गद्य ::
बेजी जैसन
“एक्सक्यूस मी, 24 F, मेरी सीट है.”
लड़की ने नजर उठाकर देखा. कोई 65-70 साल का आदमी था. जितना भारी-भरकम कोट उन्होंने पहना था, ठंड उतनी थी नहीं. चश्मे के नीचे भली-सी आंखें थीं. और मुस्कान मीठी. बेहद. कुछ ज्यादा ही. चमड़े के जूते, गले में मफलर और ‘एक्सक्यूस मी’ का लहजा काफी कुछ अंग्रेजों के पीछे छूटे खजाने सा-था.
“कोशिश करके ध्यान रखना होगा कि बातें ज्यादा न हों. नहीं तो शायद अमेरिका तक बकबक सुननी पड सकती है.” उसने मन ही मन सोचा.
कहा इतना ही, “हम्म, आप बैठेंगे यहां? या मेरी सीट पर बैठ जाएंगे? 24 E?”
वह मुस्कुराए, “तुम्हें खिड़की से बादल देखना पसंद है न?”
लड़की एकदम से झेंप गई. असली वजह तो वही थी. पर वह अगर यह सवाल की तरह पूछते तो वह कहती कि उसे लड़की होने की वजह से दो पुरुषों के बीच बैठने की झिझक है. उन्होंने नहीं पूछा. वह मुस्कुराते रहे और बहुत स्नेह के साथ लड़की की आंखों में झांकने लगे.
लड़की असहज हो रही थी. उनके व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं था जो शालीन न हो. फिर भी, इस तरह उनका पेश आना जैसे कोई पुराने परिचित हों उसे असहज कर रहा था. क्या उसे सीट बदल देनी चाहिए?
“मैं तुम्हारी सीट पर बैठ जाऊंगा, और परेशान न हो, बोर नहीं करूंगा.” उन्होंने कहा.
लड़की ने बाईं तरफ के सीट हैंडल से अपनी कुहनी गोदी में ले ली और खिड़की की तरफ सिकुड़कर बैठ गई. बस, ट्रेन, हवाई जहाज कुछ भी हो, उसे खिड़की से बाहर झांकना पसंद है. हवाई जहाज का उठना और नीचे सब कुछ का धीरे-धीरे छोटा होते जाना, नदी-नालों का लकीरों-सा दिखना, फिर बादलों के बीच. कितनी बार वह हवाई जहाज में सफर कर चुकी थी, पर उसका दिल ही नहीं भरता. वह बाहर ही देखती रही. उसे एहसास था कि उसकी आंखों में बच्चों-सी चमक है. और वह नहीं चाहती थी कि पास बैठे अधेड़ व्यक्ति उसकी ऐसी मासूम खुशी देख लें.
वैसे तो आजकल कोई किसी की आंखों में नहीं झांकता. और झांकता भी है तो कुछ अश्लील हमेशा आंखों में तैरता रहता है. पर इतने स्नेह से कोई देखे तो खतरा खुद के पहचाने जाने का होता है. जैसे कोई आपका असली चेहरा देख ले तो यही आपकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाए.
“केरल से हो?”
लड़की फिर झेंप गई, “आपको कैसे पता?”
वह बिना संकोच के मुस्कुराते रहे, “हर सामान के टैग पर तुमने ही लिखा है जस्सी जोसेफ. अब इतनी उम्र तो हो ही गई है कि नाम से जगह का अंदाज लगा सकूं.”
लड़की कुछ नहीं बोली. बस थोड़ी गंभीर हो गई.
“तुम्हारी हिंदी वैसे बिल्कुल साफ है. कहां सीखी हिंदी?”
“जी?”
“कहां सीखी हिंदी?” उन्होंने दुहराया.
लड़की सोच रही थी कि प्लेन के भीतर किसी व्यक्ति से उसे कितना खतरा हो सकता है. अपनी घबराहट पर मुस्कुराई और फिर शरारत भरी आवाज में उन्हें जवाब दिया, “स्कूल में.”
उन्होंने महसूस किया कि लड़की पहले से थोड़ी-सी खुल गई थी.
“तुम चिंता मत करो. बूढ़ा आदमी हूं. जल्दी थक जाता हूं. पूरे रास्ते बोर नहीं करूंगा. काफी देर सोया भी रहूंगा. पर इतना पास पूरा एक दिन बैठकर अजनबियों की तरह सफर करना पागलपन है.”
