रपट ::
अविनाश मिश्र
रचनात्मक और बौद्धिक हस्तक्षेप से संबद्ध सामाजिक सरोकारों और व्यक्तियों के लिए यह समय कैसी हताशा और असमंजस से भर गया है, यह स्पष्ट करने के लिए अब व्याख्या की ज़रूरत नहीं है। इस स्थिति को इन दिनों एक पंक्ति, एक शब्द में या सिर्फ़ मौन में धँसा मुँह लटकाकर व्यक्त किया जा सकता है। भाषा और संवाद का यह संकट इस क़दर संगीन हो चुका है कि महानुभाव भाषा में जन्म लेने और होने पर शर्मिंदा हैं। हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल की हिंदी भाषा और संस्कृति को लेकर गए दिनों फ़ेसबुक पर की गई एक टिप्पणी पर इस सिलसिले में ध्यान देने योग्य है :
‘‘हिंदी में कविता-कहानी-उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है। हालाँकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं, क्योंकि उन्हें खूब लिखा जा रहा है। लेकिन हिंदी में अब सिर्फ़ ‘जय श्री राम’ और ‘वंदे मातरम्’ और ‘मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या क़ब्रिस्तान’ जैसी चीज़ें जीवित हैं। इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है। काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता।’’
सांस्कृतिक आत्मघृणा और शर्म में डूबी हुई इस टिप्पणी में दशकों से जारी हमारे सांस्कृतिक विचलन के समकालीन परिणाम पाए जा सकते हैं।
इस टिप्पणी के बाद कथित जनकवि को कथित हिंदीप्रेमियों की भर्त्सना का आसान शिकार बनना पड़ा। निष्कर्षतः मंगलेश डबराल ने उस टिप्पणी में से पहले अंत की वे दो पंक्तियाँ हटाईं, जिनमें हिंदी में जन्म लेने और लिखने की ग्लानि का ज़िक्र है। इसके बाद उन्होंने पूरी की पूरी टिप्पणी ही हटा/छुपा ली। यह अलग बात है कि इसके हज़ारों स्क्रीन-शॉट अब भी नज़र में हैं।
बहरहाल, मंगलेश डबराल के मार्फ़त इस ग़ैर-ज़िम्मेदार बयान को हटा/छुपा लेना ही इस बात का सूचक है कि यह टिप्पणी उन्होंने किस मनोदशा में की थी। उनकी ही एक कविता-पंक्ति ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ के आश्रय से अगर इस पूरे प्रकरण को समझा जाए, तब यह स्पष्ट है कि हम और हमारा समय कुछ इस तरह की अतियों से ग्रस्त हो चला कि उनमें उपस्थित निराशा में कोई सामर्थ्य या विवेक नज़र नहीं आ रहा। इन अतियों से उत्पन्न अवसाद में स्थितियों से जूझने, उनसे संवाद करने या उनका विश्लेषण करने की रचनात्मक और बौद्धिक शक्ति का अभाव आ गया है। यह अवसाद भयावह सरलीकरणों से ग्रस्त है और एक अतिवाद का सामना दूसरे अतिवाद से कर रहा है। इस प्रक्रिया में वह ख़ुद को वेध्य भी बना ले रहा है। ऐसे में इस प्रकार की टिप्पणी एक कवि और पूरे कवि-समाज के लिए न केवल लज्जा का प्रसंग है, बल्कि इस भयावह सामाजिक-राजनीतिक दुश्चक्र में प्रतिरोध की नई तमीज़ सीख लेने की ज़रूरत को भी दर्शाता है और यह तसल्ली की बात है कि यह तमीज़ अब भी हमें हिंदी समाज में कहीं-कहीं नजर आ रही है। इस प्रसंग में ‘अकार’ की संवाद-यात्रा के दूसरे पड़ाव का ज़िक्र ज़रूरी है।
