कविताएँ ::
अखिलेश सिंह
शिमला
देवदार के पुराने पेड़ किसी बिजूके की तरह दिखते हैं—राह छेंकते हुए से। वे सचमुच पर्वत-बिजूका हैं। उनकी जड़-पकड़ में पहाड़ की देह बिंधी होती है।
चीड़ की देह किसी चित्ते की तरह होती है। उनकी शाखाओं-उपशाखाओं पर गछी हुई पत्तियाँ उर्ध्वमुखी गुच्छे की तरह होती हैं, मानो किसी गुदाज़ हाथ वाले शिशु ने मुट्ठी बाँधकर किलकारते हुए हाथ ऊपर किया हो।
ओक के पेड़ ऐतिहासिक स्मारक की तरह खड़े और फैले हुए मिलते हैं। कहीं-कहीं मैपल ट्री भी मिलते हैं। मैपल की पत्तियाँ रेड़ की पत्तियों का लघु रूप होती हैं।
पहाड़ पर फूल बहुत चटख होते हैं। पहाड़ हमेशा उदास-से लगते हैं। हर चढ़ते क़दम की प्रतिक्रिया में पहाड़ हर क्षण कहीं न कहीं उतरते-से दीखते हैं।
जहाँ सिर्फ़ घास होती है वहाँ दूर से पहाड़ किसी सोए हुए विकराल भालू की तरह लगते हैं और जहाँ पेड़ गछे होते हैं वहाँ ऊन से लदे हुए भेड़ों के सुस्ताते हुए अपार झुंड की मानिंद।
पहाड़ पर हर चीज़ छोटी और निकट है और हर चीज के लिए लंबा रास्ता है। लघुता में लय है। और यही लय पहाड़ की तोड़ है। झुकने में ही गुरुत्व बन पाएगा, पहाड़ की चढ़ाई यही बताती है।
शाम को पहाड़ी शहर क्रिसमस ट्री की तरह दिखते हैं। पहाड़ी घर, पहाड़ पर किए गए जड़ाऊ काम की तरह हैं।
पहाड़ की तमाम चोटियाँ साथ में चिलम पीती हैं।
पहाड़ का सीना हरदम धुएँ से भरा रहता है।
प्रेमिकाएँ
प्रेमिकाएँ तकलीफ़देह थीं। जब-जब उन्हें मजबूरन छोड़कर जाना पड़ा, तब-तब वे सिर्फ़ मजबूर लगीं। जब-जब उन्होंने आँखों के सामने ही दूसरा पुरुष चुन लिया, तब-तब वे सिर्फ़ नीच लगीं। और जब-जब हमेशा के लिए साथ रह गईं तो सिर्फ़ प्रेमिका नहीं रह गईं। पीड़ा और रिक्तता हर हाल में मिली। इस ‘सिर्फ़’ सोच के चलते किसी प्रेमिका को मज़बूत मानकर मुनादी पीटना क़ायदे से मुश्किल है।
लड़कियाँ जो दोस्त थीं, उनसे कभी कुछ मिलता नहीं था। वे लंबी ताक के बावजूद तैयार नहीं मिलीं। जो तैयार हो भी गईं; वे भी आँसू, बेचारगी और पलायन के दुविधा-लेप से लेपित थीं। कुछ तो आगे दोस्ती ही नहीं रख पाईं।
कुछ लड़कियाँ ऐसी भी थीं जिन्होंने व्यवस्था की सख़्त गुंजाइशों में अपनी नरम देह और शापित बुद्धि को सामाग्रियों की तरह व्यवस्थित किया। वे व्यवस्था के उपकरणों की तरह ही हिंसक मिलीं। ऐसे उपकरणों से हमेशा वितृष्णा हुई।
पत्नियाँ अपने होने की छाया भर थीं। उनको हर वक़्त ओझाई की ज़रूरत थी। वे या तो अभुआती थीं या तो अगरबत्ती की तरह जल जाती थीं। वे सुविधापूर्ण तरीक़े से स्तुत्य और हीन दोनों थीं।
माँएँ पोषक थीं। वे हमेशा पोषक लगीं। वे कमज़ोर हैं या मज़बूत, यह समझ के परे था; क्योंकि उनके पास पोषित करने के लिए हमेशा कुछ था। माँओं ने बच्चों को बेहतर बनाने की कोशिश की। वे सूखी लकड़ी की तरह जलीं। कुछ माँएँ पूर्ण शिकस्त थीं। उन्होंने बच्चों को शिकारी की चाल सिखाई।
बहनें जो छोटी थीं, हमेशा छोटी रहीं और जो बड़ी थीं, वे बड़ी रहीं हमेशा। बहनों के बराबर होने के लिए कुछ समय तक झुकना पड़ता। झुकना असह्य था।
सब बराबर होने की राह में रीढ़ की कई पीढ़ी के अकड़न का रोग खड़ा था।
अंततः नायिकाएँ मिलीं। देश-काल की अगम्य दूरी के चलते वे नायिकाएँ मानी गईं। वे प्रतिमानों में स्थापित हुईं। उनके सिक्के चले। उनके क़िस्से मिले।
