डायरी और कविताएँ ::
कुमार अनुपम

कुमार अनुपम

डायरी

हमने दुनिया को बुद्ध दिया। दे दिया है।

घड़ी अपनी सुइयों से समय का शिकार करती रहती है लेकिन अगले पल उसकी झोली में कुछ नहीं बचता जैसे आईना दृश्य का हरण करते नहीं थकता।

स्मृति एक पेचदार कील है जिसे दर्ज होने में जितनी मशक़्क़त लगती है उससे कम नहीं लगती उसे बेदख़ल करने में।

इस रचना का किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या स्थान से कोई संबंध महज़ एक संयोग है—ऐसा लिखा हो जिन रचनाओं से पहले उन्हें कृपया नागरिक हित में पढ़ने से जितना हो परहेज़ करें।

साहित्य कुल मिलाकर किसी रूपक का ‘बाई प्रॉडक्ट’ है।

मज़हब मछली की आँख का वह निमेषक पटल है जिसकी भूमिका ख़त्म हो गई है।

रेखा दो हिस्सों का एक जलसा है।

आपके पास अगर साँसों के कुछ सिक्के हैं तो उन्हें जल्दी ख़र्च करने के बारे में विचार करें इससे पहले कि उन्हें खोटा ठहरा दिया जाए।

जादूगर हर समय इस सच से वाकिफ़ रहता है कि वह एक झूठ पेश कर रहा है।

बर्बर सभ्यताएँ (???) पुरातत्त्ववेत्ता की तलाश में व्याकुल रहती हैं।

रचनाओ, सावधान! भेद के गुणसूत्र भाषा में मौजूद रहते हैं।

अपने घर में सकुशल लौट आए हो तो यह मत समझो कि व्यूह टूट गया है।

इससे पहले कि “अद्भुत, अविस्मरणीय, अपूर्व…” जैसी प्रशंसाओं की बरसात शुरू हो, मुझे अपनी कविता के आँसू पोंछ लेने चाहिए।

और एक दिन माँ पुकारेगी कि खेल ख़त्म हुआ, अब घर लौटने का समय हुआ।

ययाति! तुम्हारे नाम के अक्षर हवा में खोदे जा रहे हैं।

अब जबकि मैं राख हो रहा हूँ तो पछता रहा हूँ कि मुझे अपनी वितरित स्मृतियों को भी गोद में समेट लेना था।

यथार्थ एक धोखादेह जादूगर है जो नज़रबंदी जानता है।

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कविताएँ

कमसिन डेविड
यहूदा अमीखाई की कविता पर अबि दाबच की बनाई फ़िल्म की पटकथा का संभावित प्रारूप : दृश्यानुवाद

कर्कश विमानों की आवाज़
के फ़लक में उसने ऐसे झपकाई अपनी लरजती पलक आसमान तले निढाल पड़े हुए जैसे क़ैदी को
वापस मिल गए हों
उसके ज़ब्त किए गए असबाब

यह असमंजस का छूटता हुआ दोआब था जब हवा को
अपने तल्ख़ बेसुरेपन
से भरते हुए धूप में पिघलते
दो वायुयान
समा गए उस वर्दीपोश नौजवान
की हरी पत्तियों की मानिंद पुतलियों में

आहिस्ता से दाख़िल हुआ मरीचिका की तरह संसार
बरूनियों की फेंसिंग हटाता हुआ धारदार

तब ज़िंदगी की होशमंदी ने
ज़मीन के फटे होंठों पर हरकत की और समेट लीं बिखरी हुई उँगलियाँ

वह
किस धरती पर है
उसे पता नहीं था
लेकिन जानता था धरती का अहसास
धरती का महात्म्य उसे पता था

वह उठा
धरती से सहारा लेते हुए अपने बाज़ुओं के बल
और खड़ा हुआ
अपने पैरों पर सध कर जिसके नीचे
ग़ुबार का एक निचाट पठार था
ध्वस्त घर थे बिना छत वाले खुले हुए घाव की तरह

और
दूर— —

झलकता था संतप्त
बचा खुचा इलाक़ा
जिसमें चकत्ते की तरह दिख रहे थे
कुछ दरख़्त

वह चल पड़ा उस जानिब जिसके रास्ते कँटीले बाड़ वाले
उसे ले जाते थे
पत्थर के पीछे छिपी हरियाली
के ऐन सामने

