कविताएँ ::
मृगतृष्णा
रात हाथ में रोटी पकड़े बेंच पर सो गया था बचपन
ख़बर है कि जन्नत में बर्फ़बारी शुरू हो गई है
बस कुछ मिनट पहले
आँकड़े कहते हैं कि बढ़ गई है पर्यटकों की आमद
अचानक
सरकारें कहती हैं कि लोकतंत्र मज़बूत हुआ है
और
सच यह है कि कुछ भी नहीं होता
अचानक
अधूरे समय की अधूरी डायरी से
एक बीतते साल के साथ टाँक दी गई हैं स्मृतियाँ—
कुछ पीले पड़ चुके काग़ज़,
अधूरी नज़्में
और अचंभित आँखें हिसाब लगाती हैं
बर्फ़ में इंच भर धँसे पाँवों का
और इन सबके साथ शिवालिक
कुछ और दरक आता है
आसमान की ओर
सारा दिन
तुम्हारी आँखें कुछ बोलती रहीं
आज सारा दिन
सूरज मेरे कंधे पर सवार रहा
आज सारा दिन
खूँटी से टँगे कोट में
सारी रात चाय की एक चुस्की ठिठुरती रही
दीवार पर टँगे नक़्शे से
आज सारा दिन
एक छूटी हुई ट्रेन
और तुम्हारा शहर
किसी जंगली बिल्ली की आँख-सा चमकता रहा
आज सारा दिन
स्टेशन पर उद्घोषिका हिमालय वाया संगम दुहराती रही
एक लड़की बारिश में बेख़बर भीगती रही और
मेरे हाथों में अमृता प्रीतम की ‘दो खिड़कियाँ’
आज सारा दिन
तितलियाँ मेरी नसों में फड़फड़ाती रहीं
अख़बार के दफ़्तर में
एक गुमशुदा ख़बर चक्कर लगाती रही
आज सारा दिन
कुछ ग़ैरज़रूरी-सा धड़कता रहा
मैं देह वाली स्त्री नकारती रही
ख़ुद को तलाशती रही
आज सारा दिन
अ-प्रेम कविता
मेरी अ-प्रेम कविता में नायिका की उम्र दर्ज है—
उतरता हुआ सोलहवाँ
जो सीख रहा था अभी सलीक़े से बाँधना इज़ारबंद
पीठ पर बस्ता टाँगते हुए
कुरता अक्सर पीछे से दबा रह जाता था
उर्वरता का लाल भी झाँक लेता था दबे पाँव
पुलिया पर सुस्ताते हुए दुपट्टा पूछ बैठता—
मैं रुकूँ कि जाऊँ?
पगडंडियाँ मौक़ा पाकर
गर्दन के रास्ते उतर-उतर जातीं
नाभि तक
खेतों से गुज़रते हुए
सोलहवाँ सजा लेता था
सरसों के फूल
किसी टापू देश की सुंदरी की तरह
और एक दिन अचानक
चढ़ता हुआ सोलहवाँ
लटकता मिला अपने पसंदीदा
आम के पेड़ से
बदायूँ की एक
प्रथमदृष्टया रिपोर्ट में दर्ज है कि सोलहवाँ
‘प्रेम में था’
पूरा अधूरापन
बंद खिड़कियों के पीछे भी था
एक पूरा आसमान
बंद खिड़कियों के पीछे हुआ करती है
एक पूरी लड़की
और
पूरी लड़की की पीठ पर दर्ज होती हैं
कुछ अधूरी लकीरें
पगडंडियाँ
एक
ये मौक़े नहीं देतीं
सँभलने के
पीछे से कुचले जाने का
ख़ौफ़ भी नहीं
दो
ये नहीं जातीं
दूर तक
बस इनके
क़िस्से जाते हैं
तीन
बड़े रास्तों तक पहुँचाकर
विधवा-माँग-सी
पीछे पड़ी रह जाती हैं
ये…
चार
हरे हो गए मुसाफ़िर क़दम इनके
पीली दूब का शृंगार किए
ये
आदिम रह जाती हैं
पाँच
पहली रात के दर्द से घबराई
क़स्बाई लड़की लौट नहीं पाई घर
भर रात भर शहर
उसने बदहवास खोजी पगडंडियाँ
छह
मेरे हिस्से की पगडंडी मिलती नहीं
घसियारिन के बाज़ूबंद-सी
गुम हो गई
पगडंडियाँ…
***
मृगतृष्णा हिंदी की नई नस्ल से वाबस्ता कवयित्री हैं। युवा हैं, यायावर हैं और पत्रकारिता के संसार से भी संबद्ध हैं। उनसे sandhyajourno@gmail.com बात की जा सकती है।
सच है। हिंदी की नई नस्ल से वाबस्ता हैं लेखिका। इनकी कविताओं में जीवन है , तरीका है और यायावरी की झलक है। मैं सदैव इनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ और इनकी रचनाओं का पाठक बने रहना चाहता हूँ। इसके लिए इन्हें लिखते रहना होगा , इसी उम्मीद के साथ समस्त शुभ कामनाएं।
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति….💐💐🎂🎂
भाव शब्दों के पार कहीं गहरे में ले जाते है…ह्रदय को आसूं से नम कर देते है…।
सुंदर कविताएं।
प्रांजल धर
Waaah khoob
आपकी सारी कविताए… जीवन के गहरे अनुभवों के साथ जुड़ी है …बधाई आपको और पूरी प्रकाशन टीम को…
– उमेश मौर्य