कविताएँ और तस्वीरें ::
सुमेर
रेगिस्तान में बारिश
अचानक से आसमान अपना रंग बदल देता है
बरगद के पत्ते देखने लगते हैं आसमान के पानी को
अब आसमान नीला रंग छोड़कर धूल से भर चुका है
चारों तरफ़ आवाज़ें हैं कि मेह बरसेगा अब
पेड़ों से लटकते बच्चे भागकर घरों में घुस गए हैं
भीगना बच्चों को पसंद है
लेकिन माँएँ उन्हें भीगने नहीं देतीं।
इस देस में बारिशें बहुत कम होती हैं
लेकिन होती हैं तो ख़ूब डरावने अँधेरे से भरी
बाड़ों में बछड़ों के खुरों तक भर आता है पानी
घने पेड़ों से झड़ने लगती हैं अधमरी चिड़ियाँ
खड़ी फ़सलों पर तैर जाती है ओलों की सफ़ेदी
किसान कभी खेत को देखता है कभी आसमान को।
छत से टपकता पानी रिसकर अनाज को छूने लगता है
दीवार से टकराकर गूँजने लगती हैं आवाज़ें
स्त्रियों के बाज़ुओं में खिल उठती है दबी हुई ताक़त
रात की बारिश के बाद का दृश्य है यह
धीरे-धीरे साफ़ आवाज़ों में बोलने लगते हैं झींगुर
रह-रहकर चमकती बिजली में मुँडेर पर दीखता है आसमान।
बारिश के बाद खिल उठता है यह देस
दिन उगते ही मोर छेड़ देते हैं राग अल्हैया बिलावल
रेत से निकलकर महक सारे गाँव में फैल जाती है
रेत के टीलों पर खरपतवार की तरह उग आते हैं बच्चे
वैशाख के मौसम के रंग झरने लगते हैं आसमान से
धीरे-धीरे आसमान सफ़ेद होकर ढँक लेता है धरती को।
लौटना
क्या मैं सच में लौट पाया हूँ
रेत, मैदान, जंगल और पहाड़ी
से घिरे उन घरों में
जहाँ मेरे पाँव चलते थे।
क्यों लगता है मुझे कि
मैं हस्तिनापुर में संजय होकर
दिमाग़ से पैदल धृतराष्ट्रों को
सुनाता रह जाऊँगा
बुने गए झूठ।
कितना बुरा होगा वह वक़्त
जिस आत्मा के लिए मैंने दौड़ लगाई
उसके पुकारे जाने पर
लौट नहीं पाऊँगा।
नैतिकता की खाल
इन दिनों सब तरफ़ छाया है
अजीब-सा कुहासा
उदासियों से भर गए हैं
बारिशों में धुले हुए दिन।
मैंने पहले कहा गोडावण
फिर कहा अच्छे दिन
और फिर कहा अच्छे लोग।
बिजली के ऊँचे खंभों पर
झूठ से भरी बातों पर
और लोगों की दुष्टताओं पर
रो रही हैं संभावनाएँ।
अजीब कुहासा निकला है शिकार पर
नैतिकता की टाँग फँस चुकी है जाल में
जब बीत जाएगी यह रात
मोड़ दी जाएगी नैतिकता की गर्दन।
दूर रेगिस्तान के बियाबान में
किसी बर्तन में पक रहा होगा गोडावण।
झूठी भाषा में दिए जा रहे होंगे
अच्छे दिनों के पक्ष में कुतर्क।
ओढ़ ली जाएँगी दुष्टताएँ
संभावनाओं को बेमौत मारकर।
रहेगा सब कुछ अब भी वैसे ही
छँट जाएगा उदासियों से भरा कुहासा
साफ़ हो चुके मौसम में सुनाई दे रहा होगा
चारों तरफ़ गूँजता हुआ एक ढोल
जिसे मढ़ा गया है नैतिकता की खाल से।
शेष सत्य
पागल होगा वह आदमी
जिसने सुननी चाही होगी पहली कविता
तंग हो गया होगा वह
प्रेमिकाओं के सच्चे प्यार से
शराबियों के उगले गए सच से
दिशांतरियों के देखे गए टीपणों से
दोस्तों के न होने से
दुश्मनों के खो जाने से
रिश्ते-नातों से चट गया होगा वह
किसी शाम जब आता होगा बवंडर
लिख दी होगी खो जाने जैसी पहली पंक्ति
और डूबकर खो गया गया होगा
तब आवाज़ जो वह सुनना चाहता था
उसने दिया होगा अभिशाप।
तब से उसने प्रण ले लिया
कविताएँ न सुनने का
आवाज़ों को न सुनने का
बरगद पर चहकती फ़ाख़्ताओं जैसी आवाज़ें
जो उसके लिए थीं ही नहीं,
बस अब वादे आवाजों के शेष हैं।
और पहली बार जो सुननी चाही आवाज़ शेष है।
सुमेर की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह उभरते हुए रचनाकार हैं। उनसे और परिचय के लिए इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित उनका गद्य यहाँ देखें : सबसे ज्यादा प्रेम उसने रास्तों से किया │ मैं मुझे ही देख रहा हूँ
बेहद खूबसूरत कविताएं और छायाचित्र,बधाई सुमेर बेटा👌
बहुत ही शानदार लिखा हैं, सुमेर