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सुशांत कुमार शर्मा
कहानी विधा साहित्य में अभिव्यक्ति की एक सशक्त माध्यम है। कहानी का विषय कविता या उपन्यास का विषय भी हो सकता है। उसमें निहित विचार दर्शन, कविता, आदि के हो सकते हैं पर उसका विन्यास सारी विधाओं से अलग अपनी सशक्त प्रभविष्णुता के लिए प्रख्यात है। कहानी शिल्प, संवेदना एवं विचारों के सफल सामंजस्य एवं संघात की प्रस्तुति है। कहानी विधा का विस्तृत विवेचन करने का उचित अवकाश न होने पर भी इतना कह देना आवश्यक है कि ‘कहानी’ शब्द के साथ ही दो व्यजनाएँ समाहित रहती हैं। पहली कि यह यथार्थ नहीं है, इसमें कुछ बनावट है तथा दूसरी यह कि इसका उद्देश्य मनोरंजन है। सन् 80 के दशक से उठे दलित एवं स्त्री विमर्शों ने अपनी कहानियों में इस महाप्रस्थान को भंग किया है। अब न तो वह साहित्य मात्र और काल्पनिक समझी जाती है और नाहीं मनोरंजन उनका एकमात्र उद्देश्य।
दलित कहानियों पर बात करते समय हम उपर्युक्त दो तत्वों के साथ एक तीसरा तत्व यह देखते है कि यह सिर्फ संवेदना की भावभूमि पर रचित नहीं हैं, अपितु इनके लिए एक चेतना तथा विचारधारा का व्यापक महत्व है। कहानियों में बार-बार दुहराव होने का एक बड़ा कारण समाज व्यवस्था में दलितों के लिए सर्वत्र एवं सर्वथा किया जाने वाला वही व्यवहार है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें कि दलित साहित्य के साथ सदैव सहानुभूति बनाम स्वानुभूति की चर्चाएँ उठती रही हैं। यह द्वंद्व कल्पित संवेदना बनाम भोगे हुए यथार्थ का है। नई कहानी और साठोत्तरी कहानी के बाद विकसित इस कहानी परंपरा को भोगे हुए यथार्थ का स्वर विरासत में मिला है। जैसाकि पहले ही कहा जा चुका कि इनका उद्देश्य बनावट और मनोरंजन मात्र नहीं है अतः इन कहानियों का मुख्य ध्यान कथ्य है। शिल्प और कला के लिए यहाँ अधिक गुंजायश नहीं है। इसका प्रयोग उस सीमा तक है जबतक कि वह कथ्य पर हावी न होने लगे। कुल मिलाकर कुछ मुख्य मुद्दे हैं जिनपर ध्यान रखते हुए हम दलित कहानियों पर बात करेंगे।
दलित साहित्य की प्रमुख विधा आत्मकथाएँ मानी जाती हैं। आत्मकथाओं का संदर्भ सामाजिक होकर भी व्यक्तिगत होता है। यह स्वानुभूति का सर्वोत्तम रूप हैं। पर यह सोचने का एक कारण बनता है कि दलित लेखकों ने कहानियाँ क्यों लिखी? सर्वप्रथम कारण तो यही लगता है कि इसका अर्थ है दलित साहित्यकार भी साहित्य लिख सकते है लेकिन जब हम गहरे में जाते है तब वहाँ हकीकत कुछ भिन्न है। आात्मकथा का परिवेश लेखक के साथ साथ घूमता है। लेकिन कहानी के साथ ऐसी बात नहीं। आत्मकथा में जो बात लेखक नहीं कह पाता वह कहानी में कहता है। आत्मकथाओं की प्रामाणिकता, उनकी एकरूपता आदि को लेकर प्रश्न उठाये जाते हैं तथा लगातार यह कोशिश की जाती है कि दलित साहित्य को महत्वहीन घोषित किया जाए। कहानी विधा इन सारे प्रश्नों से मुक्त है। उसकी प्रामाणिकता को लेकर प्रश्न नहीं उठाये जा सकते। दलित लेखकों की कहानियों से यह व्यक्त होता है कि जब तक सवर्ण समाज उस पीड़ा को स्वयं महसूस नहीं करेगा तक वह ऐसे ही आपत्ति उठाता रहेगा। अतः वे दलित कहानियाँ विशेष रूप से प्रभावोत्पादक हैं जिनमें दलित चेतना का प्रभाव किसी सवर्ण की अनुभूति के रूप में दिखाया गया है। इस सन्दर्भ में हम सर्वप्रथम दलित साहित्य के उन्नायक और महान कवि एवं कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों पर चर्चा करें।