मैं शब्दकार था, मैंने मुक्त कंठ से उनकी स्तुतियाँ पढ़ीं।
मैं चित्रकार था मैंने प्रतिबद्ध होकर उनके चित्र बनाए।
नदी
नदी से गुज़रते हुए
मुझे कभी नहीं लगा
कि नदी भी गुज़र गई
जबकि
हर चीज़ गुज़र ही जाती है
जिससे मैं गुज़रता हूँ
वह अपनी रह जाने की आदत के कारण
रह गई मुझमें
सभ्यता ने बहुत कुछ ऐसा सिरजा
जो नदियों, फूलों और मछलियों के ख़िलाफ़ है
नाव के चप्पू की आवाज़ में खुन्नस है
मछलियाँ अब खाई जाने के बाद भी
गाली खाती हैं
सभ्यता का सबसे बड़ा उद्घोषक
वही बगुला भगत है
जिसे क़िस्सों में बारहा ख़ारिज किया गया ।
फूलों का मौसम है,
फूल यहाँ रेत हैं,
फिसलते, झड़ते, मरीचिका से।
नदी नहीं गुज़री
वह मेरे मन की रंगावट में
एक किनारी की तरह दर्ज है अब
मैं उसके पास जाता हूँ,
जब-जब चुप होता हूँ
मैं उसके पास नहीं जाता हूँ,
जब-जब मैं नहीं होता हूँ
नदी को नहीं गुज़रने देना
मेरी भी क़ूव्वत है
पानी के लिए बहुत तड़पा हूँ मैं,
एक तस्वीर भी पानी की,
उसके न होने की संभावना से डराती है मुझे।
बदल जाना
पत्तों से फूलों में
फूलों से फल में
और फल को
जीवन की एक और संभावना में बदलते देखा है
अगर शब्दों के अर्थ सही-सही लिए जाएँ
तो,
जंगल को धुएँ में
शहर को ज़हर में
आँगन को बाज़ार में
आदमी को औज़ार में
क्या मैं बदलते देखूँ?
क्या नष्ट हुई चीज़ों को बदल जाना कहते हैं?
वह
वह संताप नहीं दे सकता था
इसलिए उसे नायकों की तरह नहीं पुकारा गया
उसकी चहेती नायिका ने
उसके लिए स्वप्न गीत भी नहीं लिखे
और ना ही किया उसकी स्मित का इंतज़ार
समय का सहचर,
कोई भी नहीं उसके साथ
वह परदे की ओट से समय को देखता है
और ख़ुद को धकेलता जाता है
पीछे दो क़दम और।
प्रेम
गले मे परिचय-पत्र की तरह लटका हुआ प्रेम,
लोकप्रिय विमर्शों की कही-अनकही कहानियों-सा होता है
सब जान लेने की मुद्रा
सुधारक की मुद्रा को जन्म देती है
और उसके डंडे से पिटता हुआ प्रेम,
दुबका सहमा ख़रगोश हो जाता है
इतना निरीह कि
जैसे बिना किसी मालिक के
अचकचाया-सा पालतू मवेशी।
कुछ बिखरी बातें
उसने देखा कि
वह सर्जना को पी सकता है
दृष्टि को रोक सकता है
मस्तिष्क को रिक्त कर सकता है
सुखा सकता है हृदय को
वह हज़म कर सकता है
अपने से उपजी हर एक चीज़ को।
एक दिन उसकी नाक ठीक हो गई
और उसने पाया कि
वह अपनी गंध को भी बिल्कुल नहीं समेट सकता।
…जो चीज़ें ख़ुशी नहीं देती हैं
उन पर दुःख के सिवा और क्या हो सकता है
और जब वे चीज़ें बेहद अपनी हों
जैसे कि समझदारी।
बहरहाल,
मेरे सीने की मछलियाँ जीवित हैं अभी
जैसे बर्फ़ की सिल्लियों के नीचे रहता है जीवन
बीतता दिन दिल को बीमार नहीं कर पाया
एक बार फिर।
~•~
साँसों की धौंकनी चलती रहती है,
समय जलता चला जाता है
सीना बहुत तिखाई से छिलता जाता है
हलक़ में स्मृतियों के अटकन-सी चुभन है
हाथ बढ़ते हैं आगे,
स्मृत को छूकर लौट आते हैं
हृदय का पोर-पोर चटखते हुए
फट जाने को है
जैसे किसी रस्सी से बँधा हुआ हो चाभी भरा खिलौना।
~•~
मेरा छपरा कराईन हो गया है
अब वह दुबारा से नहीं छाया जाएगा
और मैं,
घर लीपने के बाद उस पर फेंक दिया गया लत्ता हूँ
जिसे अब नहीं उतारा जाएगा
और मुझे संतोष भी है
कि अबकी बरखा साथ-साथ खाने के बाद
हम दोनों ही नहीं रहेंगे।
हम दोनों बरखा के इंतज़ार में हैं।
सुनो
सुनो! सुनो!! सुनो!!