पार करता हुआ सरहदी झाड़ियाँ
वह पहुँचा जहाँ
एक गड़रिया
उतार रहा था बेडौल कैंची से अपनी भेड़ों के बेजा बाल

भेड़ें
मिमिया रही थीं कि छटपटा रही थीं
मगर भूख को भर रही थीं
सूखी घास से

वे पहचानती नहीं थीं सूखी घास
लेकिन पहचानती थीं अपनी भूख प्यास

कुछ पल
गड़रिया निहारता रहा
सैनिकवर्दी में क़ैद टोपवाले को
और जब
वह बढ़ा गड़रिए की तरफ़
तो उसने
धकेल कर हटा दिया भेड़ को अपने सामने से तनिक सतर्क होते हुए

यह एक ऐसा दृश्य था
जैसे कि करुणामय ईशू के समक्ष
खड़ा हो तलब1खोज।गार कोई लाचार आततायी

वह ढह गया
गड़रिए की ओर पीठ किए उसके घुटनों के बीच
उतार दिया शिरस्त्राण
टोप से आज़ाद हुए बालों में
फिराईं अनिच्छा और अचरज से भरी हुई उँगलियाँ

उसने पैरों के पास पड़े
भेड़ के बालों को समेट लिया उनकी
मामूलियत का भार महसूस करते हुए
यह मारिफ़त2ज्ञान। और इस्तिग्ना3निस्पृहता, हर चीज़ से अनिच्छा। अब उसे एक अजब तौहीद4एकरूपता, सायुज्य। में सँजो रहे थे

गड़रिए ने अपना हाथ रखा उसके सिर पर कि ज़ेहन पर
सहलाई उसकी जड़ता कि उसका बोझ
और दाहिनी हथेली में सम्हाल ली कैंची

ताड़ के बेतरतीब पत्तों में
भरी थी धूप और धूल
जो छन कर नुकीली हो गई थी जैसे कोई विस्मय जैसे कोई हैरत5विस्मय।

बाल कट कट कर
अब गिर रहे थे उसके टोप पर गुच्छे गुच्छे भेड़ के बालों में एकमएक होते हुए

उसकी पलकें मुँदी जा रही थीं निर्मल आत्मलय में जैसे फ़ना6आत्मलय की अवस्था। का अहसास

अब वह आज़ाद था जैसे किसी गिरफ़्त से
बावड़ी के
पारदर्शी जल में उसने धोया अपना चेहरा और देखा अक्स

कौन था यह हूबहू अपना सा
और हर हसद से पाक़ शख़्स

राहत की साँस भर कर
वह चल पड़ा दुर्गम काले पत्थरों पर क़दम जमाता उच्चतम शिखर की ओर
जिसकी पृष्ठभूमि में पागल आमादा आँधी मचा रही थी शोर चिड़ियाँ
तुरही की तरह चीख रही थीं
और जंगी आसमान
अपनी वीरानी समेत अस्त हो रहा था।

पंचर

अगर वह पंचर न ठीक करा रहा होता तो इतना झुका न होता न इतना तत्त्वदर्शी।

उसने परात के पानी में उठते बुलबुले देखे और मान गया कि ट्यूब में पंचर है। उसने साँसों के बुलबुले नहीं देखे अपने आसपास की हवा में।

प्रेम प्रस्ताव

मैंने कहा कि देखो इतना सीधा कहना मुझे नहीं आता।

तो उसने कहा कि क्या?