‘साझी विरासत’ शीर्षक से फ़रवरी-2019 में संपन्न ‘अकार’ द्वारा आयोजित संवाद-यात्रा के पहले पड़ाव के बाद, 23 जून 2019 को दूसरा पड़ाव ‘मेरा समय’ शीर्षक से आयोजित हुआ। स्थान : कानपुर का मर्चेंट चेंबर हॉल। इस बार के आमंत्रित वक्ता : नूर ज़हीर और आनंद कुमार।
इस अवसर पर प्रियंवद ने ‘मेरा समय’ विषय को प्रवर्तित करते हुए 23 जून को हिंदुस्तान के इतिहास की सबसे बुरी और बदनसीब तारीख़ों में से एक बताया। उन्होंने कहा, ‘‘यह एक ऐसी तारीख़ है जिसने हिंदुस्तान के आने वाले समय को बदल दिया, उसे रौंदकर उसे तबाह कर दिया। 23 जून 1757 को सुबह आठ बजे प्लासी का युद्ध शुरू हुआ और शाम चार बजे हिंदुस्तान अँग्रेज़ कंपनी के चौदह सौ सिपाहियों की सेना से हार गया और लंदन की सड़कों का एक आवारा लड़का हिंदुस्तान के मुस्तक़बिल को तय करने वाला बन गया।’’
‘मेरा समय’ कैसे ‘हमारा समय’ से भिन्न है, इसे स्पष्ट करते हुए प्रियंवद कहते हैं कि ‘हमारा समय’ में एक कलेक्टिवनेस है, लेकिन ‘मेरा समय’ से आशय एक व्यक्ति अपने समय को कैसे देख रहा है—इससे है। वह अपने नज़रिए से तीन चीज़ों को इस समय में बहुत अहम मानते हैं—एक : पोस्ट ट्रुथ, दूसरी : डर, तीसरी : सूपरा नेशन। ये तीनों चीज़ें क्रमशः असत्य को सत्य के रूप में गढ़ने, डर के दिन पर दिन पर बढ़ने और राष्ट्र की सीमाएँ ख़त्म करके कुछेक कंपनियों द्वारा सारे संसार पर क़ब्ज़ा कर लेने के विचार से संचालित हैं।
उर्दू की मशहूर कथाकार नूर ज़हीर ने इस दौर में बड़ी गिनती में व्यक्तियों के अदृश्य होने और स्टीरियोटाइप्स के दृश्य पर हावी होते चले जाने की बात कही। उन्होंने कहा, ‘‘इस्लाम पर आजकल बहुत अधिक चर्चा हो रही है। आतकंवाद से लेकर तीन तलाक़ तक उस पर विमर्श केंद्र में है। विचार बदलता है तो संसार बदलता ही है, लेकिन अदृश्य होते चले जाना इस समय की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है और ऐसे में हथियारों का अंतरराष्ट्रीय बाज़ार भी स्टीरियोटाइप्स का ही हिस्सा है।’’
नूर ज़हीर के वक्तव्य का बड़ा हिस्सा इस्लाम और तीन तलाक़ से जुड़ी जटिलताओं पर केंद्रित रहा। उन्होंने डर से लड़ने के लिए ह्यूमर की वकालत की।
सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर आनंद कुमार ने कहा, ‘‘अपने समय को पहचानना ज़िंदगी के मक़सद की पहली सीढ़ी होता है। जब आप समय को पहचानते हैं, तब आपका वजूद सामने आता है। इसके बाद आपकी ज़िम्मेदारी तय होती है कि मैं क्या कर सकता हूँ और बाक़ी लोग क्या कर सकते हैं।’’