‘सलाम’ नामक कहानी एक साथ कई स्तरों वाली एक विशिष्ट कहानी है। इस कहानी में श्री वाल्मीकि ने कमल एवं हरीश के माध्यम से सर्वप्रथम एक ऐसे समरस समाज की कल्पना की है जहाँ उपरी स्तर या दोनों में कोई भेद नहीं है। हरीश चूहड़ा जाति का है और कमल ब्राह्मण। सबसे पहली घटना बल्लू राघड़ की दुकान पर घटित होती है जहाँ चूहड़ा जाति की बारात में आने के कारण बल्लू कमल को भी चूहड़ा समझकर चाय के बदले गालियां देता है। यहाँ सहानुभूति को स्वानुभूति में बदल देने के लिए श्री वाल्मीकि ने एक सटीक तकनीक का इस्तेमाल किया है।
प्रायः दलित जातियों से इतर लोगों का दलितों के प्रति घृणा का ही भाव रहता है। यदि सहानुभूति होती भी है तो वह उसी प्रकार की जैसे कमल, हरीश के साथ रखता है। कमल के घर में हरीश का आना-जाना, खाना-पीना सबसे है पर उसके लिए बर्तन अलग हैं। जिस प्रकार हरीश को कमल सामान्यीकृत ढंग से अखबार और टेलीविजन की घटनाओं पर तटस्थ होने के लिए कहता वह उसी सहानुभूति का स्वर है जो दलित समाज के प्रति अन्य समाज का है। परंतु जब उसके ब्राहमण होने के बावजूद उसके साथ दलितों सा बर्ताव होता है तब वह असली स्थिति को जान पाता है। याद करना चाहिए कि बारात में जब एक वृद्ध द्वारा कमल की जात पूछी जाती है तो हरीश उसका प्रतिकार करता है। क्योंकि बचपन से ही जाति पूछे जाने की पीड़ा से वह परिचित है।
दूसरी प्रमुख हटना है हरीश तथा उसके पिता द्वारा परम्परागत ‘सलाम’ प्रथा का विरोध करना। यहाँ दलित कहानियों की प्रमुख विशेषता दलित चेतना दिखाई देती है। दलित चेतना का तात्पर्य, उस चेतना से है जो समाज के यथास्थितिवाद, हिन्दु धर्म के कर्मकाण्डों एवं प्रथाओं के विरोध तथा सामाजिक उन्नयन की चेतना से प्रतिबद्ध है। सामाजिक यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिए समाज में ऊंच-नीच आदि की प्रथाएँ बनाई गई हैं। इनमें बहुत सारे निहितार्थ है।
भारतीय संस्कृति में विवाह को संस्कार माना जाता है। वह नवजीवन तथा व्यक्ति की पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। ऐसे में जब एक नवविवाहित जोड़ा अपनी सम्पूर्ण इयत्ता और सम्मान को त्यागकर इस नवजीवन के अवसर पर यदि समाज के (सवर्ण) आगे झुक जाता है तो वह उससे जिन्दगी में कभी आँख नहीं मिला सकता। लेकिन इस निहितार्थ को छुपा कर उसे एक प्रथा का नाम दिया गया और उतरन आदि के उपहार देकर इन दलित जातियों के मन में यह बोध पैदा किया गया कि सवर्ण समाज हमारा हितैषी है। हम देख सकते हैं कि इस कहानी में कमल उपाध्याय के प्रसंग के बाद बल्लू राघड़ नवविवाहित लड़की के बारे में कैसी घिनौनी बातें कहता है लेकिन उसके दरवाजे पर वह अपने परम कर्तव्य की दुहाई देता है। जो शादी के लिए कोई मदद नहीं दे सकता, स्कूल के कमरे नहीं खुलवा सकता, चापाकल का हैंडल खोल देता है, वह अगर अपने कर्तव्य की दुहाई दे तो इसका निहितार्थ क्या हो सकता है, समझा जा सकता है।
सलाम कहानी का तीसरा महत्वपूर्ण तत्व उसके अंत की घटना है। एक छोटे बच्चे द्वारा मुसलमान के हाथ का बना नान खाने से इनकार किया जाना यह दर्शाता है कि कैसे हमारे भीतर बचपन से ही अपने परिवेश से घृणा करने का भाव भर जाता है। जैसाकि शुरु ही में कहा जा चुका कि कहानी एक साथ कई स्तरों पर चलती है लेकिन इस कहानी की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसमें विचारधारा और चेतना बहुत ही स्वाभाविक रूप से प्रकट की गई है। गलियां सुनकर कमल उपाध्याय के मन में जो पीड़ा उमड़ती है उसे कोई सवर्ण झुठला नहीं सकता साथ ही वह उस पीड़ा का स्वयं साक्षात्कार करता है। साथ ही भारतीच समाज की श्रेणीबद्धता की एक कटु सच्चाई है कि हर वर्ग अपने से नीचे एक नया वर्ग तलाश लेता है। दलित जाति जो स्वयं सबकी घृणा और अपमान के लिए अभिशप्त है वह भी मुसलमान को घृणा का पात्र मानती है।
