कविताएँ ::
सपना भट्ट
संभावना
कंठ में फाँस-सी
अटकी रही वह ऋतु
जिसे रो कर नहीं
गा कर बिताना चाहती थी।
मेरे पुरखे ऐसी ही किसी
चिर अतृप्त प्यास से
तड़प कर मिटे होंगे
जिसका कोई तर्पण नहीं।
मैंने भी तो रीते-ख़ाली बर्तनों में
झाँक कर काटा यह कठोर ग्रीष्म।
प्यास लगी तो
सूखे सोतों से ओक भर पानी माँगा।
ईश्वर ने भूख सौंपी तो
बुझे चूल्हों के आगे हाथ पसार दिए।
हरे बुग्यालों में गाय बकरियाँ चराते
नन्हे गोलमटोल भोटिया और संथाल
बच्चों की बाँसुरी से डाह किया।
कई जगहों से टूटी आवाज़ के टुकड़ों को
रात दिन रफ़ू किया
कि तुझे पुकार सकूँ।
तेरे ओसारे में उतार कर तहा दिया
यह भारी भरकम मर्यादा का लिबास।
निबाह न हुआ तो
धर्म को भी सदा के लिए
उसी का यज्ञोपवीत पहना कर विदा किया।
आत्मा की उधड़ती सीवन को अनदेखा किया।
एक तेरी झीनी चाह पहन कर
देह की लाज बिसराई।
दर-दर भटकती रही
नंगे सर
नंगे पैर
तुझसे कुछ भी चाहे बग़ैर।
सुन!
मैं अगर यह स्त्री देह न धरती
तो बुद्ध हो गई होती।
संकोच
बरसों बाद हँसूँगी
प्रबल उत्ताप से भरी
इन कविताओं के आकुल सन्निपात पर।
जीर्ण आत्मा तब भी बरजेगी
निस्संग ठहरी हुई साँस को
कुम्हलाए हृदय की थिर होती धड़कन को।
विस्मय से भरी याद करूँगी
कैसे ठिठुराती बर्फ़ीली शीत में बैठी रही
ठंडे पानी की धार में घंटों
उसके काँपते हाथ की पसीजती स्मृति लिए हुए।
सोचूँगी हैरानी से
कि कैसे भूखे रह कर बिसराया
अंतड़ियों की मरोड़ को।
जिह्वा पर स्वाद नहीं
अलभ्य चुम्बन की वर्जित चाह का संकोच रखा।
समझाऊँगी समवयस्कों को कि
प्रौढ़ होकर प्रेम में पड़ना निरी मुसीबत है
इससे बचना चाहिए।
किसी गहरे रिसते घाव की स्मृति से
टीसती रहेगी आत्मा तब भी
तब भी किसी हारे टूटे प्रेमी सरीखा
लौटा करेगा पतझर हर बरस जीवन में
झरी चम्पा की पंखुड़ियों से
याद आएगा
वसंत में भोगा अछूता अप्राप्य प्रणय।
याद की सुनसान खिड़की से देखूँगी
बीती उम्र के अधूरे इंदराज
असंभव कौतुक की तरह।
मन ही मन में दोहराऊँगी
इस हठीले प्यार की असंभव यात्रा को
और सर पर एक चपत लगाकर हँस दूँगी।
विमर्शों से बेदख़ल कविता
वे नैतिक मूल्यों पर बात करते थे
वैश्विक मंचों पर कविता की समझ
और विचार पर व्याख्यान देते थे
इधर मेरी कविताओं की कृतघ्नता
उनकी साहित्यिक आलोचनाओं में न समाती थी
वे कविताएँ जहाँ प्यार का दुःख
निजी क्षतियों की तरह छाती में पिराता हुआ
ठेठ गँवई दूधबोली में लरजता था
वह दुःख जो
परिष्कृत सिद्ध उक्तियों में नहीं
चूके हुए कथ्यों में सिसकता था
प्रयोगों, अन्वेषणों की थकाऊ क़वायद में
गद्य-सा सपाट होकर
समकालीन धारा के पीछे
सिर झुकाए चलते-चलते
मेरी कच्ची पक्की कविताओं में आकर ठहर गया था
