कविताएँ ::
आनंद बलराम

आनंद बलराम

बचपन में सारस

मैंने कभी सारस नहीं देखे
माँ कहती हैं—
जब वे दुल्हन बनकर आई थीं,
यह गाँव सारसों से भरा था
उन दिनों बारिशों के लंबे झड़ लगते थे
तलहटी के खेतों में धान होते थे
अब ना झड़ है
ना धान
ना ही डोलते दिखाई देते हैं
खेतों में सारसों के झुंड

मुझे तो याद नहीं
माँ बताती है—
एक बार धान रोपने आई थी खेत पर
हर बार की तरह खुरपी कुदाल के संग
मुझे भी गोद में ले आई थी
मेंढ़ पर बिठाकर, थमाकर रोटी का टुकड़ा
काम में लग गई थी
मुझे वहीं दिखाई दिया कोई सारस का जोड़ा!

मैंने चलना सीखा ही था
मैं उनकी ओर चल दिया था
एक खेत से दूसरे खेत
आगे सरकते गए सारस
मैं फ़सलों में गिरता पड़ता
पीछे पीछे बढ़ता गया
रोटी देना चाहता था
या मुट्ठी में भींचना
ये तो नहीं पता
लेकिन दस खेत दूर तक चला गया था इसी तरह

जब कमर सीधी करने खड़ी हुई माँ
खेत ख़ाली पाकर उनकी साँसें अटक गई थीं
झाड़ों और कासों में
ढूँढ़ती हुई सिसकने लगी माँ
जब दूर किसी किसान ने
सुनी माँ की सुबकियाँ—
वह भी बदहवास-सा
खेतों में चक्कर लगाने लगा
थोड़ी देर बाद
दूर किसी खेत से उठाकर
वह वापस लाया मुझे
माँ की गोद के पास

सोचता हूँ—
अब धरती पर कितनी दूर जाना होगा
मुझे सारस का कोई जोड़ा देखने
सारस धरती के बच्चे हैं
धरती कितनी रोती होगी
बच्चों को दूर जाते देख!

लकड़बग्घा रो रहा है

लकड़बग्घा रो रहा है—
आँसुओं में डूब रहे हैं महाद्वीप
आँसुओं से समुद्रों की परिधि बढ़ रही है

उसकी प्रजाति को
हमने तब से सीखा है गाली देना
जब नहीं थी भाषा भी
उसके वंशजों को तब से कर रहे हैं तिरस्कृत
जब नहीं आता था आग भी जलाना

आज तो मशीनें भी जानती हैं भाषाएँ
सारी दुनिया को ख़ाक करना भी जान गए हैं
पर नहीं भूले
लकड़बग्घे को गाली देना!

मनुष्यों की दुनिया
तुम्हारी दुनिया थी
तुम्हारे मसले
तुम्हारे घर के मसले थे
एक मनुष्य ने दूसरे को बुरा कहने के लिए
क्यों घसीटा
पृथ्वी पर भोजन के लिए भटकते जीव का नाम

सोचता होगा लकड़बग्घा
किसी खोह में अकेला
कि क्या तुम्हारा शब्दकोश छोटा पड़ गया था
क्या तुम्हारे मुहावरे क्षीण हो गए थे
कविता से लेकर तहसील के काग़ज़ों तक
कितना कुछ है तुम्हारे पास
क़ब्ज़े को बनाए रखने का जाल

मेरे हस्ताक्षर के बिना
जंगल छीने
किसी सुनवाई के बिना
अपराधी बनाया
जीवन के इतिहास में
कभी हँसने का अवसर नहीं दिया
फिर भी ऐसे रचा
जैसे कितनी अट्टहास भरी हँसी हँसता हूँ

पूछना चाहता है लकड़बग्घा
ऐसा क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा
कब आया था तुम्हारे बीच आड़ा
कब देखा था तुमने मुझे हँसते हुए!

मेंढ़ पर जीवन

दूर तक फैला मैदान
मैदान में बिस्कुट जैसे खेत कितने सुंदर लगते हैं
वहीं पगड़ी पहने बिजूका
मनुष्य का प्रतिनिधि है
हाथ में लट्ठ टिकाए
वह कितना सुंदर लगता है
अगर यह सब सुंदर लगता है
तो यह सौंदर्य की सबसे सीमित दृष्टि है

ये खेत हमने अपने लिए बनाए हैं
ये खेत सुंदर सहज संसार की क़ीमत पर बने हैं
ये खेत अगर पेट की नाप तक रहते
और पेट की नाप भी होती सीमित
तब भी ठीक थे
लेकिन अब ये मेरे लिए कारख़ानों की तरह हैं
जिनमें ज़हर के ट्रक उगाकर मंडियों तक पहुँचाये जाते हैं
ज़हर की होड़ में
हमने इतना छीला-छाँटा है पृथ्वी को
कि बँटवारे का यह खेल
ख़तरनाक मोड़ तक आ गया है
इंसानी अखाड़े से बाहर का संसार
सिर्फ़ मेंढ़ तक सिमट गया है

