कविताएँ ::
अपूर्वा श्रीवास्तव

अपूर्वा श्रीवास्तव

चौराहा

स्त्री-मन पर लिखी कविताएँ
आहत करती हैं कविताओं को

कविता चौराहा है
जहाँ स्त्रियाँ नहीं करती हैं इंतिज़ार
लाल सिग्नल के हरे होने का

वे घूमती हैं बेखौफ़
स्तनों में तपिश लेकर
भरती हैं इच्छाएँ
करती हैं प्रेम
चूमती हैं अपने पसंद के होंठ
चौराहे के बीचोबीच

स्त्री बची रहती है
सिवाय स्त्री के
कुछ और होने से
भेदती हुई एकांत
करती हुई अट्टहास

कविता वह जगह है
जहाँ स्त्री की देह
विलास का नहीं
वेदना का विषय होती है

स्त्री के थोड़ा अधिक स्त्री होने के
संदर्भ में लिखी कविताएँ
अक्सर अशिष्ट और असभ्य
कही जाती रही हैं
बावजूद इसके
भला कौन कर सकता है पृथक
आत्मा को उसकी अनुभूति से
कविता को स्त्री से।

पिता के होने से स्वयं पिता होने तक

पिता नहीं चाहता
पिता की परिभाषा में सही-सही बैठना
वह भागता है
बहुत दूर अकेला
और लौट जाता है
पिता होने के स्थान पर
उसे मालूम है पिता न होने का दुःख

मैंने देखा है
पिता को पिता के लिए बिलखते
पिता की चीख़ में मौजूद हैं सारे तत्त्व
पर उनके पिता के शब्दकोश में
धुंधले हुए सब शब्दों में
सबसे अधिक धुँधला चुका है शब्द—
लौटना

अंत की ओर जाते हुए बाबा
छोड़ गए अपना पितृत्व
पिता के भीतर
पिता भी छोड़ जाएँगे मेरे भीतर

इस भूगोल से
उस भूगोल तक
पिता के होने से
स्वयं पिता होने तक
नहीं बच सकेगा
सबके हिस्से का पितृत्व

नहीं बच सकेंगे पिता।

एक आख़िरी

उगता रहा
दबता रहा
बढ़ता रहा
ज़मीन के हिस्से का पौधा
लड़ता रहा
लड़ता रहा पेड़ होने को।

पेड़ के हिस्से की जमीन
निगल गया—
आदमी।

आदमी के हिस्से का पेड़
उसने लगाया ही नहीं।

क्या बचेगा
जब नहीं बचेगा वह
जिसने बचाए रखा है हमें
आदिम सभ्यताओं को
कई सदी से।

पेड़,
लौटोगे?
जब मार रहा होगा चोंच
बंजर भूमि में
एक आख़िरी कठफोड़वा।

माँ की एड़ियाँ

अकेले और बोझिल क्षणों में
कल्पना के रेशमी तागों से
फँस जाती है
माँ की फटी एड़ियाँ

परत-दर-परत
सहम-सहमकर
नोचती हूँ जिल्द
करती हूँ समतल
चाँद के सापेक्ष्य
एड़ियों को।

चाँद प्राकृतिक उपग्रह है
धरा का
माँ की एड़ी वही चाँद
जिसकी धरती—
गृहतल!

खुरदुरी
फटी
एड़ी
पुराने खँडहर की तरह
आंशिक अवशेष है—
वृद्ध काया का

वह अड़िग है
थकती नहीं…

घर की नींव का स्थायित्व
माँ की एड़ी में
विश्राम करता है।

पानी की प्यास

कल-कल
कल-कल
कल-कल

यह पानी का नहीं
जिज्ञासा का स्वर है

समूचे गोले पर क्यों बिखरी है
पानी की लिपि

क्यों मुखर हो उठता है
उसका स्वर
ऊसर भूमि पर

किसकी प्रतीक्षा में
बहता
वह
सतत

कौन बुझाता है
पानी की प्यास?

प्रतीक्षा

तुम्हें पाने के लिए मैं
एकांत नहीं तलाशती

दिनचर्या की प्रत्येक
क्रिया में रहते हो तुम

और प्रतीक्षा में
थोड़े अधिक

घट रहा है जीवन

प्रेम नहीं
केवल उम्रें ढलती हैं
प्रतीक्षा में।

कोबाल्ट ब्लू देखते हुए

प्रेम एक अंतहीन यात्रा है
उस पुरुष के लिए
जिसके स्वप्न में मौजूद हों
ढेरों कविताएँ
चुनिंदा फ़िल्में
और एक पुरुष

जिसे चूमते हुए
होंठों से अधिक
सक्रिय रहती हों
उसकी आँखें
जिसके स्पर्श मात्र से
फैल जाती हो स्मित
उसकी देह के पोर-पोर में
उसी में तिरता हुआ
ढूँढ़ा उसने वह वर्ण
जो था सब वर्णों से श्रेष्ठ—
नीलवर्ण!

किसी चटकीले नीले रंग की
साइकिल-सा
नीले कैनवास-सा
नभ-सा
समुद्र-सा
या नेह-सा

उसी नीले रंग को
शब्दों में समेटता वह
बनता गया रौशनाई
और फैल गया
कई बिखरे पन्नों पर
प्रेम के पगचिह्न बन।


अपूर्वा श्रीवास्तव की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह झारखंड से हैं और फ़िलहाल काशी हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक कर रही हैं। उनसे apurwa2602@gmail.com पर बात की जा सकती है।

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *