कविताएँ ::
प्रीति चौधरी

प्रीति चौधरी

पुराने प्रेमी

प्रेम की दुनिया अक्सर रही है परे शब्दों से
गणित और भौतिकी के नियम भी लग पाते तो सब माप लेते
किस वाले प्रेमी की आँखों में
हमेशा छलकता था प्यार
छटाँक भर ही सही पर पति से बेशक ज़्यादा
सचमुच प्रेम का कोई रसायनिक सूत्र सुनिश्चित होता तो
मैं बता देती
कि अपनी किस साथी सहकर्मी को देखकर
मेरे पति के मन में बहने लगती है अदृश्य सरस्वती
जो सिर्फ़ मुझे दिखती है
देखा जाए तो
शादी की पच्चीसवीं सालगिरह का उत्सव अधूरा होगा
प्रेमियों के बिना
वो जो मुझे पति के साथ सुखी देख
बहुत ख़ुश होंगे
पति से मिलाएँगे हाथ गर्मजोशी से
मुझे भी देंगे बधाई भरकर आँखों में थोड़ी कसक
वे सारे
कुछ नामचीन
कुछ बेहद कामयाब
कुछ शक्तिकेंद्रों के सिरमौर
कुछ ज़माने की भीड़ में गुमनाम
मेरी सारी नाकामियों के बीच
मुझ कहते हैं कामयाब

प्रेमी सबसे बेहतर जानते हैं कि कितना
डूबकर प्रेम किया मैंने पति को
जब मैं प्रेम में नहीं थी किसी के
तब भी उन्होंने प्रेम किया मुझसे
जब मैं डूबी एक लड़के के प्रेम में आकंठ
उन्होंने नहीं की मुझसे घृणा
किसी ने गहरे संताप से मुँह ज़रूर मोड़ा
पर नहीं दी कोई बद्दुआ

ये मेरे प्रेमी ही थे!
जिनकी पुरानी चिट्ठियों ने याद दिलाए मेरे करतब
ये मेरे प्रेमियों की करतल ध्वनि थी
जिसे पहचानता था विश्वविद्यालय का सभागार
ये प्रेमियों की स्मृतियाँ थीं
जिन्होंने दाम्पत्य के विष बुझे शब्दों पर लगाए मरहम

बैरंग छुड़ाए गए प्रेमपत्रों ने धैर्य दिया
पति की प्रेमिकाओं को सहने का
तीस साल पहले प्रेमपत्र लिखने वाले लड़कों
तुममें से कई नहीं हैं ‘फ़ेसबुक’ पर
न ही ‘एक्स’ पर मिले तुम
ओ भले मनुष्यो,
विवाहेतर संबंधों औेर कैजुअल सेक्स की
इस बजबजाती दुनिया में
सिर्फ़ प्रेम करना किसी को
और बदले में कुछ भी ना चाहना
बीते दशकों का स्वर्णिम समाजशास्त्र है।

भारतीय अज्ञान परंपरा

अधिकतर घायल, बीमार और मेडिकल पर थे
विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर अब मुश्किल से ही बचे थे
सबकी स्पाइन पर हुआ था भयंकर हमला
वे लिख रहे थे दरख़्वास्त लगातार
कर रहे थे माँग कमरों में आरामदायक कुर्सियों की
ऐसी कुर्सियाँ जो दे सकें सहारा उनकी चोटिल रीढ़ को
वे कक्षाओं में नहीं दिखते थे
विद्यार्थियों से वे मिलते तो
सिर्फ़ तस्वीरें खिंचवाने के लिए
प्रोफ़ेसरों में आज्ञाकारी बनने की थी भीषण प्रतिस्पर्धा
कुछ ने कठिन तपस्या कर होमो सैपियंस की ग़ायब दुम भी उगा ली थी
वे हर समय टैग करने की धुन में रहते
प्रधानमंत्री, शिक्षामंत्री, यूजीसी अध्यक्ष, कुलाधिपति, कुलपति,
कुलपति की पत्नी, कुलपति के ओएसडी, कुलपति के ड्राइवर आदि को
पोस्ट टैग करने में अक्सर निकल जाता उनकी कक्षाओं का समय
कक्षाओं के बाद और पहले
देर रात और अलस्सुबह लिखते थे वे प्रोजेक्ट्स
सरकारी योजनाओं के अप्रतिम प्रभाव
और उनकी शानदार सफलता को
बयान कर सकने वाले अध्ययन-प्रस्ताव…
सीमाएँ, चुनौतियाँ, समस्या, आलोचनात्मक विश्लेषण जैसे शब्द
अपनी प्रासंगिकता खो वैश्विक अज्ञान परंपरा में शामिल हो चुके थे।

