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प्रतीक ओझा

प्रतीक ओझा

मुमुक्षा

मुमुक्षा—
घटने की तरह नहीं घटित हो रही
मौन की सीमा से कर रही है प्रवेश
—भीतर—
विकल्पहीनता का अनुनाद करती हुई।

विकल्पहीनता इतनी कि
जीने की इच्छा कम
मुमुक्षा ज़्यादा।

फिर भी एक गुड़हल है
जिसका खिलना बाक़ी है
अभी तक ताल में पानी नहीं आया
जामुन कच्चा है अभी
दरवाज़ा अब भी ठीक से बंद नहीं होता
गौखे में डिब्बी की सुरती है कम
गाय अभी नहीं बियाई है
पिल्लों का बड़ा होना बाक़ी है
बचा है अभी घर का प्लास्टर
छत अब भी रिसती है
और भी बहुत काम हैं जो बाक़ी हैं
और छूट जाएँगे!

ये सब अचानक याद आएगा—
तुम्हें देखने के बाद…

तुम्हें देखने के बाद एक बार पुनः लपकेगी जिजीविषा अँधेरे से बाहर होने के लिए।

मैं तमाम इच्छाओं से पुनः घिरूँगा एक बार थमेगा पल भर का प्रकाश लुपलुपाते हुए चटक होगी उसकी लालिमा धीमा होता जाएगा विकल्पहीनता का अनुनाद और कंपनरहित होगा यह मन—देने के लिए तुम्हें आवाज़… भरी हुई आँख से।

भरी हुई आँख से तुम्हें देखना
मुमुक्षु को जिजीविषु बनाता है
पर जाते हुए देखना
जिजीविषु के लिए भी प्राणघातक है।

तुम्हें जाने-जाने को देखकर निकली हुई आवाज़
प्रयासों की कई प्रक्रियाओं के बीच मूक रहेगी
मूक ही रह जाएगा उसका निकलना
निरर्थ इतना कि तुम्हारे कानों की प्रतिच्छाया भी
उसकी पहुँच से रहेगी दूर
दूर रह जाएगा प्रयास…

भीतर सूना
बहुत सूना होगा
जीवन का दुःख नहीं भर पाएगा जिसे
सुख भी नहीं
उसे तो मुमुक्षा ही भरेगी
एक सितार से जन्मे राग की तरह… श्रुतिहीन!

श्रुतिहीन ही आँखों की नमी सूखेगी
साँस कुछ कड़ी होगी
कठिनतम होगी पीड़ा
रगों में कम होने लगेगा रक्त
सिकुड़ने लग जाएगा गले का ताल
हड्डियाँ चटक-चटक बोलेंगी
आधी रात लुकलुकाएगा उल्लू
और क्षण भर के लिए
तीव्रतम हो उठेगी जिजीविषा—
ठीक तुम्हारी आँख के पीछे

और एक दिन मेरी आँख पर टिकी
तुम्हारी आँख देख नहीं पाएगी उसे
जो श्रुतिहीन हो
हमारे मरण की तैयारी में है।

इच्छा के न होने पर

मन डूब रहा है

गंध की पहली प्रकृति कर रही है प्रवेश हवा और दृश्य के लयताल में आवृत्ति बनाती हुई लयताल में तल्लीन मन के भीतर कोई चिड़िया बैठी है एक उँगली दौड़ रही है भीतर नीचे से ऊपर जिससे काटी जा रही भारी इच्छा की घास और मैं देख रहा हूँ कटते हुए उसे इस नम आँख से!

दुःख है कि कट रहा है वह
जिसे सबसे अधिक प्राथमिक रखा
देता रहा पानी
उगाता रहा जिसे

पर अब कुछ नहीं है मेरे पास
जिससे कोई इच्छा उपजे
मृत्यु भी नहीं
अगर वह एक इच्छा हो तो…

वह सब नष्ट हो गया जिसे होना था
उसके होने पर

अब एक उबासी है
दिन है बीतता हुआ
बिस्तर है जिस पर लेटा हूँ दिन भर
जी रहा जीने सहित किसी भी इच्छा से रहित

तुम भी ऐसे ही होगे जब तुम्हारी मृत्यु होगी या चले जाओगे कहीं तो इच्छाएँ नष्ट हो जाएँगी तुम्हारे साथ मुझसे लगी हुई

इच्छाओं के न रहने पर आदमी मर जाता है
आदमी के मरने पर उससे लगी इच्छाएँ मर जाती हैं
दोनों में से कोई भी क्रिया हो
आदमी की मृत्यु तय ही है

मैं भी मर गया हूँ शायद
मेरे साथ लगी तमाम इच्छाएँ मर गई हैं

मृत्यु के बाद की शांति लिए
अकेले या दुकेले रहने से दूर
कुछ भी रह जाने के साथ ज़िंदा
इच्छा के न होने पर।

पार्थिव मन के लिए

पतले मन की डंठल से बँधी रेशम की डोर पानी की सतह पर अपने डूबने को जोह रही मुझसे दूर आधी डूबी आधी विचारमय बच नहीं पाएगी वह चीनी के टुकड़े भर का वज़्न तो आ ही जाएगा उस पर धीरे-धीरे घुसकर फूट जाएगा नाक में पानी का सोता तेज़ी से घुसेगा मुँह में श्वास के लिए करना चाहेगी जब वह मुँह ऊपर नीचे ही जाएगी दबती घुटती जाएगी निकलने लगेगा बुलबुला नहीं काम आएगा कोई प्रतिरोध सब कुछ व्यर्थ चला जाएगा मृत्यु से पहले एक अंतिम बार जीवन के लिए छटपटाना भी।

कुछ नहीं बचेगा
सिवा डूबने के।

संकटमय संभव के उस आख़िरी क्षण पश्चात डूबी मिलेगी वह जीवन को अधूरा छोड़ निकल जाएगी कहीं यहाँ से कहीं दूर हो जाएगी मुक्त।

अ-मुक्त रहूँगा तो सिर्फ़ मैं याचना की अनगिन पुकारें लिए मुक्ति की आस में बैठा पीड़ित और अभिलाषित।

अपने मन से अ-युग्मित मैं मन के साथ कहाँ जा पाया नहीं हो पाया मुक्त पर जब होऊँगा तब अपनी छाया लिए कहाँ ढूँढ़ूँगा उसे किस ताल में तैरूँगा किस नदी में मारूँगा डुबकी समुद्र के कौन से तट पर खोजूँगा लहरों की बूँद के किस हिस्से में पाऊँगा अपना वह पार्थिव मन और कब होऊँगा सती उसे लेकर…


प्रतीक ओझा की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व-प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखिए : दुनिया में सबसे आसान होता है घर लौटना | दो रास्तों के बीच

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