दूसरी कहानी जिनावर’ एक अलग तरह की पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानी है। इसका परिप्रेक्ष्य सामाजिक है। एक उच्च कुलशील चौधरी द्वारा अपनी बहू के शारीरिक शोषण के प्रयास पर केन्द्रित यह कहानी रिश्तों और समाज में जहर बोलने वालों के उपर एक प्रहार है। यह समस्या कोई नई समस्या नहीं है। मिथिला में गाये जाने वाले विद्यापति के गीतों में इसकी अभिव्यकि मिलती है।
पिया मोर बालक में तरुणी गे, कोन तप चुकलो भेलों जननी गे। कहिहों न बाबा हम धेनु गाए रे, दुधवा पियाई के पोसत जमाय गे।
(मेरा पति बालक है और मैं तरुणी, मैंने कौन से तप में चूक किया कि असमय माता बनी। मेरे पिता से कहना कि मैं यहाँ एक कामधेनु की तरह कुटुम्ब का पालन कर रही हूँ।)
इस गीत में ध्यान देने योग्य बात है कि पति बालक है और पत्नी तरुणि, अर्थात् बालपन में ब्याही बालिका के साच युवती जैसा व्यवहार हो रहा है। वह असमय माता बन जाती है। उसका दोहन और शोषण एक ऐसी गाय के समान हो रहा है जिसे सबकी इच्छा का पालन करना है। यह कुप्रथा विद्यापति के काल से चली आ रही है। लेकिन प्रश्न उठता है कि जो समाज एवं साहित्य सामाजिक मूल्यों और मनुष्य मात्र की अभिव्यतियों के दावे करता है उसके यहाँ इन कुप्रचाओं के प्रति स्वीकार भाव क्यों है? यदि यह चुप स्वीकारात्मक नहीं तो इन कुप्रथाओं का विरोध कहाँ है? क्यों नहीं है?
इस कहानी में ‘जगेसर’ मुख्य पात्र है। उसके भीतर बहू जी का वृतांत सुनकर जो क्रोध उबलता है वह शोषण के विरूद्ध दलित साहित्य की प्रतिबद्धता का सूचक है। दलित साहित्य सिर्फ दलित जाति को शोषण मुक्त नहीं करना चाहता अपितु वह एक ऐसा समाज बनाना चाहता है जहाँ कोई भी शोषण का शिकार न हो। वह गैर दलित, स्त्री, कोई भी हो सकता है।
कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि को कथा के मर्मस्थलों की गहरी पहचान है। वे कहानी में स्वाभाविकता के प्रेमी हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि विचारधारा की अभिव्यक्ति के प्रयास में कहानी की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है। यह दिक्कत विशेषकर मार्क्सवादी लेखन की कमजोरी है। एक प्रसंग लेकर देखें कि जब जगेसर सरोज को याद करता है उस समय उसे याद आता है कि सरोज को सैंडिल पहनकर पगंडडियों पर चलने में दिक्कत हो रही थी, वह अपना सैंडिल जगेसर को देती है और कहती है इसे तू पहन। जगेसर सैंडिल हाथ में उठा कर चलता है। अब यदि इसी तथ्य को कुछ ऐसे दिखाया जाए कि सरोज मिल्कियत और रौब में सैंडल उठाने के लिए कहे तथा जागेसर चुपचाप हीन भाव हो उठा ले तो बात वहीं नहीं रह जायेगी। श्री वाल्मीकि प्रेम के समर्पण और अधिकार को, ऊँच नीच के बोध को अपनी कला के माध्यम हो व्यक्त करने में सक्षम हैं।
