कविताएँ और तस्वीरें ::
ओसामा ज़ाकिर

ओसामा ज़ाकिर

सूरतनामा

पहला पड़ाव

हज़ार नाश्तों का शहर
कहानी की तरह
बे-इरादा शुरू हो गया
फिर तमाशा शुरू हो गया
पुदीने की चाय के चक्कर
नमकीन की दस हज़ार सूरतें
हवा में उठते
अनगिनत फ़्लाईओवर

बड़बोले फ़ालूदे
चीनी बुझा कोको
अंडे के बेशुमार भेस
शराब का खाना ख़राब
डूमस से रूठा समंदर
राजस्थान जगाते ऊँट
महाराष्ट मनाते घोड़े
बीच पर बिखरा
मैगी का मलबा

ढलती रात के अँधेरे में
तापी की चमकती काया देखकर
यह सोचने लगा मैं
वापी जाना चाहिए क्या
दमन से क़रीब है वह
इन ख़यालों से उलझते हुए
बदल गए विचार
सँभल गए इरादे
तापी की काया को
ढलते सूरज के सुर्ख़ उजाले में
दमकते देखकर
रेल में जा बैठा
वापसी के सफ़र के लिए
मेरे घर का नक़्शा
भावनाओं के भँवर में
कहीं खो चुका

बॉम्बे मार्केट में
अंदर घुसते ही
याद आया
दिल्ली का पालिका बाज़ार
फिर एहसास हुआ
यहाँ दुकानों पर सजी-धजी
हज़ार रंग की सुंदरता की
कोमल निगाहों में सोती हुई
मेहनत और कला का क्या मुक़ाबला
पालिका बाज़ार के ठगविद्यावान्
इस नींद का मज़ा
कहाँ लूट पाएँगे
वह लूटते हैं मुसाफ़िरों को
डरे-सहमे ग्राहकों को

आँखों में आ बसीं
ख़ूबसूरत साड़ियाँ
कच्छ के अजरखपुर से निकली
सिंधी जादूगरी के
लहर्येदार काम वाली
मारवाड़ी औरतों के तेवरों की तरह
कलफ़ चढ़ाकर अकड़ रही
सूती साड़ियाँ
कहीं-कहीं झाँकती कोटा डोरिया
जाने कोन देस जा बसे वे लोग
जो उन्हें कोटा मसूरिया पुकारकर दुलारते थे
बेशर्म दुल्हनें
किसी धुले-धुलाये देह का ज़ेवर बनने के
लंबे इंतिज़ार में
पुतलों और हैंगरों से लटक गई थीं

सूरत के सूरमा
सिर जोड़े बैठे थे
मंसूबे बनाने थे
साधन जुटाने थे
सवाल यह था
ग़ज़ल से कितने काम निकाले जा सकते हैं
दो पंक्तियों की चूल बिठाकर
कितने नतीजे निकाले जा सकते हैं
क्यूँकि नतीजे पर नज़र रखना
बेहद ज़रूरी है

Fisherman at Dumas Beach, Surat by usama zakir

दूसरा पड़ाव

लोकप्रिय संगीत की बारीकियों की परख
तेज़ रोशनी में करने वाले छुटभय्ये
फ़्लडलाइट के बाँस
सुनने वालों की निगाहों में घुसेड़कर
बिठा रहे हैं गीतों को
जैसे गन्ने के भूसे को बोरे में भरते समय
कूदते हैं भराई करने वाले
ताकि रत्ती भर जगह ख़ाली न बचे
हवा गुज़रने के लिए
साँस भरने के लिए
मंच पर वाद्ययंत्रों की भरमार
कलाकारों के रियाज़ की सिद्धि तो क्या
उसकी असल मुद्दत तक का
सही अनुमान नहीं लगाने देती

ख़ूबसूरत पोशाकें पहने
ख़ूबसूरत लोग
ख़ूबसूरत साथियों संग
उपस्थित हैं सभागार में
शाइरों और कवियों की ज़बानी
जुदाई के अलाप निहारने
तन्हाई की गालियाँ खाने
एकांतवास का महिमामंडन जपने
कविता-पाठ में कला के दर्शन करने
कविता के कुतर्क की चौखट पर
मत्था टेकने

