कविताएँ ::
अमर दलपुरा

अमर दलपुरा

ड्रॉप आउट बच्चे

वे आते हैं जैसे झाड़ियों के पीछे से आ रहे हैं
वे आते हैं जैसे सूरज को साथ लेकर रहे हैं
वे पहाड़ों के पार से आते हैं
वे जंगलों के बीच से आते हैं
कभी खेतों से आते तो
फ़सलों की तरह लहराते आते
कभी सड़कों पर मैदान की तरह खेलते आते
वे रोशनी की तरह आते
वे पैरों में धूल लेकर आते

उनकी जेब में क्या हो सकता है
उनके बैग में क्या हो सकता है
उनके मन में क्या होता है
कैसे जाना जा सकता है
उनके संसार को

उनके थैले में टिफ़िन नहीं होता
जैसे कि उनकी माँ घर में नहीं रहती
उनके थैले में किताबें कम होती हैं
जैसे कि उनके पास पिता नहीं रहते

क्यों उनके पैरों में जूते नहीं होते
क्यों उनकी शर्ट के बटन कम हो जाते हैं
क्या उनको सर्दी कम लगती है
क्या उनको गर्मी में रहने की आदत है
क्या कहा जा सकता है उनके बारे में
क्या नहीं कहा जाता उनके बारे में
उन्हें सरकारी भाषा में ड्रॉप आउट कह दिया जाता है

सपने और समाज

इतने फूल खिले हैं
फ़रवरी के छोटे महीने में
आँख की दूरी तक सरसों के फूल
चने के कत्थई फूल
इतनी घासों के इतने बेनाम फूल
जो खिले हुए हैं मेरे पैरों के आस-पास

जब प्यार का फूल रहा खिल रहा था
इस दिल की ज़मीन पर
मैं कहाँ देखती थी इन अनाम फूलों को

सारे दिन कैसे-कैसे सपने बुनती थी
कैसी-कैसी बातें सोचती थी
जिनकी न कोई ज़मीन थी
न कोई आकाश

समाज भी कहाँ होता है इस लायक़
जहाँ सपने फूलों की तरह खिल सकें
और फूलों को सपनों की तरह देख सकें

रिश्ता

इस बहती नदी में पड़े पत्थर का
पानी से कोई रिश्ता तो है
इस निर्जन में खड़े पेड़ का
किसी से कोई वास्ता तो है
दिनोंदिन सूखती जा रही टहनी का
जीवन से कोई नाता तो है

न जाने कितनी चीज़ों से रब्त बना रहता है
इस संसार में
सिर्फ़ हमारा ही कुछ नहीं बचा
जिसे कोई नाम दिया जा सके

वह

वह स्त्री भूल गई है काजड़-टीकी
सोलह साल का वह मुख
और तिनके-सा वह सुख
जो नहीं मिला स्त्री होने से

और मैं भूल गया हूँ वह कविता
जो काजड़ की तरह सघन थी
उसकी किशोर आँखों में

बहन

बहनें जब घरों से दूर जाती हैं
दूर तक रोती हैं
उनके रोने की आवाज़
मेह की तरह बरसती है
उनके होने की जगह
कई दिनों तक भरी रहती
कुछ दिनों बाद
उनकी रुलाइयों का कोरस
न घरों में रहता न बाहर

मेरी बहन के विदा होने का दिन
न जाने कैसा दिन था
मैं उस दिन पड़ोस के घर में देख रहा था टीवी
विधवा होने के दिन को
कैसे दिन कहा जा सकता
मैं नहीं था उसके कोसों आस-पास
वह कितने दिनों तक
ज़ोर-ज़ोर से रोती रही—
मेरा राम चला गया
मेरे प्राण क्यों नहीं गए
कैसी-कैसी बातें कहती रही मेरी बहन
मेरे पास कहने लिए क्या बचा था
जो जीने के लिए दूसरा मन देता
पहाड़ जैसे दुखों को कुछ नहीं में बदल देता

अब उसने रोने का एक नया संसार रच लिया
घर के किसी कोने में बैठी रहती है चुपचाप
जब किसी की मृत्यु होती है
स्त्रियाँ रोती हुई आती हैं
मेरी बहन उन्हें ऐसे देखती है
जैसे ऐसे रोना भी नहीं बचा है उसके भाग्य में
और किस बात के लिए कब तक रोया जाए
जीने का यह संसार चलता रहता है
किसी के जीवित रहने की याद भी
ज़्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहती

मृत्यु

एक

मेरी याद में रवि प्रकाश मर गया
उसका भले दिनों में साथ था
मेरी याद में ओम प्रकाश मर गया
जो बुरे दिनों में साथी था
जबकि वे मेरी तरह जीवित है
किसी और जगह पर

मेरे स्वप्न में मैं ख़ुद ही मर गया
मैं ख़ुद को याद करने लगा
मुझे इस बात पर रोना आ रहा था
कि मुझे कोई रोने वाला नहीं है
मैं ख़ुद को चुप करने लगा
कि कोई आँसू पोंछने वाला नहीं है

मेरी एक बहन तो साँस लेते ही मर गई
उसका ज़िक्र तक नहीं होता अब
उसकी कोई जगह भी नहीं इस संसार में
उसकी कोई याद भी नहीं है परिवार में

मुझे इस बात पर मलाल भी नहीं होता
कि मैं धीरे-धीरे सबको भूल गया हूँ
अब ख़ुद को भूलने कोशिश जारी है
मैं स्मृतियों के पिटारे में
धीरे-धीरे राख भर रहा हूँ