दलित कहानिकारों में सूरजपाल चौहान की कहानियों का अपना विशेष महत्व है। सर्वप्रथम हमें यह तय कर लेना चाहिए कि दलित विचारधारा के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार श्री वाल्मीकि है। उनके बाद कोई कथाकार अपनी कहानी में उस ऊँचाई तक पंहुचा दिखाई नहीं देता है। इसका एक कारण ओम प्रकाश वात्मीकि का साहित्य का विद्यार्थी होना भी हो सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अलावा अन्य कहानीकारों का कोई महत्व नहीं है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों की बुनावट एक जटिलता लेकर चलती है तथा उसमें समाज के द्वंद्व के साथ-साथ व्यक्ति के आंतरिक द्वंद्व को उजागर किया जाता है। विचारधारा का प्रयोग उनकी कहानी में एक भाव तत्व के रूप में आता है शिल्प में नहीं। बाहरी स्तर पर कहीं भी विचारधारा का प्रदर्शन नहीं होता। संपूर्णता में कहानी उस चेतना को शत प्रतिशत व्यक्त करती है पर हम ऐसा कहीं नहीं पाते कि वे घोर उपदेशवादी या संकल्पवादी हो गए हों।
सूरजपाल चौहान की कहानी ‘परिवर्तन की बात’ एक महत्वपूर्ण कहानी है। दलित साहित्य या विचारधारा के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है इसकी गति को बनाये रखना । इसके लिए तीन तरह के अवरोध उत्पन्न किये जाते है। पहला, इसे महत्व ही न दिया जाए। दूसरा, उसे विकृत किया जाए तथा तीसरे उसे आत्मसात कर लिया जाए। यह तीनो कारक तत्व बौधिक स्तर पर और साहित्य पर लागू होते हैं। लेकिन ग्रामीण और मूर्ख समाजों में दलित चेतना के सामने सबसे बड़ी चुनौती है बाहुबल। बहुसंख्यक गैर दलित समाज द्वारा अल्पसंख्यक दलितों के विकसित होती हुई चेतना को कुंद करने के लिए सदैव बाहुबल का प्रयोग किया जाता रहा है। सूरजपाल चौहान की यह कहानी इसी समस्या को लेकर आती है। गांव समाज में जो पहचान एक बार बन जाती है वह मिटती नहीं। खासकर भारत जैसे देश में जहां दलित बौद्ध होकर नवबौद्ध कहलाए, सिक्ख हो कर रविदासिया कहलाए। चमार शब्द से छुटकारा पाये लेकिन जाटव शब्द के रूप में उनकी पहचान पुरानी रही। भारतीय समाज की सबसे बड़ी खामी यह रही कि जाति को व्यवसाय सेजोड़ा गया। इसी यथास्थितिवाद की स्थापना में वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था बनी तथा मनु से लेकर गांधी तक इसके हिमायती रहे। इस व्यवस्था में निकृष्ट से निकृष्ट काम दलित जातियों से कराये गये तथा समाज की मंशा यह बनी कि हिन्दू होने के नाते उनका यही धर्म है।
‘परिवर्तन की बात में रघु ठाकुर की गाय मर जाती है तथा वे उसकी चाम उतारने और दफ्न करने के लिए चमारों की बस्ती में किसन को कहते हैं। किसन का पुत्र शहर से पढ़कर आया है तथा अपनी चेतना से अपने सभी भाई-बंदों को अवगत कराता है। परिणामतः पूरी बस्ती के चमार लोग खाल उतारने का काम बंद करने का प्रण कर लेते हैं। ठाकुर का करिन्दा उसे डराता धमकाता है। रातों रात चोरी डकैती के कुचक रखे जाते है तथा पुलिस की सहायता से दलितों को उत्पीड़ित किया जाता है। लेकिन किसी भी तरह जब वे नहीं मानते तो आखिर में ठाकुर द्वारा पूरी बस्ती को कांटेदार तारों से घेर दिया जाता है। कहानी इसी दुविधा में समाप्त होती है कि आगे क्या हुआ होगा।
इस कहानी में दलित चेतना की दो प्रमुख विशेषताएँ उभर कर सामने आती हैं। पहली, जब किसना, रघु ठाकुर से गाय के संबंध में सवाल पूछता है। इस प्रकार नवीन चेतना से उद्बुद्ध गांव अपने अभावों से जूझकर भी संघर्ष करता है। दलित साहित्य का सबसे बड़ा लक्षण है कि वह परम्परा और अंधविश्वासों पर प्रश्न उठाता है। वह पूछता है कि यदि गाय माता है वे उसकी अंत्येष्टि क्यों नहीं कर रहे और यदि माता नहीं है तो उसके नाम पर दंगे और उसकी पूजा का औचित्य क्या है?