अब अपनी मर्ज़ी से उगना चाहे कोई पेड़
तो यही मेंढ़ शेष है
अब मर्ज़ी से खिलना चाहे कोई फूल
तो यही जगह शेष है
यहीं शाख पर झूलती सकती हैं मधुमक्खियाँ
यहीं कोई खातीचिड़ा तिनके जोड़ता है
यहीं दीमोले में जनती है घो अपने बच्चे
यहीं कोई सर्प लंबी निद्रा में लीन रह सकता है
अब यही इनकी सृष्टि है
यही इनका ब्रह्मांड

लेकिन वर्ष में आते हैं फिर ऐसे भी महीने
जब दूर आकाश में बादल देखकर उठते हैं ज़मींदार
गरजते ट्रैक्टर लिए खेतों में पहुँचते हैं
सींक जोड़कर पहले सुलगाते हैं अपने होंठ
वही सींक लाँफ के कोने में टिका देते हैं

दूर तक धूँ-धूँ फैल जाती हैं अग्नि-रेखाएँ
दूर तक आकाश में बादलों से धुआँ जा मिलता है
लपटें चढ़ती हैं पेड़ की टुगली तक
लपटें मेंढ़ पकड़कर आगे बढ़ती हैं
वे धरती के पेट में दुबके जीवन तक नीचे उतर जाती हैं

जो सृष्टि सिर्फ़ मेंढ़ तक बची थी,
हाहाकार मच जाता है
सामूहिक संहार का रुदन होता है
रुदन की इस भाषा से अनभिज्ञ
हम अपनी सृष्टि में लौट आते हैं

किसी से मिलने के बाद

वह पहाड़ी से नीचे उतर रही है
नदी की तरह
घूमती-घामती हिचकोले खाती
नीचे उतर रही है
शायद लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी है
किसी के लिए
प्रतीक्षा के बाद
किसी से मिलकर वह नीचे उतर रही है

उसकी चुनरी
झाड़ियों में अटक रही है
लहँगे से चिपटकर चींचड़े साथ चल रहे हैं
लाल रिबन उड़ रहा है पीठ के पीछे
कीट और पतंगें साथ उड़ रहे हैं
चट्टानों में दुबकी झींगुरियों के सनसनाते राग में
उखड़ा-सा कोई गीत गाती
वह नीचे उतर रही है

तारों की तरह बिखरे बीहड़ के फूल
आँखों से चूम रही है
दूर तक फैली आकाश में तितलियाँ
आँचल में बुला रही है
फूलती साँस के साथ आहिस्ता पाँव धरते
पीछे सूरज
आगे चंद्रमा को देखती
वह नीचे उतर रही है

एक नेवला
आँखें उठाकर वापस बिल में छिप गया है
एक गेदुआ
अपने बालों जैसी सुनहरी घास को
दूर तलहटी से निहार रहा है
कातिक की पीली चमकीली घास
हथेलियों से दुलारती
वह नीचे उतर रही है

वहीं ढलान पर खड़ा है
कीकर का पेड़
शाख पर मधुमक्खियाँ डोल रही हैं
खातीचिड़ा छील रहा है कोटर
चिड़ी उसका साथ दे रही है
वे काम छोड़कर देख रहे हैं
उसे बग़ल से गुज़रते हुए
उनसे क्षमा माँगती
वह नीचे उतर रही है

मोर चढ़ आए हैं पेड़ों पर
वे बिस्तर जमा रहे हैं
तिरछी क़तारों में साँझ के तोते
पश्चिम में जा रहे हैं
‘मुझे भी जल्दी पहुँचना है अपने घर’
वह सोच रही है

वह धरती को दुआएँ दे रही है
जब तक रहेंगे ये दृश्य धरती पर
प्रेम का सुख भी रहेगा जीवन में
सोचते हुए
वह नीचे उतर रही है!


आनंद बलराम नई पीढ़ी के कवि-लेखक हैं। उन्होंने अपना आरंभिक लेखन बलराम कांवट के नाम से किया है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘मोरीला’ उनका एक बेहद सुंदर उपन्यास है। उनसे balramkanwat@gmail.com पर बात की जा सकती है।

3 Comments

  1. शैलेंद्र शांत अक्टूबर 1, 2024 at 7:34 पूर्वाह्न

    अच्छी कविताएँ। कवि को बधाई!

    Reply
  2. Vijay Rahi अक्टूबर 2, 2024 at 2:26 पूर्वाह्न

    सुंदर कविताएँ। कवि आनन्द बलराम को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। कविताएँ पढ़वाने के लिए सदानीरा का शुक्रिया 🌼

    Reply
  3. Ram अक्टूबर 2, 2024 at 4:17 अपराह्न

    Dil ki gaharayio Tak utar jateho, bahut khub likhte ho

    Reply

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