ये कविताएँ रुलाई रोकने की
तमाम असफल कोशिशों के बावजूद
बेतरह रो पड़ती थी
सब एक जाति की थीं
एक जैसी माँ की कोख से जनी हुई
एक-सा दुःख कहती थीं
सो एक-सी लगती थीं
ये कविताएँ
उनकी अलिखित नियमावली के
घोषित ख़ाकों में कहीं समाती न थीं
उनके लिए
प्रेम के दुखों को कहती कविताएँ
सामाजिक चिंताओं के हस्तक्षेप से
बेदख़ल कोई चीज़ थीं
बक़ौल उनके
साहित्य में इस तरह के दुःख
कुकुरमुत्तों जैसे उग आए थे
उनका यह भी कहना था कि
यह दुःख ज़रूरी वनस्पतियों के
आरक्षित अरण्य में
गाजर घास की तरह अनुपयोगी होकर भी
बेवजह ही जगह घेर रहा था
उन्हें यह भी भय था कि
ये कुकुरमुत्ते-सा दुःख
उनकी तथाकथित क्रांति पर
जिद्दी फफूँद की तरह न चिपक जाए
शायद प्रेम उनके भी चूके
लड़खड़ाए जीवन में
चुके हुए अवसर की तरह आया था
लिहाज़ा अंतर्विरोध के मारे पंडित
प्रेम को गल्प कहते थे
और खिसिया कर प्रेम कविताओं को
अपने तयशुदा राजनैतिक विमर्शों से बाहर कर देते थे
अफ़सोस!
प्रेम के दुःख को
अपनी आत्मा से बाहर करने की क़ुव्वत
उनमें नहीं थी…
सपना भट्ट हिंदी की सुपरिचित कवयित्री हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘चुप्पियों में आलाप’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : रोने के लिए जगहें कहीं नहीं थीं
सपना भट्ट की कविताएँ शानदार हैंl पिछली बार की कविताएँ पढ़ीं, इस बार भी और अन्यत्र भीl बहुत शुभकामनाएँl
तीनों ही बहुत अच्छी कविताएँ है। अलग-अलग जॉनर की और मुख़्तलिफ़ ज़ायके की, लेकिन अपने प्रभाव में बहुत इंटेस और मारक। सपना भट्ट के पास बिंबों का इतना विरल और अद्भुत लोक है कि पाठक का चकित हो जाना अब ख़ास चकित नहीं करता। दूसरी कविता में यह जादुई लोक अपने उरूज़ पर एक दफ़ा फिर से दिख रहा है। पहली कविता का सूफियानापन बरबस पंजाबी पीएट्री की याद दिलाता है। और, तीसरी कविता में जो सवाल पूछे गए हैं, वे किसी भी रचनात्मक इंसान के क्रिएटिव डाइमेशन्स की तस्दीक़ हैं। ज़ाहिर है, सपना ने अपनेआप को एक्प्लोर करते रहने की यह मेहनत जारी रखी है। मुबारक हो कवि ! ज़ोर-ए-कलम ज़िंदा रहे।
सपना की कविताएं बहुत भीतरी संवाद की तरह हैं वह दुनिया के ऊसर से नालिश के साथ टकरा रही हैं।
इन दिनों सबसे अधिक चोटें जहां नुमाया हैं वह है प्रेम जो जब भी जनमेगा अछूता जनमेगा।उस पवित्रता को रच दे रही हैं ये।इन पर जब भी बात हो उन अंतरालों को भी समझ कर हो जिसमें हमारी पुरखिनों की रुह में रुकी उदासी है।
is Website par pehli baar aya hu. lekin ek k baad ek karke 7-8 kavitaye padh li hain. Bahut achhi website hai. ise maine bookmark kr liya hai.
सच में बहुत दिनों बाद अच्छी कविताएं