लड़की ने सहमति में हामी भरी.
उसने उनके बैग पर नजर दौड़ाई. उनके सामान के टैग पर कोई नाम नहीं था.
इस बार वह हंस पडे.
“अरे नाम और काम पूछ भी तो सकती हो!
लड़की ने कहा, “मैं क्या करूंगी जानकर?”
“तुम डॉक्टर हो?”
लडकी : “अरे! आप जासूस हैं क्या?”
“नो डियर जस्ट ऑब्सरवेंट! रिलैक्स!
इंसान को चौकन्ना रहना चाहिए. चाहे वह चिकित्सक हो या पत्रकार या फिर किसी बच्चे का बाप.”
प्लेन टेक-ऑफ कर चुका था. पर उसका मन अब बादलों में नहीं था.
एक जवान लड़का, 24 D पर बैठ चुका था. उसने अपने सामने का टीवी स्क्रीन ऑन किया, इयर फोन पहने और वह स्क्रीन में फिल्म देखने में मशगूल हो गया.
इतनी दूर का सफर था. प्लेन की सीट वाकई छोटी थीं. कोई भी पैर फैलाकर नहीं बैठ सकता था. उसे याद था कि ऐसा पहले नहीं हुआ करता था. कोसने का कोई मतलब नहीं था. पूरा समय खिड़की की तरफ सिकुड़कर बैठा नहीं जा सकता था.
लड़की ने अपने बस्ते में से किताब निकाली, ‘अंतिम अरण्य’, निर्मल वर्मा की किताब.
2.2
पृष्ठ : 136
‘‘रात, दिन. दिन और रात.
मैं उनके पास बैठा रहता हूं. मैं नहीं चाहता, वह अचानक जागें और अपने को इतनी बड़ी कॉटेज के सांय-सांय करते कमरों में निपट अकेला पाएं… इससे ज्यादा भयानक बात क्या हो सकती है कि कोई आदमी अकेलेपन के अनजाने प्रदेश की ओर घिसटता जा रहा हो और उसके साथ कोई न हो. कोई आखिर तक साथ नहीं जाता, लेकिन कुछ देर तक तो साथ जा सकता है. हर दिन गुजरने के साथ मुझे लगता है कि मैं उनके साथ कुछ और आगे निकल आया हूं. मुझे डर है एक दिन वह इतने आगे निकल जाएंगे कि मुझे पता भी नहीं चलेगा, वह किस पहाड़ी के पीछे लोप हो गए.’’
उन्होने देखा. कहा कुछ नहीं.
फिर कुछ देर बाद बोले, “और क्या पढ़ा है हिंदी में?”
“जी?”
उनके चेहरे पर अब भी सवाल बना हुआ था.
“नहीं, मैंने बहुत कुछ नहीं पढ़ा है. बल्कि बहुत कम पढ़ा है.” लड़की बोली.
“व्हॉट अबाउट इंग्लिश? नॉट मच देअर टू? पढ़ना चाहिए. सबको पढ़ना चाहिए. कितना कुछ लिख गए हैं लोग. कितना अच्छा. सुखद. दुखद. कितना प्यार. कितनी करुणा. इतिहास. व्यंग्य… साहित्य इंसान को सलीका सिखाता है जीने का. नितांत अकेलेपन में साथी की तरह खड़े रहकर राह सुझाता है. जो व्यक्ति साहित्य के नजदीक है, कभी अकेला नहीं होता. कोई न कोई किरदार साथ रहता है हमेशा. वैसे डॉक्टर को मैं छूट देता हूं. वे साहित्य न भी पढ़ें, अनुभव के धनी होते हैं. और अगर डॉक्टर लिखे तो साहित्य को चार चांद लग जाते हैं. तुम लिखती हो?”
“जी?”
“तुम बात-बेबात इतना चौंकती क्यों हो? चेखव को पढा है? बहुत सुंदर कहानियां लिखी हैं उन्होंने. पेशे से वह भी डॉक्टर थे. वैसे मेरी पहली गर्लफ्रेंड भी डॉक्टर थी.”
“जी?”
“नहीं होनी चाहिए थी?”
लड़की : “मैंने ऐसा तो नहीं कहा.”
