कविताएँ ::
अदीबा ख़ानम

अदीबा ख़ानम

एक

मेरे गाँव की औरतें बीड़ियाँ बनाती हैं
पत्ता तराशती हैं
खुरदुरे को नर्म करती हैं
मेरे गाँव की औरतें चूल्हे बनाती हैं
ढाल देती हैं
आकार गढ़ती हैं
मेरे गाँव की औरतें आँगन लीपती हैं
कँगूरे बनाती हैं
उतार-चढ़ाव का ध्यान रखती हैं

उनके फुर्तीले हाथ देखकर
मैं अक्सर सोचती हूँ
औरतों की क़ैंची ज़ुबान पर
दुहाई देने वालों ने
कभी औरत के हाथ क्यों नहीं देखे?

दो

तुम इस बात से धोखा मत खाना
कि दर्पण के सामने खड़ी आँखें पोंछती स्त्री
केवल आँखों का काजल पोंछ रही है
उसके पास बहुत कुछ है पोंछ देने को
न जाने कितने दाग़
उसके हृदय पर लगे हैं
जो उतर आते हैं
उसकी आँखों में दिन-रात

कि ये आँखें कब से ढो रही हैं
उन दाग़ों का भार
जो केवल उसके नहीं
बल्कि उसकी माँ के भी थे
और उसकी माँ की माँ के भी थे

न जाने कितनी सदियों से
धुंधलाई हुई है उसकी दुनिया
कोई कसर न उठा रखी
उसने देवताओं को रिझाने में
किंतु दाग़ ये हटते नहीं हैं
धूल झाड़ती है
चीजों को उलटते-पलटते रोज़ ही
लेकिन कोई पोंछन उसे समझा नहीं पा रही
कि धूल उसके ज़ेहन पे जम गई है
मटीली ये दुनिया कम
उसका ज़ेहन ज़्यादा है

तीन

हे आदम!
तुम जन्नत के न हुए
और पाप आया केवल स्त्री के सिर
लेकिन याद रहे
तुम्हारी मति का संकुचन
पृथ्वी से भी कर देगा बेदख़्ल तुम्हें
और उस दिन कोई स्त्री
सदा की तरह
नहीं लेगी तुम्हारा पाप
अपने सिर!

चार

धीरे बहुत धीरे छूट जाता है सब
अपना घर
अपने लोग
अपना मन
अपना जीवन
जिए हुए के प्रति प्रेम
आने वाले के प्रति ईमानदारी
अपनी इच्छाएँ
और उम्मीदें

धरती की हरी घास का मोह
मिट्टी की कच्ची सुगंध का पाश
हिलते हुए पीले परदों से झाँकती रोशनी
चाँद की क़ीमती ठंडक
सितारों की चमक
और रात के आसमान की नीली रोशनाई

नहरों का गंदला पानी
नदियों की बेख़ौफ़ दौड़
समुद्र का अथाह वितान
ब्रह्मांड की निर्जन हूक

नहीं!
कभी नहीं छूटती
अपनी धरती
अपनी धरती पर बसे हम
हम, ख़ुद से कभी नहीं छूटते

साथ रहता है
अपना आकाश
आकाश को घेरे काले बादल
आकाश का फ़िरोज़ी अपनापन
आकाश की-सी खुली दुनिया

आकाश का अनंत कभी नहीं छूटता
न छूटे
मुझसे या किसी से उसका
आकाश!!

पाँच

संताप का एक महीन रेशा
कुलबुलाता है मेरी साँसों में
कुछ ठक् से आकर लगता है
छाती पर
उस ठक् का आघात छाती से अधिक
हृदय पर महसूस करती हूँ

बोल टूट-टूट जाते हैं
और बजती है एक सरगम
अचीन्ही-सी
बावरी दृष्टि ढूँढ़ती है उस आवाज़ को
पर कौन जाने मेरी कस्तूरी में
गंध से अधिक बिखरी हो
आवाज़ की टूटन

कुम्हला जाता है हृदय इन अघातों से
मैं शक्तिहीना दुख की रोटियाँ सेंकते
जला लेती हूँ उँगलियाँ
फिर भी रह जाते हैं
मेरे शब्द वंचित
उस दहक से
जिसने मेरे पोर झुलसा दिए

आँखों में अटके हैं सहस्रों शब्द
रुँधता है कंठ
माथे की नसों में महसूस करती हूँ
एक अतृप्त फड़क
फिर भी
प्रिय मेरे
तुम्हें देखकर मैं अपना विलाप
कर देती हूँ स्थगित
अनंत काल के लिए

घाव गहरे बहुत हैं
जब तब रिसते हैं
आँखों की कोर से
ज़ेहन में बसी वो पीली तितली
जिसकी देह अचल पड़ी है
मेरी हथेली पर
भटकती रही कई वर्षों तक
व्याध ढूँढ़े नहीं मिलता

शंकाएँ सिर उठाती हैं
दृष्टि गिरती है
अपने नखों की ओर
एक कौंध चेहरे को घेर रही
कृशकाय ओंठ फड़फड़ाते हैं
अस्फुट किसी प्रार्थना में!
शोक की एक गहरी तान
कर्णफूल में आकर हिलग गई है
ढूँढ़ने को अब बचा नहीं व्याध कोई!

ओ प्रिय मेरे,
हमें ध्यान से देखना चाहिए आईना
ध्यान से देखो तो पाओगे ये गूढ़ रहस्य
कि स्वयं को मृत्यु के हाथों सौंप देना
आत्महत्या का सबसे आसान तरीक़ा है।


अदीबा ख़ानम की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह दिल्ली सरकार के एक विद्यालय में हिंदी की अध्यापिका हैं। उनसे adibakidaak@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. मैथिल प्रशान्त अक्टूबर 4, 2024 at 5:54 पूर्वाह्न

    सहज भाषामे असहज करती कवितायें मस्तिष्कमे विचारों की झंझावात करती हैं ।सुन्दर। ।

    Reply
  2. अनुज राय अक्टूबर 7, 2024 at 11:23 पूर्वाह्न

    बहुत सरल भाषा में लिखी इन बेहद गूढ़ कविताओं में अपने पाठक का मन और भावनाएं अपने साथ पिरो लेने क्षमता है…
    कवि की अगली कविताओं का इंतज़ार रहेगा…

    Reply

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