शहर की याद

नहीं याद आती पुराने शहर की
अब तो कई बार कहने का मन भी नहीं करता
कि मेरा था वो शहर

कोई शहर क्या सिर्फ़ इसलिए
आपका हो सकता है कि
प्रमाण-पत्रों में पैदाइश के ज़िले के रूप में
दर्ज है वह

आप करें याद और भर जाएँ गर्व से
कि आपका ज़िला है ख़ास
आज़ाद हो गया जो सन बयालीस में पूरे दस दिनों के लिए
यूनियन जैक को उतार फेंका जिसने भारत छोड़ो आंदोलन में

लेकिन स्त्रियाँ उस शहर में उस दिन भी थीं ग़ुलाम
आज भी स्त्रियों की आज़ादी उसी नहीं
देश के किसी भी शहर में नहीं है महफ़ूज़
आँकड़े बताते हैं राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के
हर सोलहवें मिनट पर होता है एक स्त्री पर घात
मेरे शहर की यादों में नज़र आते हैं
बालिका इंटर कॉलेज की छुट्टी के समय
सड़क घेरे खड़े शोहदों के झुंड
ददरी मेला में चादर, बर्तन, साड़ी ख़रीदती औरतों को
भीड़ में छूने के लिए घूमते मवाली
कॉलेजों में सालों-साल क्लास न लेने वाले
घरों में ट्यूशन देते बाग़ी शहर के वे गणित और भौतिकी के लेक्चरर्स
पड़ोसियों के घरों में झाँकते रहने की आदत के शिकार वे प्राचीन मोहल्ले
एक प्रबुद्ध अध्यापक को बौड़म घोषित कर देने वाला मेरा वो ज़ालिम शहर
तमाम शहरवासियों के उकसाने पर भी जिसने सुनी नहीं उनकी बात
नहीं दी सुपाड़ी उसने पत्नी के प्रेमी को मारने की
पत्नी को नहीं लगाया कोई थप्पड़
सवर्ण होते हुए भी हुआ वो मंडल समर्थक
नहीं कहा उसने वीपी सिंह को कमीना
नहीं दी उसने गाली मुलायम और लालू को
उस महान् ऐतिहासिक शहर में भी होती रहीं
सड़क, तार, पार्क, कॉलोनी बनाने के पैसे में बंदरबाँट
हर गली में उगे थे भाँति-भाँति के ठेकेदार
ग्रासरूट डेमोक्रेसी के ये स्वयंभू सेवादार
विकास की चेतना पहुँची थी सचमुच सबके द्वार

प्रधानी में रेट फ़िक्स था पाँच हज़ार प्रति सदस्य परिवार
विधायकी में दो हज़ार पर बनी थी पिछले चुनावों में बात

आप बताइए कैसे करूँ मैं अपने शहर पर अभिमान!