कबीर के हवाले से आनंद कुमार इस समय को जागने वाला समय बताते हैं। फिर मुक्तिबोध के हवाले से वह अपनी पीढ़ी का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि हम गंदगी को साफ़ करने के लिए राजनीति में आए। कुछ गंदगियाँ बहुत पुरानी थीं तो कुछ बहुत अभी की। आज हमने लोकतंत्र और स्वराज के नाम पर ऐसा माहौल बनाया है कि सब मोर्चों पर हम हारी हुई लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें चुनाव के नतीजों से न बहुत ख़ुशी मिलती है और न ही बहुत ग़म होता है, क्योंकि यह दूध का उफान है। उन्होंने 1967 से हुए सभी लोकसभा चुनावों की साल-क्रमवार याद दिलाई और कहा कि सन् ‘77 का चुनाव तो वह कभी भूल ही नहीं सकते। उन्होंने हालिया लोकसभा चुनावों के नतीजों पर कहा कि ये मीडिया और टीआरपी वालों के लिए ग़लतफ़हमी के नतीजे होंगे, हमारे लिए नहीं हैं। जनता जिसे फूलों की माला पहनाती है, उसे ही एक समय आने पार काला झंडा दिखाती है और अगर वह तब भी नहीं सुधरता, तब उसे जूतों की माला भी पहना देती है। उन्होंने कहा कि चार चीज़ों ने मिलकर इस चुनाव का नतीजा तय किया—एक : राष्ट्रवाद, दो : पूँजीवाद, तीन : सांप्रदायिकता, चार : व्यक्तिवाद।
इस संकटग्रस्त समय में आनंद कुमार यह कथ्य ध्यान देने योग्य है कि भारतीय समाज इस समय अपनी स्वतंत्रता से डरा हुआ है। वह स्वतंत्रता की जगह सुरक्षा खोज रहा है। उन्होंने कहा कि सांप्रदायिकता और भारतीयता में परस्पर कोई रिश्ता नहीं है। उन्होंने चुप्पी को आवाज़ देने वाले राजनीतिज्ञों की ज़रूरत बताई और कहा कि राजनीति एक नाज़ुक काम है। नागरिकता-निर्माण का संकट, राष्ट्र-निर्माण का संकट और पर्यावरण का संकट को उन्होंने इस समय के कुछ प्रमुख मोर्चों में से एक माना।
आज भारतीयता का लेंस कैसे हिंदू लेंस में बदल गया और कैसे राष्ट्र-निर्माण का जिम्मा जाने-अनजाने एक सांप्रदायिक पार्टी को चला गया है, आनंद कुमार इन प्रश्नों को इस समय में विचारणीय मानते हैं।
अंत में इस संगोष्ठी के अध्यक्ष समादृत कथाकार गिरिराज किशोर ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए। उन्होंने कहा कि इस समय को पहचानने की इजाज़त हमें सरकार की तरफ़ से है? क्या मौजूदा सरकार जनता के लिए काम कर रही है? आज जनता के मुद्दे और उसकी आवाज़ कहाँ है? उन्होंने इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा कि आज कोई भी पार्टी इन प्रश्नों को पूछने और इनके उत्तर देने के लिए तैयार नहीं है। इस समय देश में सारी महत्वपूर्ण और प्राथमिक चीज़ों का स्तर गिर रहा है। यह समय इस तरफ़ ध्यान देने, इस स्थिति को बयान करने और इससे लड़ने का है। ये सब किए बग़ैर हम आगे नहीं बढ़ सकते।
इस संगोष्ठी के बाद पूरी तरह भरे सभागार में जन-भागीदारी से सामने आए सवालों का सत्र शुरू हुआ। इन सवालों में इस संवाद-यात्रा से उपजी बेचैनियाँ साफ़ नज़र आ रही थीं और हस्तक्षेप की वह तमीज़ भी जो सरलीकरणों से नहीं, अपने समय से संबद्ध वास्तविक और गहरे सरोकारों से प्रगतिशील होती है।
इस कार्यक्रम का संचालन ख़ान अहमद फारुक ने किया और स्वागत तथा धन्यवाद ज्ञापन अनीता मिश्र ने। ‘अकार’ की संगोष्ठी का तीसरा पड़ाव 20 अक्टूबर 2019 को प्रस्तावित है। कानपुर अब इन संगोष्ठियों की उत्सुकता से प्रतीक्षा करता है।
●●●