दो

मेरी मृत्यु होनी थी सो हो गई
आज इतने सालों बाद चुपचाप लेटा हूँ
रोने-पुकारने की आवाज़ों के बीच
मेरे साथ ही शिथिल पड़े हुए हैं
मेरे हाथ-पैर
जो टिकते नहीं थे एक जगह
मेरे साथ ही धूल हो गई
आशाओं-सी इच्छाएँ
इच्छाओं-सी लालसाएँ
जिनके लिए भागता रहा इधर-उधर

इस दिन को आना था सो आ गया
जिसकी राह देख था रोज़-रोज़
जो देखते नहीं थे दिन भर
वे मेरी मृत देह को छूकर देख रहे हैं
जिनको नहीं चाहिए था मेरा संग-साथ
वे हाथ पकड़कर जगा रहे हैं बार-बार

ऐसा भी नहीं है कि किसी को दुख नहीं है मेरा
गैल-गिराड़े में इतनी भीड़ उमड़ आई है
जैसे सारे प्रियजन लौट रहे हैं मिलने
बच्चे ऐसे देख रहे जैसे
जीवन को पहली बार देख रहे हैं
स्त्रियाँ घूँघट से ऐसे झाँक रही हैं जैसे
मृत्यु को अचरज की तरह देख रही हैं

जो देख चुके हैं सैकड़ों बार मृत्यु
वे लकड़ियाँ काट रहे हैं
शव को सजाने के लिए
रोली-मोली
फूल-गुलाल
एक सफ़ेद परिधान
और श्मशान के लिए सब साजो-सामान
इकट्ठा कर रहे हैं

जिनकी होनी है साल-दो साल में मृत्यु
उनके लिए मेरी मृत्यु राहत की बात है
एक ऐसी बात
वे न चाहते हुए भी चाहते हैं
मृत्यु का साथ!

कथावाचिका

सड़क पर चलती हुई
या कुछ बड़बड़ाती हुई
एक पागल स्त्री रोज़ मिलती है
जैसे सड़क ही उसका घर है
और आसमान उसकी छत

मैं भी पागलों की तरह देखता उसे
उसके शब्दों को समझने की कोशिश में
रोज़ ओझल हो जाती है
कभी-कभी लगता है
मेरे जैसे पुरुष को दे रही होगी गाली
या कोसती होगी इस समाज को
जहाँ बलात्कार की हद तक चले जाते हैं
स्त्रियों को पागल कर देते हैं

मैंने पहली बार उसे विशाल पंडाल में देखा
जहाँ कथावाचिका
शांति और ख़ुशी का रहस्य समझा रही थी
और पागल स्त्री ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थी
मुझे भी बैठने के लिए कुर्सी दो
कथावाचिका का चेहरा
अशांति से क्रूर हो गया
उसे बाहर निकालने का आदेश दिया

अलग बात

जब ईश्वर-अल्लाह और ख़ुद पर नहीं रहा भरोसा
एक पैंतीस साल का पिता
पाँच साल के बेटे साथ हाथ फैलाता है
हर किसी से कहता है बच्चे को भूख लगी है
बेटा अपनी मासूमों निगाहों से कभी पिता को
कभी लोगों के चेहरों को देखता है

वे दोनों किसी कुछ न देने पर निराश नहीं होते
किसी के देने पर ‘भगवान भला करे’
जैसा कोई आशीर्वाद नहीं देते

यहीं सड़क किनारे सरकारी ज़मीन पर है उनका बसेरा
जो बचा हुआ है
सरकारी आदेश की लेट-लतीफ़ी की वजह से
यहीं खुल गई है एक सरकारी रसोई
और एक सेठ का शराबख़ाना

शाम होते ही बहुत से पिता आते हैं शराब की दुकान पर
या उसके हमउम्र युवा जिन्हें अभी भरोसा है ख़ुद पर
बेटा चुपचाप हाथ फैलाता है
कुछ को याद आती है अपने बच्चों की
कुछ अपनी मजबूर शक्ल देख लेते है बच्चे के पिता में
और उसे देते हैं दस-बीस रुपए

इसे ख़ुशी कहा जाए या मजबूरी
यह बेटे के लिए अलग बात है
और पिता के लिए बिल्कुल अलग बात


अमर दलपुरा (जन्म : 1985) हिंदी की नई पीढ़ी के सुपरिचित कवि हैं। उनसे amardalpura@gmail.com पर बात की जा सकती है।

6 Comments

  1. प्रमोद सितम्बर 4, 2024 at 6:43 पूर्वाह्न

    बहुत सुंदर कविताएँ हैं l खूब बधाई अमर दलपुरा को l

    Reply
    1. अमर दलपुरा सितम्बर 4, 2024 at 12:32 अपराह्न

      आपने फ़ोन किया तो मुझे लगा कि लिखना सार्थक हुआ। शुक्रिया

      Reply
  2. Vijay Rahi सितम्बर 5, 2024 at 1:26 पूर्वाह्न

    जीवन राग में डूबी सहज-सुंदर कविताएं। अमर दलपुरा को बधाई और शुभकामनाएं 🌻

    Reply
    1. अमर सितम्बर 26, 2024 at 7:27 पूर्वाह्न

      संक्षिप्त में सुंदर टिप्पणी के लिए शुक्रिया ।

      Reply
  3. RADHAMOHAN MEENA सितम्बर 8, 2024 at 10:47 पूर्वाह्न

    बेहतरीन कविताएं, जीवन से जुड़ी हुई है।

    Reply
    1. अमर सितम्बर 26, 2024 at 7:25 पूर्वाह्न

      बहुत शुक्रिया ।

      Reply

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