विरोधनी

हर साल विरोधनी जाती करने गंगा-स्नान
साथ में लेकर लकड़ी, नून, सतुवा पिसान
कुंभ में बन जाती गाँव की नेता
करती वो लोगों का जुटान
घर-घर गाँव में जाकर सबके करती संझा से भिनसार
बीस-तीस का समूह बनाती हो जाता पैसों का जुगाड़
ग्राम-प्रधान के पास पहुँचकर बतलाती वो अपना काम
बाबू सबका टिकट करवाओ हमको तुमसे यही है काज
नाली, खड़ंजा बाद में होगा पहले भेजो प्रयागराज
विरोधनी का नाम रहा होगा विनोदिनी
इसमें नहीं है कोई शक आज
हँसी-मज़ाक़ करते-करते निपटाए उसने सारे काम
एक बार की बात है सुनाते हम उसको हैं आज
विरोधनी काट रही थी लेहना नदी पार बाँध के पास
सामने से आते दिखे थे उसे गाँव के सुंदर दामाद
विरोधनी ने दी आवाज़—बाबू ज़रा आओ हमारे पास
लेहना का बोझा है ज़रा भारी लगा दो इस पर अपने हाथ
कपार पर रखवा दो बोझा मैं भी चल दूँ अपने गाँव
पाहुन झुके लेहना पर जैसे विरोधनी चीख़ी बाप रे बाप
अरे दऊड़िह ल ऐ लोग हमार त इज़्ज़त गईल आज
(अरे दौड़ो लोगों मेरी इज़्ज़त गई आज)
दामाद बीचारा बोझा पटककर थर-थर काँप हुआ अवाक्
विरोधनी ने बजाकर ताली हँसते हुए किया ऐलान
हमारे गाँव में दामाद के ऐसे ही स्वागत का है रिवाज

यही विरोधनी कुंभ नहाने गाते-बजाते निकली प्रयागराज
बारह घंटे बीत गए पर नहीं आया था स्टेशन प्रयागराज
धुँधलके में रात के कहीं रुकी थी देर से ट्रेन
महिला तीर्थयात्री बैठे-बैठे थक हुईं बेचैन

बाहर से किसी ने बतलाया उनको
आउटर पर रुकी है अब खड़ी रहेगी यहीं ये ट्रेन
उतरकर पैदल निकल पड़ो, न करो अब स्टेशन का फेर
नाक की सीध में चलती रहकर पहुँच जाओगी संगम तीर
चलते-चलते थकी स्त्रियाँ पास नहीं था कोई तीर

रास्ते में आश्रम एक आया पहुँची वे साधु के पास
गोंड़ लगाई की बाबा की, पूछा कहाँ है संगम घाट
बच्चा तुम सब हो उलटे रास्ते, इधर नहीं है कोई घाट
चलो सुस्ताओ भीतर चलकर सुबह पहुँचना संगम घाट
जब आश्रम के अंदर पहुँची महिलाएँ सबको आया बड़ा आनंद
बड़े से हॉल में सोने का उनके लिए हुआ इंतज़ाम
चिलम की तलब लगी विरोधनी को निकली धीमे नंगे पाँव
आँगन पार रसोई में पहुँची जहाँ पड़ी थी चूल्हे की आग
एक अंगारा भर कर चिलम में चल जाएगा अपना काम
लौटने को हुई ही थी कि छत से आई कोई आवाज़
संतरे रंग की साड़ी वाली सुनकर खड़े हो गए उसके कान
साँस रोक सीढ़ी पर बैठी सुनाई दी फिर उसको पूरी बात
छत पर इकट्ठे चार-पाँच साधु कर रहे थे उनकी बात
संतरे रंग की साड़ी वाली मेरी मैं सोऊँगा उसके साथ
हाय पुए जैसे गाल छूने को मिलेंगे आज सालों बाद
चिलम छोड़कर सीढ़ी पर विरोधनी भागी उलटे पाँव
अरे सुन स मेहरारू फँस गइल बानी जा हमनी के आज की रात
धीरे-धीरे पीछे से निकलो भागो सब बचाओ अपनी जान
एक-एक करके सब वे भागीं पहुँची एक भेड़िहार के पास
भइया पड़े हैं मुसीबत में बचा लो तुम आज हमारी जान
भेड़िहार ने ढका भेड बकरियों से बिछाए उन पर बोरे चार
बकरी की लेड़ी सहती रहना बचानी है गर अपनी जान
साधु नहीं वे हैं ग़ुंडे पीछे आएँगे लेकर हथियार
बात सही थी भेड़िहार की आए वे लेते सीत्कार
अच्छा असबाब लगा था हाथ, चरवाहे क्या देगा तू साथ
देखा है तो राह बता दे चखेगा तू भी अनार का स्वाद
भेड़िहार ने जोड़े हाथ कहा जय हो भोला नाथ
स्त्री तो बड़ी दूर की बात है हफ़्ते भर से दिखा नहीं कोई श्वान