मैंने कहा कि जैसे मूर्ति दरअसल
दृष्टि का मांसल रूपांतर है।

तो उसने कहा कि जैसे तुम जैसे मैं।

और अंत में

तब सैनिकों को जूते दिए गए नालवाले कि वे चलें तो धरती पर धमक हो और वह कुछ दबे।

तब सैनिकों को वर्दी दी गई कि वे पहनें तो औरों से कुछ अधिक चुस्त दिखें।

तब सैनिकों को बंदूक़ दी गई कि वे मार्च करें तो लगे कि युद्ध की संभावना है, शीतकाल में भी।

और अंत में सैनिकों को दी गई मनुष्य की देह कि वे ऐसे दिखें कि मनुष्य की धारणा—उनका धर्म है।

कुमार अनुपम (जन्म : 1979) हिंदी के सुचर्चित कवि-लेखक और संपादक हैं। उनकी कविताओं की एक किताब ‘बारिश मेरा घर है’ (2012) शीर्षक से साहित्य अकादेमी से प्रकाशित है। उनसे artistanupam@gmail.com पर बात की जा सकती है।

8 Comments

  1. उमाकांत खुबालकर अप्रैल 26, 2020 at 7:14 पूर्वाह्न

    इन कविताओ के जरिए संवेदना के तीखे खंजरो के जंगल में चलने
    का अभ्यास करते है।लिजलिजे चिंतन से मुक्त होते है।यह रचना विश्व न्ए धरातल पर उतारता है।
    अंतर को लहुलुहान करने केलिए शुभकामनाए।

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    1. रेखा सेठी मई 3, 2020 at 5:33 पूर्वाह्न

      अनुपम जी की कविताएं अत्यंत संवेदनशील हैं और उनकी भाषा का विन्यास बिम्बों को पकड़ने में सक्षम है, जो कविता को उस आत्मलय में बदल देता है जहाँ अपने समय और समाज से लगातार संवाद चलता रहे।

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  2. आलोक शुक्ला अप्रैल 26, 2020 at 9:51 पूर्वाह्न

    कुमार अनूपम जी अपने रचना संसार मे भी अनुपम हैं।

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  3. डॉ ऋचा द्विवेदी अप्रैल 26, 2020 at 5:28 अपराह्न

    अनुपम भैया बहुत ही गहराई में जाकर लिखते हैं । ‘घड़ी अपनी सुइयों से समय का शिकार करती रहती है ‘— वास्तव में एक एक पल जैसे हमारे हाथ से रीतता जाता है। काल चक्र में कितने बीते हुए घटनाक्रम समाए रहते हैं, कौन जानता है।

    आपके इस समयातीत लेखन को बधाई और शुभकामनाएं आपको प्रिय भाई।

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    1. ज्योतिकृष्ण वर्मा मई 1, 2020 at 6:30 अपराह्न

      “…मुझे अपनी कविता के आँसू पोंछ लेने चाहिए” ये केवल शब्द नहीं, शब्दों के सागर में गोता लगाती, डूबती, तैरती, किनारे पहुँचती , गरजती संवेदनाएँ हैं जिसे शायद एक कवि या लेखक ही गूंथता है शब्दों में। बधाई और शुभकामनाएं अनुपम जी।

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  4. घनश्याम कुमार देवांश अप्रैल 26, 2020 at 5:45 अपराह्न

    डायरी के पद भाषा की दृष्टि से इस लिहाज से गजब हैं कि वे शब्दों को अर्थ के नए विस्तार में ले जाते हैं। इसे पढ़ते हुए शब्दों के अर्थ पर देर तक और बड़ी दूर तक सोचने की जरूरत पड़ती है।
    कविता यदि अर्थ को भी नया अर्थ और मूल्य को भी नया मूल्य न प्रदान करे तो उसे बेशक शक की नजर से देखा जाना चाहिए। ये कविताएँ इस दृष्टि से बिल्कुल अलग हैं जिन्हें बार बार पढ़ने का मन होता है।

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  5. Awadhesh Singh अप्रैल 27, 2020 at 1:30 पूर्वाह्न

    सुप्रभात।
    मैं पहली बार, बर्षों बाद युवा मन की छटपटाहट देख पा रहा हूँ । शब्दों की अपनी सीमाएं हैं और उन्हें उकेरित करने के अन्य साधन भी सीमित हैं । कवि का अव्यक्त ही असली कविता है । मित्र बधाई – अवधेश सिंह 9450213555

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  6. विद्या विन्दु सिंह मई 5, 2020 at 1:02 अपराह्न

    कुमार अनुपम की अभिव्यक्ति मे गम्भीरता के साथ ऋजुता. स्पष्टवादिता और सम्वेदना को झकझोरने की कशिश है .साहित्य को उनसे बहुत उम्मीद है।शुभकामना।

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