वह अब आराम से अपनी कुर्सी पर बैठ गए थे. जैसे वह प्लेन में न होकर किसी बड़े से कमरे में अपनी आरामकुर्सी पर हों और उनके आस-पास स्कूली-बच्चियों की टोली हो.
“देवताले, चंद्रकांत देवताले की कविताएं पढ़ी हैं?
सुनो :
लगता है काल्पनिक खुशी का भी अंत हो चुका है
पता नहीं कहां किस चट्टान पर बैठी तुम फूलों को नोंच रही हो
मैं यहां दुःख की सूखी आंखों पर पानी के छींटे मार रहा हूं
और यह वाली सुनी है?
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोए हैं उनकी नींद हराम हो जाए
यह मूढ़ता का परिचय ही होगा अगर इतने संपन्न साहित्य के होते हुए हम बेढब रह जाएं.
कितनी महीन बातों का कितना सुंदर चित्रण हो सकता है. सुनो, राजेश जोशी अपनी एक कविता में कहते हैं :
मन के एक टुकड़े में चांद बनाया गया
और दूसरे में बिल्लियां
कितना अपनापन लगता है उनकी बातों में! साहित्य समाज का आईना है. अगर हम अपना चेहरा वास्तव में पहचानना चाहते हैं. और जब मैं कहता हूं, आईना है, तो तुम अपने दाग, धब्बे भी देख सकते हो और पनीली आंखों के कोर में जमे आंसू भी. साधारण से साधारण भाव और असाधारण कल्पना…
राजेश जोशी की इस कविता, ‘पीठ की खुजली’, में देखो कितनी साधारण बात कितनी सुंदर लगती है :
अभी अभी लौटा हूं सारे काम-धाम निपटाकर
रात का खाना खाकर
अभी-अभी कपड़े बदलकर घुसा हूं
होटल के बिस्तर में
और रह-रहकर पीठ में खुजली हो रही है
रह-रहकर आ रही है इस समय
तुम्हारी याद
या फिर केदारनाथ सिंह को पढ लो :
आना जैसे मंगल के बाद
चला आता है बुध
और सुनो…’’
लड़की खो चुकी थी शब्दों की दुनिया में. जिस तरह वह पहले खिड़की की तरफ सिकुड़कर बैठी थी, अब उससे ठीक उलट उनकी तरफ सिकुड़ गई थी.
“पढ़ना चाहिए. सुनना भी. और गुनना भी. अच्छी नज़्म, अच्छी ग़ज़लें, फ़ैज़, बेगम अख़्तर, मलिका पुखराज… यह गाना सुना है, ‘आप की याद आती रही रात भर?’ फ़ैज़ और मख़दूम, दोनों ने गाया है इसे. तुमने सुना दोनों को? फ़ैज़ और मख़दूम? एक ही बात दोनों कैसे कहते हैं. अलग भी और एक भी. सुनो तो!”
लड़की सोच रही थी, “आपकी याद आती रही रात भर…’’
बहुत ही खूबसूरत लिखा है दोनों ने. एक ही बात. हां एक ही तो बात है हम सबके पास. जिसे हम किसी तरह हकला-हकलाकर कहने की कोशिश करते हैं. कोई काफी हद तक कह भी जाता है बात, कोई कुछ भी नहीं कह पाता. जार्गन हो जैसे.”
जैसे उन्होंने सुन ली हो उसके मन की बात, वह बोले, “बातें तो सब पुरानी ही हैं. फर्क यह है कि क्या तुमने जिया उन्हें? जिंदा बातों को तो माप के शब्द मिल ही जाते हैं.”
लड़की को लगने लगा था, जैसे वह कहीं खो गए हों.
वह फिर महसूस होते हैं पास, जैसे कहीं से लौट आए हों : “J D Salinger को पढ़ा है? The catcher in the Rye?”
लड़की अब उन्हें एकटक देख रही थी.
उन्हें एहसास हुआ कि बहुत देर से वह बोल रहे हैं. जरा उठकर एअर होस्टेस के लिए बत्ती जलाई, फिर बैठ गए, “शाम की दवा लेनी है. पानी मंगवाना है.” लड़की के चेहरे पर सवाल देखकर वह बोले.
लड़की ने फिर से देखा उन्हें, मफलर एलेनसोली का, जूते वुडलैंड के, कोट पुराना था और चश्मा बाइफोकल.