सूरजपाल चौहान की दूसरी कहानी ‘हैरी कब आयेगा’ नई और जाति पांति के भेदभाव से मुक्त समझी जाने वाली पीढी की मानसिक तुच्छता को खोलती हुई कहानी है। प्रेम संबंधों में भी अब जाति की प्रधानता व्याप्ति पा गई है। हैरी जिस लड़की के लिए सबकुछ छोड़ने को तैयार है उसका मन सिर्फ इस बात से बदल जाता है कि वह लड़की जिसे वह प्यार करता है एस० टी० है। रवि नामका जो चरित्र इस कहानी का एक प्रकार से सूत्रधार है वह स्वयं एस० टी० वर्ग का है। आज आरक्षण की नीति का राजनीतिक दल बेजा फायदा उठा रहे हैं। जिस समय वह शुरू हुआ था बाबा साहेब ने उसे निश्चित अवधि के लिए ही रखा पर बाद में उसका इस्तेमाल राजनीतिक हथकंडे के रूप में हुआ। इस कहानी में यह दिखाने का प्रयास हुआ है कि जिस मनोबल बढ़ाने के लिए यह शुरु हुआ आज उसी मनोबल को तोड़ने में उसकी भूमिका है। उच्च शिक्षा और नौकरियों में अपनी प्रतिभा पर जाने वाले छात्रों को भी शक की नज़र से देखा जाता है तथा यह समझा जाता है कि वह आरक्षण के बल पर ही वहां तक आया है। रवि इसी मानसिक घुटन में है। बाद में उसके चारों दोस्त जो कि बड़े धनाढ्य परिवारों के हैं तथा सवर्ण जातियों के है, अपने प्रति उनका व्यवहार देखकर उसका मन बदलता है तथा वह समझता है कि समाज से छुआछूत समाप्त हो चला है। पर हैरी के प्रसंग पर उसके मित्रों की प्रतिक्रियाउसे पुनः उसी मनःस्थिति में डाल देती है। वह सवर्ण समाज के दुहरे चरित्र वे वाकिफ होता है तथा देखता है कि इनके पास अवर्ण समाज के लिए कहीं जगह नहीं न घर में न दिल में।
दलित कथाकारों में श्रीमती सुशीला टाकभौरे का भी अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। श्रीमती टाकभौरे की कहानियों में दलित समस्या को एक नया आयाम दिया गया है। यहाँ विचारधारा के साथ-साथ दलित जातियों के लिए अबतक हुए सुधारों का मूल्यांकन तथा संक्रमण काल के दौर से चल रही पीढी का द्वंद्व दिखाई देता है। ‘संघर्ष’ नामक कहानी में बाल मनोविज्ञान के साथ दलित चेतना को जोड़कर उसका एक नया पक्ष रखा गया है। कहानी का कथ्य यही है कि एक दलित बच्चा जब अपने घर के लोगों और वयोवृद्ध सदस्यों को अपने ही उम्र के अन्य बच्चों के सामने झुकते, डरते अपमानित होते या घृणित कार्य करते समय देखता है तो उसकी क्या मनोदशा होती है। जब उसे इन तमाम बातों के कारण कक्षा में अपमानित किया जाता है तो उसे कैसा लगता है ? प्रायः दलित चेतना की कहानियों में यह दिखाया जाता है कि गांव का कोई चेतनाशील युवक, शहर जाता है तथा पढ़ लिख अपने गांव में आकर जनजागृति फैलाता है। वास्तविकता इस रूप में और इस मात्रा में नहीं है। यदि सारे पढ़े लिखे दलित समुदाय के लोग अपने और समाज के लिए चिंतित हो रहे होते तो भारत में दलितों की स्थिति वहीं नहीं होती जो कि है।