सुंदर प्रेमियों की सुंदरता के बीचोबीच
कवि को ला बिठाना महापाप है
नहीं है क्या?
भरी जवानी में किताबें लिखने की तरह
भरी जवानी में किताबें पढ़ने की तरह
ज़िंदगी ने तुझे नायाब तोहफ़ा दिया
जवानी दीवानी के ख़ज़ानों के दहाने खोल दिए
प्रकृति और परिवर्तन की सुंदरता पर लुटाने के लिए
पर तू रद्दी में उलझा रहा
पोथी में अटका रहा

जिस्म के सुख भोगने की घड़ी में
सिर्फ़ उस रागिनी पर कान धरो
जो फूटती है प्रेमी की देह के
हैरत भरे जंगलों से
निहारो उस कला को
जो किनारे काट रही है
घुमावदार पगडंडियों के
असंभव का नमस्कार
आदरपूर्वक स्वीकार करते हुए
जाओ जाकर
इक दूजे की संगत की
पागल धुन पर नाचो-नाचो
क्यूँकि कुछ घमंडी गीत
गूँजते हैं बस एक बार
दुबारा कभी न उभरने के लिए
बलि चढ़ाओ आकांक्षाओं की
आरती उतारो अरमानों की
जाओ मैं तुम सबको
सभागार से बर्ख़ास्त करता हूँ

यह सभागार
ठिकाना है
मुहब्बत में पराजित निकम्मों का
इश्क़ से परे ही परे गुज़ारा करने वाले कायरों का
माँ शब्द में माँ देखने वाले अंधों का
ग़ज़ल के रुके हुए पानी में उथल-पुथल मचाकर
भँवर पहनकर तांडव डालने का
वहम पालने वाले बीमारों का
सारी बीमारियों का इलाज
कविता से करने वाले झोलाछापों का
नक़ली बापों का
ज़हर से ख़ाली
साँपों का

Water Tank outside Bombay Market, SURAT by usama zakir

तीसरा पड़ाव

शहर साफ़-सुथरा लगा
रूखा-सूखा भी
शायद शुष्क राज्य का हिस्सा होना
नफ़े का सौदा हो
नुक़सान के साथ-साथ

जीवन देने वाले क़तरे की
जादूगरी के बाद
बहकाने वाले क़तरों की टूट के चलते
युवा महत्त्वाकांक्षी
संगीत और शाइरी की चाबियाँ
बंद तालों के सूराख़ में डालकर
खचर-खचर घुमा रहे हैं
दरवाज़े के दूसरी और बसी दुनिया से
जान-पहचान बढ़ाने की
उतावली लालसा में
वे नहीं जानते
दुनिया को जान लेना
दुनिया को मान लेने से
कहीं ज़्यादा ख़तरनाक हो सकता है
हवा में घूरकर गढ़े क़ायदे-क़ानून
अँधेरे में में बुने हुए ख़्वाब
जीवन की गजगामिनी चाल से
क़दम मिलाकर चलने की
कामना ही कर सकते हैं

संगीत से ताले नहीं खुलते
कविता उलझनें नहीं सुलझाती
संगीत ताले न खुलने के दुख को
गहरा कर सकता है
कविता आँसुओं से भीगे दुख को
दिमाग़ की बालकनी पर
सूखने के लिए लटकाकर
कई दिनों के लिए भूल सकती है

सूरतनामे को
सीरतनामा मानकर पढ़ो
कभी-कभी
शकल तय करती है
अक़ल का भार
नक़ल की मार
भटकाव से आनाकानी करते ही
आ जकड़ेगा ठहराव
कल की प्यासी परछाइयाँ
आ धमकेंगी
करने को घेराव


ओसामा ज़ाकिर बतौर कवि-कलाकार-अनुवादक हिंदी, उर्दू, अरबी और अँग्रेज़ी भाषा में सक्रिय हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। ‘सूरत’ शहर की इस सूरत का बयान हिंदी साहित्य में संभवतः इससे पूर्व नहीं हुआ है। कवि से usamaazakir@gmail.com पर संवाद संभव है।

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