एअर होस्टेस से पानी की बोतल लेते हुए वह लेबल पढ़ने लगे, “स्प्रिंग वॉटर”, फिर हंसते हुए बोले, “भई, हमें तो गंगाजल पीने की आदत है.”
“आप बनारस से हैं?” लड़की ने पूछा.
“क्यों गंगाजल बनारस में ही मिलता है?” वह फिर हंस पड़े.
लड़की देख रही थी कि वह बहुत आसानी से हंस देते थे. किंतु हंसी के बीच ठहरा हुआ उनका चेहरा बेहद संजीदा और उदास था. चीजों तक पहुंचते हुए उनके हाथ कांपते थे. और आंखों के आस-पास की झुर्रियां बहुत सारे रतजगों का प्रमाण थीं.
“एक समय था जब मैं बनारस में रहा करता था. अस्सी के दशक की बात है, तुम तो शायद पैदा भी न हुई हो. मैं जवान था. उन दिनों बारातियों के साथ जाने के लिए मुझे सभी खास निमंत्रण देते. उन दिनों दूल्हे और दुल्हन के तरफ से आए लोगों के बीच अनेक प्रतियोगिताएं रखी जातीं. एक वाद-विवाद जैसी भी प्रतियोगिता होती, जिसमें जो ज्यादा शुद्ध और अच्छी हिंदी बोलता वह जीत जाता. उस कठिन हिंदी को ‘प्रिंसिपल हिंदी’ कहा करते थे. मैं उसमें बहुत निपुण था. जिसकी तरफ से खेलता, जीत जाता. और ऐसे ही मैंने कई शादियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. और जीतने के लिए मुश्किल से मुश्किल और शुद्ध से शुद्ध हिंदी बोलता चला गया.”
लड़की जैसे इस परिचय में घुलती-मिलती जा रही थी.
“गंगा आरती देखी है कभी?”
“जी?”
“नहीं देखी होगी. गंगा आरती के बारे में पढ़ तो तुम कभी भी सकती हो. पर देखना एक बार. वहां रहकर महसूस करना. सूर्योदय के समय, काशी के घाट पर, वे दीपों के उजाले, वे मंत्र और भजन. एक अलौकिक सुख. हमारे हासिल में. जाना कभी.”
वह बात बदलते हुए खुद ही बोले, “तुम तो ईसाई हो, बाइबिल पढ़ी है?”
“जी?”
“तुम झेंपती बहुत हो. तुम्हारे ‘जी’ में पूरे जी का हाल है. अरे बाइबिल तो पढ़ो. यह धार्मिक किताबें सिर्फ धार्मिक किताबें नहीं हैं. सबसे सुंदर प्रेमपत्र बाइबिल में मिलेंगे. तुमने ‘सोलोमन्स सॉन्ग’ पढ़ी है?
Let him kiss me with the kisses of his mouth : for thy love is better than wine.
उसे चूमने दो, अपने चुंबनों से, कि उसका प्यार, मदिरा से भी मोहक है…
वाइन से याद आया मैं आज वाइन नहीं पी सकूंगा. दवा और वाइन दोनों साथ नहीं हो सकता. खाने के बाद सोऊंगा शायद. बता इसलिए रहा हूं कि अव्वल तो नींद आती नहीं, बेचैनी अलग होती है. फिर नींद आ जाए तो खर्राटे लेने लगूंगा. तुम्हारी जैसी प्यारी-सी लड़की पर जो इंप्रेशन जमाया है, बस ध्वस्त होने को है. मुझे मनुष्य हो जाने के लिए माफ कर देना सखी, जस्सी!”
इस बार वह नहीं झेंपी. उनमें कुछ बहुत ईमानदार-सा था जो उसके दिल को छू गया था. पास बैठा लड़का, एक दूसरी खाली सीट पर चला गया था. वह खुद ही 24 D में शिफ्ट हो गए थे.
जैसे उन्होंने कहा था, वह बेचैन हो रहे थे. कभी घुटने मोड देते, कभी सीधा करते. फिर हाथ माथे या आंखों पर ले जाते. एयरहोस्टेस से कंबल मांगने के बाद वह उसे कसकर लपेटे हुए थे. लड़की को भी नींद आ रही थी. वह भी थकी थी. उसने ऊपर की बत्ती बुझाई और वह खिड़की की तरफ चेहरा करके सो गई.