संघर्ष कहानी में चेतना का जो स्परूप दिखाया गया है वह अनुभव के धरातल पर है तथा उसकी वास्तविकता को झुठलाया नहीं जा सकता। लेखिका एक जगह इशारा देती हैं कि वह स्कूल जाता है तथा इस तथ्य से परिचित है कि बाबा साहब की कृपा से वह सबके साथ उठ बैठ, बोल और पढ़ सकता है। लगातार अपमान से जो पीडा उसके अंदर जागृत होती है वह अपनी नानी एवं माता पिता पर ही निकलती है। जब वह यह जान लेता है कि हमें इस दशा में पहुंचाने का कारण सवर्ण समाज है तो वह उनके प्रति घातक रूप अख्तियार करता है। अंत में जब वह स्कूल से निकाल दिया जाता है और अपनी ज़िन्दगी बर्बाद होता देखता है तो स्कूल हेडमास्टर पर लाठी तान देता है, यह दिखाता है कि बिना इस सवर्ण जातिवाद और कुत्सित व्यवस्था पर प्रहार किये दलित को अपना भाग प्राप्त नहीं हो सकता।
एक अन्य कहानी ‘सिलिया’ में लेखिका का स्वर बदला है। यह कहानी दलित लेखिका की अपनी कहानी लगती है। इस कहानी में सवर्ण समाज का दोहरा चरित्र उजागर किया गया है। एक ओर वह झुलसती गर्मी में तपती बच्ची के हाथ में ग्लास भर पानी देने से पहले उसकी जात पूछता है तथा दूसरी ओर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का ढिंढोरा पीटने के लिए अछूत कन्या से विवाह के विज्ञापन देता है। इस कहानी की बुनावट जरा बोझिल सी हो जाती है तथा ऐसा लगता है कि दलित विचारधारा के उद्देश्यों एवं संकल्पोंको यथावत उठा कर रख दिया गया है। अपने मामा की लड़की का जिक्र करते समय नायिका ने सिलिया के माध्यम से जिस दशा का चित्रण किया है वह भी मार्मिक है। रस्सी और बाल्टी छू देने के जुर्म में वह उसकी मालकिन के दण्ड की पात्र तो बनती ही है, अपने घर में भी मार खाती है। यह दलित समाज के लिए एक अंदर तक कंपा देने वाली मजबूरी का चित्र है। जाने अनजाने और इस कुत्सित समाज व्यवस्था के भय से उस दलित जाति ने अपने ही संतानो को बेरहमी से पीटा है, उनका मनोबल तोड़ा है, उनके सपनो का गला घोंटा है। आज जो लोग दलित आरक्षण और आंदोलन का विरोध कर रहे हैं उन्हें सोचना चाहिए कि इन जातियों के इस नुकसान की भरपाई क्या हम कर पाएँगे?
दलित कथाकारों में एक अन्य महत्वपूर्ण हस्ताक्षर मोहनदास नैमिशराय है। नैमिशराय की कहानियों में घटना तत्व की प्रधानता है तथा विचारधारा का स्वर इस घटनाक्रम में अनुस्युत है। इनकी कहानी शैली श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि का अनुसरण करती है। श्री नैमिशराय कवि भी है, आत्मकथा लेखक तथा कहानीकार का इनका वृहत व्यक्त्वि हैं। नैमिशराय की कहानी ‘आवाजें’ दलित कहानी परम्परा में एक अलग प्रस्थान रचती है। श्री नैमिशराय इस मान्यता के बहुत करीब दिखाई देते हैं गांव में चेतना का प्रसार हो चुका है। एक घटना से यह कथा प्रारंभ होती है।गांव के मेहतरों वाले टोले में अचानक यह संकल्प होता है कि आज से हम न जूठन लेंगे न गंदगी ढोयेंगे। गांव का वर्णन करते समय श्री नैमिशराय उच्च वर्ग और निम्न वर्ग की प्रस्थिति और जीवनदशा पर बात करते हैं। यह कहानी इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इसमें सर्वोच्च ठाकुर समुदाय और निम्न मेहतर समाज के बीच के फ़र्क की भी पहचान है। ठाकुर के यहाँ काम करनेवाला बढ़ई मेहतरों के संकल्प को ठाकुरों के यहाँ पहुंचाता है। यह वह वर्ग है जो यों तो छोटा समझा जाता है पर इसे अपनी उच्चता स्थापित करने के लिए तथा उच्च वर्ग के द्वारा मर्दित अपने अहम की रक्षा के लिए निम्न वर्ग पर धौंस जमाना है। वह अपने बल बूते ऐसा नहीं कर सकता अतः उच्च वर्ग की सहायता लेता है।
