कविताएँ ::
आवेश तिवारी
ख़ूबसूरती
सबसे ख़ूबसूरत होते हैं वे शहर
जहाँ घरों की छत और खिड़कियों से
हम भूले-भटके सितारों को देख पाते हैं
और जिस शहर में एक गाँव होता है
सबसे ख़ूबसूरत होते हैं वे साथी
जो देर शाम घर लौटने से पहले
अपनी आँखें अलगनी पर टाँग आते हैं
और भूल आते हैं
अपना पर्स, क़लम या रूमाल
सबसे ख़ूबसूरत होते हैं वे लोग
जो बातें करते वक़्त आपकी आँखों को नहीं
उँगलियों और उलझे हुए बालों को देखते हैं
और जिन्होंने आपके पाँवों के निशान को
अब भी आँगन से मिटने नहीं दिया है
सबसे ख़ूबसूरत होती है वह शाम
जिसमें सूरज नदी किनारे डूबता है
और रात अपनी हाज़िरी लगाने से पहले
चाँद को आसमान पर सरका देती है
सबसे ख़ूबसूरत होती है वह दूरी
जिसमें एक दूसरे का हाल
किसी तीसरे से पूछा जाता है
फिर भी सारी ताक़त
उन दूरियों को बनाए रखने में लगा दी जाती है
सबसे ख़ूबसूरत होता है वह इंतिज़ार
जिसमें सारी उम्मीदें सो चुकी हों
मगर दरवाज़ा हवाओं के झोंके से
बार बार खड़खड़ाए
सबसे ख़ूबसूरत होती है वह नाराज़गी
जो कभी ख़त्म न होने के साथ शुरू हो
फिर भी अचानक किसी रोज़
कोई बोल पड़े—‘कैसे हो’
सबसे ख़ूबसूरत होती है वह कहानी
जिसमें नदी, पहाड़, जंगल होते हैं
जिसमें कोई राजा और रानी नहीं होते
न ही कोई शेर किसी मेमने को खाता है
सबसे ख़ूबसूरत होता है वह गीत
जिसे सुने जाने के बाद
लोग एक दूसरे से नज़रें चुराते हैं
और गाने वाला मंच के पीछे
सिगरेट सुलगा लेता है
सबसे ख़ूबसूरत होता है वह प्यार
जो पलकों भर नींद दे जाए
सबसे ख़ूबसूरत होती है वह दुश्मनी
जिसमें दुश्मन सपनों में भी शामिल होता है।
जान-ए-मन
तुम मेरे बिछड़े शहर की तरह हो जान-ए-मन
तुम्हारी स्मृतियाँ उन चौराहों की तरह हैं
जिन पर भीड़ कभी ख़त्म नहीं होती
कभी ख़त्म भी होती है
तो कहकहों का अनुनाद गूँजता ररहता है।
दरअस्ल, तुम्हारी यादें आधी रात का गौदौलिया हैं।
तुम्हारी बातें वे सैकड़ों आवारा गलियाँ हैं
जिनमें लाख भटकने के बावजूद
यह तसल्ली रहती है
कि वे ख़त्म एक ही जगह होंगी
जहाँ वे ख़त्म होंगी
ठीक वहीं नदी का किनारा होगा।
तुम्हारी चुप्पी चाँद रात को
टुकटुकी लगाकर देख रही
गंगा की चुप्पी है।
तुम्हारा आना-जाना
मेरे शहर में मौसम के आने-जाने-सा है
कभी हरा
कभी गुलाबी
कभी गाढ़ा नीला।
तुम्हारी बोली कबीर की बोली है
तो तुम्हारी आँखें कबीरचौरा।
मैं वह नहीं हूँ
मैं वह नहीं हूँ साथी
जिसके माथे पर मसीहाई
और आँखों में अफ़साने लिखे रहते थे
मैं वह भी नहीं हूँ
जिसकी क़लम की स्याही
रक्त के रंग को पहचानने के काम आती थी
वह एक अकेला खो गया साथी
जो तुम्हारे दरवाज़े पर वक़्त-बे वक़्त
सिर्फ़ इसलिए दस्तक दिया करता था
क्योंकि उसे मालूम था कि
दरवाज़े के उस पार बह रही नदी में
सुबह का थका-हारा सूरज
औंधे मुँह लेटकर
हर शाम आसमान की ओर
सिर उठाए
सपने देखा करता है
हाँ, यह सच है :
वह अब नहीं दिखता साथी
जिसके हँसने और रोने की सारी वजहें
उतनी ही अजीब थीं
जितना अजीब उस एक शहर का
अचानक बूढ़ा हो जाना था
सुनते हैं कि वह शहर भी अब
सिर्फ़ पलकें झपकाता है
और जब कभी वह मौसम को बुलाता है
एक पूरा मरुस्थल
तमाम गलियों-चौराहों पर राह रोके
किसी कोतवाल-सा खड़ा हो जाता है
उसे ढूँढ़ना नामुमकिन-सा है साथी
जो दूर देश से भी
शब्दों को तापकर
चेहरों की गर्माहट पढ़ लिया करता था
वह एक जिसे छूकर
खिलने वाला हर एक फूल
देवताओं के अभिनंदन में काम आया
ख़ुद मुरझा गया साथी
अब वह नहीं मिलेगा
जिसने हमें प्यार करना सिखाया
और ख़ुद अकेला हो गया
उतना ही अकेला
जितनी अकेली
किसी नदी के किनारे कोई रात होती है
या फिर जितनी अकेली
पढ़े जाने के बाद
कोई किताब होती है।
आवेश तिवारी की कविताओं के कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय, चर्चित और प्रतिबद्ध हैं। उनसे awesh29@gmail.com पर बात की जा सकती है।
बेहतरीन कविताएं। महसूस कर रहा हूँ।आवेश की कविताएं आविष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं।
-ललन चतुर्वेदी
बहुत खूबसूरत कविताएँ हैं।