बीच में उसकी नींद खुली. शायद उनके खर्राटों से. उसने उनका चेहरा ध्यान से देखा. अधखुला मुंह किए खर्राटे लेता व्यक्ति सुंदर तो नहीं लगता है, किंतु मनुष्य हो सकता था. वह मुस्कुराई. इतनी देर में वाकई वह अजनबी नहीं रहे थे. उसे पता नहीं क्यों घर में सोए हुए उसके बेटे की याद आने लगी थी. कंबल ठीक करने के लिए उसने हाथ आगे बढ़ाया, फिर पीछे ले लिया.
पहुंचते ही कॉन्फ्रेंस के लिए निकलना था. ठीक से नींद ले ले तो जेटलैग से शायद बच सके. उसे अपना चेहरा और होंठ शुष्क होते महसूस हो रहे थे. मॉइस्चराइजर लगाया, फिर सफर का चौथा गिलास ऑरेंज ज्यूस. सफर में पानी नहीं तो कोई न कोई पेय पीते रहना चाहिए. वह कब सोई उसे पता नहीं चला.
उसकी नींद फिर खुली थी. इस बार वह जगे हुए थे. उन्हें ठंड लग रही थी. उन्होंने ही थोड़ी कांपती आवाज में पूछा, ‘‘डू यू हैव क्रोसिन?”
उसके पास थी तो. अमेरीका का सफर, जरूरी दवा साथ रखकर ही किया जा सकता है.
“आई हैड वन, आई आलरेडी टुक दैट इन इवनिंग? आई विल कन्सल्ट वन्स आइ रीच. आयम ऐन ओल्ड मैन, कॉन्ट टेक दिस फिवर.” वह बोले.
“आपको बुखार है?’’ लड़की की आवाज में स्नेह और परवाह दोनों थी.
लड़की ने हैंड बैग से पैरासिटामोल निकाली. फिर बोतल साथ देते हुए बोली, “500 mg.”
अबकी बार जब नींद खुली तो पूरे केबिन में चहल-पहल थी. रिफ्रेशमेन्ट्स, पानी, चाय, शराब, फ़्रूट ज्यूस. वह अब भी सो रहे थे. थके से, पर सुख से.
कप्तान की आवाज गूंज रही थी. कुर्सी की पेटी बांधने का संकेत था. प्लेन लैंडिंग की तैयारी कर रहा था. उसने शटर उठाया. बाहर अंधेरा था.
“बादल नहीं दिख रहे?”
अचानक आवाज सुन वह चौंकी थी. वह लगभग ठिठुरते हुए, कंबल को और कसकर ओढ़े हुए मुस्कुराकर पूछ रहे थे.
“जी?”
“तुम्हें पता है हर लड़की में एक मां होती है. और हर मां में एक लड़की? यह दुनिया वाकई कभी सुंदर नहीं लगती, अगर यह स्त्रीहीन होती.”
लड़की इस बार हड़बड़ाई नहीं, बल्कि उनकी आंखों में झांकते हुए पूछा, “क्या करते हैं आप?”
वह मुस्कुराए, “क्या करोगी जानकर? हम उतना ही बचते हैं, जितना किसी की स्मृति में शेष रह जाते हैं. मुझे यकीन है, तुम भूलोगी नहीं.”
हाथ बढ़ाकर वह बोले, “मनोज रघुवंशी.”
“अगर कभी मेरे गुजर जाने की खबर मिले, तो हो सके तो आना, प्यार से माथा चूम कर विदा कहने…”
***
बेजी जैसन हिंदी और अंग्रेजी दोनों में लिखती हैं. उनका जन्म राजस्थान में केरल के एक इसाई परिवार में हुआ. लिखने की शुरुआत कविताओं से हुई. ब्लॉगिंग के प्रारंभिक दिनों में उनकी रचनात्मकता को पहचान मिली. वह बच्चों की डॉक्टर हैं और गद्य-लेखन के बावजूद कविताओं से उनका संबंध अब तक अटूट है. अंग्रेजी में लिखी कविताओं का एक संग्रह ‘सोल ग्रैफिटी’ शीर्षक से प्रकाशित. हिंदी में एक उपन्यास प्रकाशन की प्रक्रिया में. उनसे drbejijaison@gmail.com पर बात की जा सकती है. लेखिका की तस्वीर वीर गोहिल के सौजन्य से. यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 18वें अंक में पूर्व-प्रकाशित.
जबरदस्त।
दिल को छू गया।👌👌👌