इस तथ्य की यदि हम शुद्ध मार्क्सवादी व्याख्या करें तो पाएँगे कि बढ़ई मध्यवर्ग का प्रतिनिधि है जिसका स्वतः रूझान उच्च की ओर होता है। वह उसके साँठ-गाँठ से निम्न वर्ग का शोषण करना चाहता है। देखने लायक एक और भी तत्व यह है कि जब वह ठाकुर औतार सिंह के छोटे लड़के को यह बात बताता है और अपने शास्तर ज्ञान का प्रदर्शन करता है तो उसके कान पर जूं नहीं रेंगते। लेकिन जब यह बात ठाकुर औतार सिंह तथा पुरानी पीढ़ी के लोगों के पास जातीतो गांव में बवाल मच जाता है। कहीं न कहीं लेखक यह मानता है कि नयी चेतनाशील पीढ़ी इस प्रकार के दकियानूसी रिवाजों से मुक्त हो रही है। यह एक बहुत ही धनात्मक प्रतिक्रिया (Possitive respons) है। यदि इसे रूपक माने तो हम यह पाते है कि दलित के शोषण का बीज पुरातन काल औरपुरातन परम्परा में निहित है।
कहानी में ठाकुरों द्वारा कुचक्र रचा जाता है तथा थाना पुलिस के सहयोग से जोर जुल्म किया जाता है। कुछ दलित चोरी डकैती के जुर्म में जेल जाते हैं। स्त्रियों द्वारा ठाकुर के कारिन्दे की झाडू से मरम्मत की जाती है। मामला राजनीतिक होता है। संसद तक जाता है और अपने नेताओं तथा पढ़े लिखे ऑफिसरों के प्रयासों से दलित मुक्त हो जाते हैं। मुक्त हो जाने के उपलक्ष्य में शराब और मांस की घनघोर दावत होती है। उधर ठाकुर दलित ऑफिसर से अपमानित होकर कुछ भी कर बैठने की ठानता है तथा नशे में धुत्त हो कर गांव को आग लगवा देता है।
श्री नैमिशराय की यह कहानी आखिर में दुखांत हो जाती है। ठाकुर का जुर्म हारकर भी जीत जाता है जबकि दलित अपनी लड़ाई जीतकार भी हार जाते हैं। ऐसा क्यों? इसका उत्तर पाने के लिए जब हम दलित परिवारों द्वारा मनाचे जा रहे उत्सव का वर्णन बढ़ते हैं तो उससे यह व्यंजना आती है कि दलित वर्ग ने अभी जो भी प्राप्त किया है वह अधूरा है। उस वर्ग के कुछ नेता, कुछ ऑफिसर जहां हैं, वे अपने समाज के शुभचिंतक भी है पर यह प्रगति इतनी नहीं कि सारा दलित समाज नशे में आ जाए या निश्चिंत हो जाए। उसकी उपलब्धियाँ अभी शैशव काल में हैं। उसे विशेष सतर्क रहने की जरूरत है तथा अपने पूरे वर्ग एवं समाज का विकास करके ही दम लेना है।
श्री नैमिशराय की एक बहुत ही महत्वपूर्ण कहानी है ‘महाशूद्र’। जाति और वर्ण के पदानुक्रम में ब्राह्मण को सर्वोच्च पद माना गया तथा सूद को सबसे निम्न। कुछ ऐसे भी वर्ण बने जो किसी वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के अंतर्गत न थे। ये अंत्यज, श्वपच चांडाल आदि कहे जाते थे। चांडालों का काम लावारिस लाशों को जलाना, मृत्यु होने पर दाह आदि कर्म करना तथा मृतक के वस्त्रों को धारण करना था। कालांतर में यह कार्य डोम जाति के साथ जुड़ गया। ‘महाशूद्र’ कहानी इसी ‘डोम जाति तथा ब्राह्मण जाति के अंत्येष्टि कर्म करवाने वाले आचार्य जी की कहानी है। दोनो एक साथ मरघट में रहते हैं। काम वहाँ दोनों के अलग अलग है। अपने अपने घरों में अपनी अलग जीवनदशा है परंतु दोनों के जीवन में सामाजिक उपेक्षा का भाव गहन है। नंदू डोम अपने कार्य के लिए नहीं अपितु जाति के लिए अन्य जातियों द्वारा घृणा का पात्र बना है। वह यदि मरघट का काम छोड़ भी दे तो समाज में उसी नज़र से देखा