ठिठकता रस्ता
बार-बार कटता रस्ता
इस छोटे से पार्क में
एक आदमी का

औरत नई है
मर्द नईं है!

अकेली औरत सड़क पर

ख़ूबसूरत हूँ तो क्या
मुझे देख लो
ख़ाली आँख से
जैसे रोड़े को
जंगले को देखते हो
या भरी निगाह से
जैसे फूल को देखते हो
जैसे चाँद को देखते हो
जैसे शाम के आसमान को देखते हो
जैसे आलीशान मकान को
चमकती कार को देखते हो

मैं भी तो देख लेती हूँ तुम्हें
हरे पेड़ की तरह
फैली धूप की तरह
ग़ुब्बारे की तरह

गेंद की तरह
कलाई-घड़ी की तरह

मैं देखती हूँ तुम्हें
कभी हल्की कभी गहरी नज़र से
इज़्ज़त से
ईर्ष्या से
इंसान की तरह
इंसान के रूप में

—तो अपने नाख़ून न खोलो
—तो अपने दाँत न दिखाओ
—तो भालू न बन जाओ

सिर ऊपर किए
दोनों पैरों पर चलकर
बस सामने से गुज़र जाओ…


ख़ुर्शीद अकरम मूल रूप से उर्दू में लिखते हैं, लेकिन हिंदी साहित्य से गहरा जुड़ाव रखते हैं। वह उर्दू और हिंदी कविता को एक दूसरे के क़रीब लाने के लिए प्रयत्नशील हैं। दो कहानी-संग्रह, कविता और आलोचना के एक-एक संग्रह और अनुवाद सहित लगभग उनकी दस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। समसामयिक हिंदी कविताओं का एक चयन उन्होंने उर्दू में प्रकाशित किया है तथा उनकी कई कहानियाँ उर्दू, अँग्रेज़ी और दीगर ज़बानों के एंथोलॉजी में शामिल हैं। वह ‘आजकल’ (उर्दू) के संपादक रहे हैं। उनसे akramkhurshid1@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. सुमित त्रिपाठी जून 11, 2024 at 4:56 पूर्वाह्न

    अच्छी कविताएँ हैं।

    Reply

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