कविताएँ ::
बेबी शॉ
रचना
प्यार,
तुम रचना चाहते हो
मुझे!
मैं
पढ़ना चाहती हूँ
तुम्हें
पाठ्यक्रम विराट
जीवन संक्षिप्त…
कॉरपोरेट
सरस्वती-मंडप से
कुछ दूर
कुछ पास
रोज़-रोज़
एक रास्ता
अपेक्षा रचता है
तुम्हारी आँख
समझ लेती है
ग़लत पता
तरीक़ा भी ग़लत
रास्ता भटक जाता है
और
गोलगप्पेवाला
आलूवाला
अखरोट की दुकान के पीछे
हमारा चौराहा
आते ही
रात हो जाती है!
मुक्ति
मैं कभी-कभी पक्षी बनना चाहती हूँ : एक अनाम पालतू पक्षी जो बस दो पंखों के साथ घूमे, घास काटे और उस समय ही एक गाना बज उठे नीले आकाश में।
मैं बंदी—पूरे दिन—अँधेरे घर में रहने के बाद जब देखूँगी कि रात जगमगा उठी है, फूल-पत्तियाँ एक साथ उग आए हैं और मेरे घास-फूस वाले घर के दूसरी ओर उस दृश्यहीन दृश्य में दिव्य रोशनी भर गई है : तब मैं सोच लूँगी यह घर हमारा है।
यह घर जो तुम्हें लगता है—पिंजरे जैसा!
सभ्यता
हर नदी का किनारा
समझता है—
कृषि
और
श्मशान-घाट की आवश्यकता!
दस्तावेज़
हाँ पानी, मैं तुम्हारी बात लिखती हूँ
हाँ आग, मैं तुम्हें लिखना चाहती हूँ
हाँ धूल, मैं लिख रही हूँ तुम्हें
हाँ मिट्टी, तुम्हें भी…
मैंने जब लिखना चाहा :
राष्ट्र को
देश को
और गणतंत्र को
तब
मेरे सारे अक्षर नष्ट हो गए
सारे शब्द ख़ाक!
प्यार
तुम्हारे शरीर को
चाहने लगी
ग़ायब हो गया मन
मन मिला
शरीर नहीं
कहीं नहीं
अकेली
नशे-सा लगता है तुम्हें। यह प्यार शराबी जैसा है। आकाश में पक्षी उड़ जाता है। हवा की आवाज़ से गंध घबरा जाती है। ऐसे विलासितापूर्ण दौरे पर चलते-चलते बाँसुरी थक जाती है और समय एक सुनसान जंगल की तरह चलता है और यह रास्ता गोल-गोल घूमता रहता है। यह राह मुझे मदहोश और दीवाना बना देती है। मंत्र, गान और भूत-दृश्यों का जाप करना सीख जाती हूँ तब। स्वर तेज़ है। गले का दाग़ स्पष्ट है। और देखो…
मैं असहाय राक्षस हूँ जिसकी मौत की छड़ी भी खो गई है।
प्रवासी
एक लंबे प्रवास में तुम कभी ठीक से नहीं मिले। मैं यह सोचकर चुप रहती हूँ कि धैर्य की ज़रूरत है। चुपचाप देखने पर मुझे समझ आता है कि वास्तव में समय ही वास्तविक हत्यारा है। गुमनामी की ख़बरों के साथ लिख लेती हूँ—कुछ पल और सुगंध। जैसे हर जेल की दीवार पर वासना, प्रेम, गुप्त जिंघासा और बोधि लिखा रहता है। ज़िंदगी ने इस तरह हर पल ग़ुलामी को मजबूर कर दिया… और हम शराबी नाविकों की तरह आंतरिक रूप से रूसी क्रांति का आयोजन करते रहे। तब तक पड़ोसियों को फ़्रांस के सम्राट की मौत की ख़बर पता चल गई थी।
एक समय के अंत में, मैं घर लौटना चाहती हूँ।
मैं देखती हूँ—कुछ ठंडे शव और भी ठंडे हो रहे हैं।
इनकी कोई ज़ंजीर नहीं है।
गंधर्व
हमारी कई बार शादी हो चुकी है
कितनी बार अलग हुए हैं हम!
मैंने नदी के किनारे एक घर बनाया
हरी पत्तियों और
लाल गुलाबों की माला पहनी
सुबह तुम्हारे माथे पर दिया
संतुष्टि का एक चुंबन
क्या यह कोई जानता है?
