कविताएँ ::
अंकुश कुमार
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प्रेमिकाओं की याद में
मेरा दोस्त
दोस्त भी क्या
वह निरा कमरे में रहने वाला दूसरा प्राणी
जिसे दोस्त कहने की इच्छा कभी नहीं हुई
लेटा हुआ है अंदर
अपनी प्रेमिका के साथ
मेरी प्रेमिकाओं की याद दिलाती हुई
उसकी प्रेमिका कर रही है
अठखेलियाँ उसके साथ
मुझे यह सब पसंद नहीं रहा तब से
जब से मैं किसी के जीवन में
प्रेमी बने रहने से चूक गया
प्रेमी जोड़े मुझे नहीं सुहाते
जबसे रिक्त हुआ मैं प्रेम से
पर क्या इतना रिक्त हो पाऊँगा कभी
कि बग़ल में लेटी स्त्री से प्रेम न कर सकूँ
वह पत्नी भी तो हो सकती है
भले ही प्रेमिका न हो
पर उसका साथ प्रेमिकाओं की याद दिलाता है
उसके होंठ प्रेमिकाओं के होंठ बन जाते हैं
उसका सीना उभर आता है मेरे सीने में
और मैं देखता हूँ कि
मैं स्वप्न से उठ खड़ा हुआ हूँ
उस दूसरे प्राणी की प्रेमिका जा रही है उठकर
लगता है जैसे मेरी ही
कोई प्रेमिका जाती हो
द्वार लाँघकर
काश मैं उसे रोकने की कोशिश कर सकता
वह चली गई
जा चुकी
मेरे जीवन से
उसके कमरे से
मुझे अकेला छोड़
उससे फिर आने का वादा कर
क्या वह मुझसे नहीं कर सकती थी एक वादा
फिर से लौट आने का।
क्यों करती भला!
मैं उसका प्रेमी नहीं
और जो प्रेमी है वह सो रहा
क्या जागते हुए लोगों से
प्रेम नहीं किया जाना चाहिए
मैं जाग रहा हूँ
उसकी बाट जोहता
क्या पता वह आए
और वह सोता मिले
तब उसे कौन करेगा प्रेम
जो जागता होगा वही
मैं जाग रहा हूँ
उसकी राह में
मेरी प्रेमिका नहीं है वह
पर मैं प्रेम कर सकता हूँ
इतना सामर्थ्यवान हूँ
अभी रिक्त नहीं हुआ प्रेम से…
कमरा ढूँढ़ता दोस्त
मैं उसे दोस्त नहीं मानता
लेकिन वह मानता है मुझे
मैं इस ग्लानि से भर उठा हूँ
और इसलिए उसके लिए एक कोना
सुरक्षित कर दिया है घर में
वह कमरा ढूँढ़ रहा है
इस बड़े और अनजान शहर में
मुझे उसके शहर में
कभी इस बात की चिंता नहीं रही
कि कोई घर ढूँढ़ा जाए
यह उपकार नहीं है उस पर
पर यह मेरी ग्लानि को कम करता है
मेरा दोस्त नहीं है वह
पर मैं उसका दोस्त हूँ
इस बड़े और क्रूर शहर में
और इसी बहाने मैं
उससे ले लेता हूँ हाल-चाल
पूछता हुआ कि क्या तुम्हें
कोई कमरा मिल गया?
वह इसे मेरी आत्मीयता समझता है
पर यह उसे यहाँ से टालने की
एक तरकीब भी हो सकती है
वह नहीं समझता
अगर समझता तो क्या यह नहीं समझ पाता
कि मैं उसका दोस्त नहीं
मैं केवल उसे ज़रूरत भर का
प्यादा समझता हूँ
जो मेरे किसी भी काम को तत्पर हो
आख़िर और क्या चाहिए इस युग में
कुछ नहीं तो ऐसे
दो-चार कमरे ढूँढ़ने वाले बहुत हैं।
यह मैं जानना चाहता हूँ
मुझे छूट जाने का डर है
इसे यूँ भी कह सकते हैं
कि छोड़ दिए जाने का
इसलिए चिपका रहता हूँ उनसे
जिनसे यह खटका रहता है कि छोड़ देंगे
एक अटूट विश्वास है मेरा उन पर
कि मैं ज़रूरत की वजह से बना रहा हूँ
उनके जीवन में
उन्हें दोस्त कहूँ या कुछ भी कहने से बचा रहूँ
यह मैं कभी नहीं जान सका
छूट जाने से कहीं ज़्यादा टीस देता है
छोड़ दिया जाना
इसलिए बचा रहना चाहता हूँ
कुछ लोगों की ज़रूरत के तौर पर
वक़्त-बेवक़्त मेरे जैसे काम आते ही रहते हैं
ज़रूरत बने रहना बुरा तो है
पर यह आशान्वित करता है
किसी की इच्छाओं के साथ
बची रहेगी मेरी भी इच्छा
जिस दिन ज़रूरत और इच्छाएँ ख़त्म
क्या उस दिन भी बचा रहूँगा किसी के जीवन में?
अंकुश कुमार हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-गद्यकार हैं। ‘हिन्दीनामा’ के संस्थापक-संपादक हैं। उनकी कविताओं की एक किताब ‘आदमी बनने के क्रम में’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। उनसे kumarankush664@gmail.com पर बात की जा सकती है।