कविताएँ ::
शिवम तोमर
अशोक
कितने अशोक के पेड़ हैं
आँगन में क्रम से खड़े हुए
कितने छोटे से थे
जब पिता ने इन्हें यहाँ लगाया था
इनके चमकीले हरे पत्तों को निहारते हुए
इनके नाम के सरल शाब्दिक अर्थ पर
कभी ध्यान नहीं दिया
एक पेड़ के नाम से जुड़ी
दूरस्थ से दूरस्थ चीजें
बैठी रही दिमाग़ में
पुराणों की एक वाटिका में
और मगध के रास्तों में
गाड़ रखे थे मैंने
इसके नाम के जटिल अर्थ
ये बात भी दिमाग़ से कभी नहीं गुजरी
कि जिस आदमी ने इन्हें यहाँ लगाया
सालो साल इनकी आबपाशी और छँटाई की
वह आदमी इन पेड़ों को
एक ख़ास उद्देश्य के लिए तैयार कर रहा है
बढ़ते रहे ये अशोक के पेड़—
जीवन के एक बृहत्तर सत्य को,
अपने नाम के असल अर्थ को
एक आदमी की महाकाय अनुपस्थति में
व्यक्त करते हुए।
एक मामूली शहर में
एक
एक मामूली भारतीय शहर
चिलचिलाती गर्मी से लड़ता हुआ
पसीना-पसीना हो रहा है
सड़क पर लगे जाम में
एक ऑटो के भीतर से देखने पर
एक कार का वातानुकूलित अहाता
स्वर्ग समान दिखता है
गर्म हवा जिसके मुँह पर दुनिया भर ने
किवाड़ भेड़ दिए
हर एक हताश-परेशाँ राहगीर के कानों में
कोई उदास गीत गुनगुनाती है
वृक्षों को झकझोर कर कहती है
कि मुझे पहचानो, मैं वही हूँ
जिसके ठंडे स्पर्श की स्मृति में
तुम आँखें बंद किए रमे हो
दो
ख़ुद को धूप से बचाते ये पेड़
जो सड़कों के दोनों तरफ़
अपने ऊपर एक हरे रंग का छाता ताने खड़े हैं
इन्हें बारिश में मालूम पड़ेगा
कि इनके छातों में कितने छेद हो चुके हैं
तीन
इस दौड़-धूप के बीच ही
ऑटो में बैठे हुए
बंद आँखों से एक परदे पर देख पाता हूँ
सुदूर सागर तट पर उमड़ती लहरें
महसूस होता है
एक ठंडी हवा का शीतल आलिंगन
एक मायावी स्वप्न
जो टूट जाता है
जैसे ही एक भयानक उमस
ऑटो-चालकों का सब्र तोड़ती है
उनकी निराशा
गालियाँ बनकर बाहर आती है
वे गालियाँ देते हैं
जो सालों पहले इस शहर में
अर्थहीन घोषित की जा चुकी हैं
वे खोए हुए अर्थों के पैरवीदार हैं
चार
एक बूढ़ी गाय
अन्यमनस्क सड़क के बीचो-बीच खड़ी है
दिन-ब-दिन बदलते इस शहर की
तत्त्व-मीमांसा में उलझी हुई
पाँच
विचारों के अप्रत्याशित प्रवाह के बीच
ऑटोवाला पनवाड़ी की दुकान के सामने ब्रेक लगाता है
वे एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते हैं
और हाथ सिर तक उठाते हुए
सलाम करते हैं
एक गुटखे की पुड़िया अबोले ही
ख़रीदी-बेची जाती है
शब्दों को इस किफ़ायत से बरतते हुए
वे दो लोग कोई कवि लगते हैं
आवाज़ दो
इससे पहले कि एक शक़्ल से
उसका नाता टूट जाए
आँखें बंद करो और
उस एक नाम को आवाज़ दो
आवाज़ देने के बाद
उन्हीं बंद आँखों से देखो
कहीं कोई चेहरा
तुम्हारी ओर देखते हुए
ज़रूर पलटा होगा
वह उत्कंठा जो रह-रहकर उठती है
और तुम्हारी दृढ़ता का मज़ाक़ बनाकर रख देती है
उसे शब्दबद्ध करो और बनाओ एक पुकार
ज़ोर से कहो अपनी वांछना
ज़ोर से पुकारो उसका नाम
क्योंकि आवाज़ लगाने से भी कम होती है दूरी
किसी को पुकारने के बाद
एक लंबी-सी दूरी में
एक पुकार भर की दूरी तो पटती है
बिजली
आकाश से गिरती हुई बिजली
जिनकी आँखों में चमकती है
उनकी देह में भी उतरती है
उनके हाथों को अपनी-सी गति देकर
भेजती है कानों के पास
फिर ज़ोरों से कड़कती है
मानो हँसती है
उन लोगों की बचकानी हरकतों पर
जो अपने कान मूँदे खड़े होते हैं
झूला
पार्क में
मेरे सामने बच्चों का एक ख़ाली झूला
हवा की वज़ह से हल्का-हल्का हिल रहा है
झूले का यूँ आहिस्ता हिलना
आग्रह का एक गूढ़ रूप भी हो सकता है
संभव है कि यह हलचल
उसी आग्रह को मेरी और सरकाने की कोशिश हो
पिछली बार कब हुआ था झूले पर बैठना?
झूला झूलना इस जन्म की बात तो नहीं लगती
अपनी जगह से हल्का आगे, हल्का पीछे होता
समय की अवधारणाओं में कंपन पैदा करता
यह झूला शायद किसी दूसरे जन्म से
मेरी ओर देख रहा है
इस झूले पर जाकर बैठ जाना
मेरा नया जन्म हो सकता है।
शिवम तोमर (जन्म : 1995) नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक-अनुवादक हैं। उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। वह ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में रहते हैं। उनसे shivamspoetry@gmail.com पर बात की जा सकती है। उनके अनुवाद में अमेरिकी कवि बिली कॉलिन्स की कविताएँ पढ़ने के लिए यहाँ देखें : कविता लिखना दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति को एक साथ एक ही बार में एक मुख़्तसर पत्र लिखने जैसा है
बहुत बढ़िया कविताएँ। बहुत ही बढ़िया।