जाएगा। ठीक ऐसे ही पंडित जी अपनी बिरादरी में तथा अपने से नीचे की जाति में भी घृणित माने जाते हैl परिणति यह होती है कि घर में शुद्धता और पवित्रतावादी पंडित जी मरहट में नंदू डोम के साथ शराब पीते है तथा उससे कोई छूआछूत नहीं रखते । अब प्रश्न उठता है कि कहानी की संवेदना किधर है? कहानी की संवेदना जानने के लिए हमें उसके पाठों पर धान देना चाहिए। पहला पाठ इस कहानी का इस रूप में हो सकता है कि व्यक्ति के मान अपमान का कारण उसका पेशा है और उस कर्म को चुनने की इसकी मजबूरी जन्मना तय हुई है। अतः उसके कर्म के आधार पर उससे भेदभाव अच्छा नहीं है। दूसरी ओर यदि यह देखा जाए तो आर्थिक रूप से भी जुड़ा है। आचार्य जी पढ़े लिखे है, समाज में उनकी प्रस्थिति नंदू की अपेक्षा उच्च है परंतु इन सबके बावजूद वे अपने परिवार के प्रतिपालन के लिए वह कार्य चुनते हैं जो घृणित समझा जाता है। लेकिन वे लोग जिनके पास उसे छोड़ कोई चारा नहीं, उस कर्म को छोड़ कर भी वे उच्च प्रस्थिति नहीं पा सकते, भूखो मरने की नौबत आ सकती है, उनके साथ हमारा बर्ताव बुरा क्यों है? उस कार्य को हम घृणित क्यों मानते है जिसकी अनिवार्यता जीवन में है? यदि वह कर्म नीच ही हो तो उसने स्वेच्छा से तो नहीं चुना, फिर उसके लिए हम उसके प्रति घृणा की भावना क्यों रखें!
समग्र रूप से हम दलित कहानियों को जब देखते है तो पाते है कि ये कहानियां अबतक की चली आ रही कहानी परंपरा में अपना एक अलग स्वर लेकर आती हैं। जातिगत उत्पीडन शोषण, वर्ण व्यवस्था एवं हिन्दू विधानों के समांतर तार्किक प्रश्न खड़े करती हैं। इन कहानियों के माध्यम से दलित चेतना का जो स्वरूप सामने आता है वह बहुत ही स्पष्ट है। सबसे प्रमुख स्वर इन कहानियों में यह है कि एक शोषण मुक्त समाज का निर्माण हो । संविधान की प्रस्तावना में स्वीकृत एकता, अखंडता एवं बंधुत्व ही इसका लक्ष्य है। ये कहानिया उन संदर्भों की खोज बीन करती है जिन्हें जाति, वर्ण के नाम पर हजारों वर्षों से दबाया गया। ये उन अधिकारों की माँग करती हैं तथा मानव मात्र के बीच समता एवं एकात्म की वकालत करती हैं। अम्बेडकरवादी विचारधारा को ले कर आगे बढ़ी इस धारा ने यह प्रमाणित किया है कि शिक्षा और स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार तथा इन दो तत्वों के बल पर व्यक्ति किसी भी ऊँचाई को पा सकता है। हर प्रकार के कर्मकाण्ड, छुआछूत आदि का निषेध कर यह धारा एक ऐसे विश्व का निर्माण करना चाहती है, जहाँ कोई किसी से बड़ा या छोटा न हो।
सहायक-ग्रंथ-सूची
① सलाम (कहानी संग्रह), ओमप्रकाश वाल्मीकि
② आवाजें (कहानी संग्रह), मोहनदास नैमिशराय
③ हैरी कब आएगा (कहानी संग्रह) सूरजपाल चौहान
④ संघर्ष (कहानी संग्रह), सुशीला टाकभौरे
⑤ दलित विमर्श की भूमिका-कँवल भारती
⑥ साहित्य और दलित दृष्टि मैनेजर पाडेय, संपादक-सर्वेश कुमार मौर्य
सुशांत कुमार शर्मा (जन्म : 1993) नई पीढ़ी के कवि-आलोचक हैं। भोजपुरी में उनका एक खंडकाव्य ‘जटायु’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। उनकी उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से हुई है। उनसे sushantbhu431@gmail.com पर बात की जा सकती है।