प्रयागराज में थे भगवान महिलाओं ने मान लिया
भेड़िहार के रूप में दिए थे दरसन उन सबने ये जान लिया
सूरज की पहली किरण पर भेड़िहार आया बोला उनसे
हटाता मैं अपनी भेड़-बकरियाँ निकलो जल्दी यहाँ से खिसको
बाएँ मुड़कर कोस तीन जाओ फिर धीरे से दक्खिन हो जाओ
वहाँ मिलेगी तुमको झूँसी, होगी पास ही एक पुलिस चौकी
जो धारा मिले वहीं नहाओ, गंगा-यमुना का फ़र्क़ मिटाओ
जाओ बहनो, जल्दी घर जाओ; ये घटना किसी को न बताओ
बदनामी होगी तीर्थराज की श्रद्धा घटेगी माँ-बहनों की
विरोधनी लौटी लेके टोली क़सम चढ़ाकर सबसे बोली
किसी को नहीं है बतानी स्टेशन से पहले आउटर पर उतरने की कहानी
छोटी-सी है ज़िंदगानी उसमें हुई बेवक़ूफ़ियाँ सबको क्या सुनानी

रिटायरमेंट

अवकाश-प्राप्ति के बाद खुल गए हैं उनके ज्ञानचक्षु
बरसों से दृष्टि और आत्मा के गह्वर में दबा विवेक आ गया है बाहर
बहादुरी, निष्पक्षता, मंत्रियों और विधायकों की न सुनने के क़िस्से
आए दिन वह लिखते हैं व्हाट्सएप पर
ज़िंदगी भर दबाकर कमाया
नामालूम कहाँ-कहाँ पैसा लगाया
जब तक नौकरी में रहे
मन, वचन और कर्म से सरकार को ख़ूब धोया-पोंछा
रिटायर होते ही ईमान को लॉकर से निकाल लाए हैं
बात-बात पर कनिष्ठों को ईमानदारी के लेक्चर पिलाते हैं।

इलाहाबादी गाली

धौलपुर हाउस के दरवाज़े पर खड़े कुछ लड़के
जेएनयू और इलाहाबाद के दिलवाने आए थे
अपने दोस्त को
लोकसेवा-परीक्षा का साक्षात्कार

पहले दो प्रयासों में कुछ अंकों से चूक गए दोस्त को
जेएनयू के दोस्तों ने बोला ऑल द बेस्ट

इलाहाबादियों ने कहा
जा राजा झार के
बहुत दिया यूपीएससी को
इस बार यूपीएससी की ले लीजिए
लड़का आईएएस बन गया बस उसी साल।


प्रीति चौधरी की कविताएँ और कुछ आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। बुंदेलखंड में क़र्ज़ के बोझ से आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार की महिलाओं को राहत पहुँचाने के उनके कार्यों की प्रशंसा हुई है। उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से प्राप्त की है। वह अंतरराष्ट्रीय राजनीति, राजनय, भारतीय विदेश नीति, लोक नीति और महिला अध्ययन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनसे preetychoudhari2009@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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