कवितावार में भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ::
मैं जो हूँ
वस्तुतः
मैं जो हूँ
मुझे वही रहना चाहिए
यानी
वन का वृक्ष
खेत की मेड़
नदी की लहर
दूर का गीत
व्यतीत
वर्तमान में
उपस्थित भविष्य में
मैं जो हूँ मुझे वही रहना चाहिए
तेज़ गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कड़ाके की सर्दी
ख़ून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी
मैं जो हूँ
मुझे अपना होना
ठीक ठीक सहना चाहिए
तपना चाहिए
अगर लोहा हूँ
हल बनने के लिए
बीज हूँ
तो गड़ना चाहिए
फल बनने के लिए
मैं जो हूँ
मुझे वह बनना चाहिए
धारा हूँ अंत:सलिला
तो मुझे कुएँ के रूप में
खनना चाहिए
ठीक ज़रूरतमंद हाथों से
गान फैलाना चाहिए मुझे
अगर मैं आसमान हूँ
मगर मैं
कब से ऐसा नहीं
कर रहा हूँ
जो हूँ
वही होने से डर रहा हूँ।
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‘‘तुम तो/ जब कुछ रचोगे/ तब बचोगे/ मैं नाश की संभावना से रहित/ आकाश की तरह/ असंदिग्ध बैठा हूँ!’’ इस अकर्ता-भाव को दर्ज करने वाले भवानी प्रसाद मिश्र (29 मार्च 1913–20 फ़रवरी 1985) हिंदी के बहुत अनूठे और कर्मठ कवियों में से एक हैं। श्रीकांत वर्मा ने उन्हें इस सभ्यता का कवि नहीं, बल्कि इस सभ्यता का विरोधी कवि माना है। विचार और व्यवहार में प्रखर और सक्रिय गांधीवादी भवानी बाबू कहन के संक्षिप्त में कुशलता और उत्कर्ष के कवि हैं। यहाँ प्रस्तुत कविता राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ से ली गई है।