कविताएँ ::
अपूर्वा श्रीवास्तव

भाग जाने की इच्छाओं के बीच पिता की दुनिया
पहली बार पिता पुकारने से पहले
मेरे सामने एक दुनिया थी
सुंदर-असुंदर की समझाइश से परे
कुछ फूल और मिट्टी और दूब के बीच
कनेर और महुए की गंध से भरी
दूसरी बार पिता पुकारने से पहले
मेरी हथेली मिट्टी में सनी थी
दुनिया और दुनिया की बातों से दूर
बेफ़िक्री की हद तक
तीसरी बार पुकारने को ही थी
कि पिता ने मेरे हाथ में रख दी
चेख़व की कहानियों की जर्जर किताब
चौथी बार पुकारने से बेहतर लगा
भाग जाना
सो भाग ही रही थी
कि पिता ने यक़ीन दिलाया—
पिता भी होता है कोई आदमी ही
गिरने और भागने के बीच
ख़ुद को साबुत बचाता हुआ
कई बार तो हुआ ऐसा
कि मेरे पुकारे जाने से पहले ही
किसी पूर्व-पीठिका की तरह
उपस्थिति रहे वह
भाग जाने की इच्छाओं के बीच
किसी निर्णायक की तरह नहीं
बल्कि उस यक़ीन की तरह
जिस यक़ीन से मिल ही जाता है
थाली में अनाज
अलमारी में कपास
और जूझते हुए
पसलियों में दृढ़ आत्मविश्वास!
उधड़ी देह
केवल देह समझे जाने का एहसास
कुरेद डालता है आत्मा
बेलौस दर्द और बेज़ुबान चीख़ें
समाती जाती हैं
सिलवटों में परत-दर-परत
किसी अतल गहराई में
गिरने की पीड़ा पहाड़ नहीं
उससे टूटा पत्थर जानता है
देह के सहारे काँपता है भरोसा
जानने की सब परिभाषाएँ होती हैं धूमिल
और न जानने का डर अधिक गहरा
उधड़ी हुई देह जवाब है
कि प्रेम कर चुका है प्रस्थान
(अ) सहमतियों के पुल टूट चुके हैं
और नेह की सब परिभाषाएँ ढूँढ़ती हैं
जाँघों के बीच कोई रास्ता।
अभिनय
कैसी हो तुम—
सवाल की तरह नहीं
यातना की तरह गिरा मुझ पर
अचानक याद आया
मैं हूँ, मैं थीं…
तब भी जब यह सवाल
भाषाई-बोध से दूर था बहुत
और तब भी जब
मेरे याद दिलाए जाने पर
तुम्हें याद आया मेरा होना
कितनी असुंदर होती जा रही है दुनिया
कि संवाद बचाए रखने के उपक्रम में
तुम्हें भी कूदना ही पड़ता है
घिसे सवालों के पोखर में
जहाँ से चुन लाते हो तुम
ज़ंग लगा एक सवाल
मेरे लिए
जिसका उत्तर पाने की
कोई बेचैनी नहीं
न उत्सुकता
तुम जानना तक नहीं चाहते
एक रिक्त हँसी के साथ
कहना ही पड़ता है—
ठीक हूँ!
यह जानते हुए कि
कितना मुश्किल भरा काम है
पहाड़ तोड़ने से कहीं ज़्यादा
आँच पर चलने जैसा
जब ठीक नहीं होती हूँ
अभिनय करती हूँ—
तुम्हें ईर्ष्या होती है
खटकने लगती हूँ
कितना अच्छा अभिनय करती हूँ!
दो शहरों के बीच
चारुकेश,
तुम नहीं हो यहाँ
कोई पास नहीं है
मुट्ठी भर मिट्टी है केवल
और आँख भर आसमान
याद…
किसी पुराने घर की दीवारों-सी है
रिसती रहती है आत्म की आँख से
और भीग जाता है मन
उधड़ आता है चेहरे का चूना
चाँद…
दूर दो शहरों के बीच एक दरवाज़ा है
किसी तारक-पुंज की ओर खुलता हुआ
अमलतास के फूलों के बीच
सेमल के वृक्षों के नीचे
देखती हूँ तुमको
दिखता है संसार
झील-झरनों से भरा हुआ
पानी-सा साफ़
जीवन-सा हरा
औंधे मुँह गिर पड़ता है विज्ञान
प्रेम के गर्भ में
प्रेम में होना
एक दूसरी दुनिया में होना है
ईमानदारी और लज्जा की गिरह में होना है
जहाँ यातना के स्वर नहीं गूँजते
फूटती हैं कोपले
केवल—
मनुष्यता की!
एक दृश्य और… इस तरह शुरू होता है
पहाड़ के सिरहाने से निकलती है एक नदी
जिसके दोनों तीरे खेलते हैं हंस
प्यास नदी की ओर ले जाती है
नदी कहती है—
पानी की लिपि में
प्यास मछली है
जो प्यासी है
और पत्थर हुई जा रही है
एक गिलहरी
मूँगफली की भाषा में
जीवन खोजती
मन टोहती है
और मुस्कुराहट के साथ
जीवन का एक महान् दृश्य खो जाता है
बग़ैर आवाज़
पत्तों के गिरने और
नम टहनियों का सबब नहीं
लेकिन पेड़!
वर्षों से खड़ा सुबक रहा है
जाने किस भाषा में?
कुछ नहीं
मैंने नदी पर
लिखनी चाही कविता
और बहाती गई कागज़ नदी में
इक नुक़्ता छूट जाने पर
मैंने पानी पर भी लिखनी चाही कविता
और पानी में उड़ेल दी स्याही
ताकि गँदलापन कहीं से झाँक न सके
मैंने चाहा हवा पर कविता लिखूँ
और विचार करते रहने के अभिनय में
फूँक डाली कई सिगरेटें
मैंने चाहा किसी पेड़ पर भी लिखूँ कविता
सो उसकी लकड़ी से
एक मेज़ बनाई पहले
कुल-मिलाकर
मृत्यु को सौंपते हुए
मैंने जीवन पर एक कविता लिखी
और फिर कुछ नहीं किया
कुछ नहीं…
खोज
सन्नाटे को चीरती
एक चिड़िया
उड़ती हुई
दिशाविहीन मेघों के बीच
कर्कश आवाज़ में
शामिल है—
खोज
कोई है जो
बिछड़ गया है।
अपूर्वा श्रीवास्तव की कविताएँ ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : स्त्री के थोड़ा अधिक स्त्री होने के संदर्भ में
सभी कविताएं अच्छी लगीं।अपनी बुनावट से ध्यान खींचती हैं।