यह कोई नहीं जानता!
भीड़
भीड़ के बीच से चल रही हूँ मैं और तुम मुझे जान नहीं रहे हो। तुम मुझे पहचान नहीं रहे हो—यह सोचते हुए मेरा जीवन जलकर ख़ाक हो जाता है। तुम नहीं जानते—इसके बारे में सोचते ही मेरी आँखें जलने लगती हैं। दाँत किटकिटा उठते हैं। आस-पास का वातावरण खारा हो जाता है और काजल-मस्कारा सब आँसुओं में धुलकर साफ़ हो जाते हैं। यों लगता है कि दुनिया के महान् जन इस भीड़, इस पहचानहीन अस्तित्व और आत्मसम्मानरहित जीवन के बोझ में अपना रास्ता खो देते हैं।
…जैसे अपना अस्तित्व खो दिया है अभी के भारत ने!
इतने बड़े शहर में
यह शहर बड़ा और अकेला है, प्यार!
इस सड़क पर बिखरे पत्तों में कौन-सी ऋतु है! चारों तरफ़ एक व्याकुलता है। अधिक से अधिक हीमोग्लोबिन चाहिए। कितने पिघलते हुए फेफड़े! मुझे बताओ कि तुम लहूलुहान पैरों के साथ कितनी दूर तक जा सकते हो! इतनी होर्डिंग्स, इतने विज्ञापन, अबोल-तबोल की इतनी आवाज़ लगातार हमारा रास्ता रोकती है। मेरी आँखें जल रही हैं और चश्मे का टूटा हुआ शीशा मेरी आँखों में घुस रहा है। मैं जलते हृदय के साथ दरवाज़े पर खड़ी हूँ, प्यार! मेरे हाथ में टिन का भिक्षापात्र है। मेरी चीख़ में सुनहरी नदी के किनारों की एक शीतकालीन पिकनिक। मैं शहर की नहीं हूँ…
इतने बड़े शहर में—मैं क्या करूँगी!
इतने बड़े शहर में क्या किया जा सकता है, सिर्फ़ तुम्हें चाहने के सिवा!
आधुनिक कविता
यह जीवन
प्रेम में
धीरे-धीरे
आधुनिक कविता
जैसा होता जा रहा है—
लय
निर्माण
बार-बार काटना
कुछ जोड़ना
और…
फिर—
सुंदर!
कोमल!!
रहस्यमय!!!
प्यार
मेरे प्यार,
प्यार क्या-क्या
सिखा रहा है
उपेक्षा
उपेक्षा नहीं लगती
द्वंद्व
द्वंद्व नहीं लगता
भ्रम
भ्रम नहीं लगता
भय
भय नहीं लगता
कष्ट
कष्ट नहीं लगता
प्यार न करने से भी
प्यार नहीं है
नहीं लगता
अंतिम
अंतिम पृष्ठ पर
कविता की तरह
मैं तुम्हारे पास आई हूँ
जैसे तुम्हारी आँखों को
मैंने पहले पन्ने की तरह पढ़ा
कई हज़ार प्रकाशवर्ष
अभी भी पास होना है
लेकिन कुछ घंटे की दूरी से
पारित नहीं हो सकती मैं
मैं इंतिज़ार करती हूँ
सूची-पृष्ठ पर अकेली
अंतिम पृष्ठ पर
कविता की तरह
बेबी शॉ नई पीढ़ी की सुपरिचित-सम्मानित बांग्ला कवि-गद्यकार-अनुवादक हैं। बांग्ला में उनकी कविता, गद्य और अनुवाद से संबंधित अब तक 21 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से कुछ काव्य-पुस्तकें अत्यंत चर्चित रही हैं। इधर उन्होंने हिंदी में भी लगभग एक संग्रह भर कविताएँ संभव की हैं। यहाँ प्रस्तुत 14 कविताओं का यह चयन इस संग्रह से ही है और ‘सदानीरा’ पर उनकी हिंदी कविताओं के प्रथम प्रकाशन का आधार भी है। बेबी शॉ से और परिचय के लिए यहाँ देखें : क्या अब भी पाठ-योग्य नहीं हुआ समय! | तुम्हें दुखी करना मेरे जीवन का तरीक़ा नहीं है | मैं लिखूँगा
Ati Sunder, bhalo
Kudarati shodarya he aap me