सब कारोबार पटरी पर लौट आया है
ख़तरों और आशंकाओं की बाबत मरम्मत शुरू हो गई है
कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं होगा…
‘प्राइवेट ग़ुस्से’ की भी लिमिट होती है
पेट की आग, दिल का राग और रोज़ की ये भागमभाग!
कितना लगाएँ दिमाग़?
जो हो रहा है, वह होना ही था, और वह शाश्वत तो है नहीं
लेखकों लिखते रहो, और दूसरे लेखकों ‘दूसरा’ लिखते रहो
क़िस्से-कहानियों-गीत-चुटकुलों-चुटकी-चटकी में कमी नहीं होनी चाहिए
फ़िज़ा गुलज़ार रहे, शाम सब उजियार रहे
ज़िंदगी बला सही, ब्ला ब्ला ब्ला सही…
लोकतंत्र ख़ूँख़्वार है, मज़बूत सरकार है
खीस-खीझ-खीं-खीं ही जन का अख़्तियार है
साइकिल के टायर में हवा बीमार है
पंचर की दुकान पे सुलेशन की मार है
सब्ज़ी की मंडी में, गांधी के ठेले पे, हाँss… ठेले पे
सड़ते टमाटर हैं, बटखरा-देश-खड़ा, मसख़रा, खरा-खरा…
हो… हो… हो… कफ होगा, खखार दो
देश में बीमार सौ
देश की ज़ायद में दुनिया की सर्दी है, हर ओर ज़र्दी है, वर्दी है, सिर्फ़ ग़मगर्दी है
होगी न? हे हे हे… होगी न?
क्रांति होगी न?
खिस्सू ने पूछा है, क्रांति होगी न?
सच एक पर्दा है, जब भी वह फटता है
सच का हर सौदागर, जी भर के चिघरता है…
खिस्सू तो बौड़म है
पिस्सू है। नाली का-गाली का-जाली का पनेता है।
पियार की बात करो, जात औ’ जज़्बात करो।
जेठ की गर्मी में सच पर फफोले हैं
बालू की तपिश में हम कौरे हैं, फूले हैं…
जीवन—
बरखा से बर्ख़ास्त बरबस ही पूछता है
कब आएगा आषाढ़?
आग की ख़ंदक़ पर खड़े-खड़े
आचमन का मज़ाक़!
—बूझता है।
दुःख हैं बेहूदे सब, डाँट रोज़ खाते हैं
दुःख कोई ख़ास अधिक, बाक़ी सब जल जाते हैं
उधार-व्यवहार में—
वायदा-कारोबार में
जीवन की बसावट है
गर्मी में अमावट है।
स्थितियाँ सब ज़ालिम हैं
वायदे ही कामिल हैं…
प्रेम डेमोक्रेटिक है, डेमोक्रेसी फ़ाशिस्ट है
प्रेम का रिपब्लिक तो अपना ही विपक्षी है
लेक्स-रेक्स… एक्स-सेक्स, नेक्स्ट-नेक्स्ट-नेक्स्ट!
पोस्ट मॉडर्निटी के
जमघंट बौचटो ने
ह्यूमैनिटी के पोस्ट चेक पर लिक्खी कविता तीन है
साँप है तो बीन है, कितना सब ऑब्सीन है!
आकार
झड़ते गूदे-पीपर के आमाझोर
डुरुही तक हुँवाते सियार
रात भर गादुर, चिक-चिक-चिक
सोंधियारी की शर्म के लिए, पेड़ की देह में खोह-सुरंग
चैत-चाँदनी-सूखे-बौर-आम-टिकोरे-टिमटिम
खाट पर एक बच्चा—आसमान में भागता हुआ चाँद
बच्चे की आँखें—जाल जुगनू का
धरती से आस लोगों की आँखों जितनी
उतने ही बड़े खलिहान भूख जितने
कि पलाश की फुनगी पर रस लेने जाएगी मधुमक्खी
डँस उठी है वह ख़ुद
तालाबों में मन भर भी पानी नहीं
मन और तालाब दर्राए
गेंहू के उजड़े खेत
आँखे-आग-प्रतीक्षा-शून्य
कोई अंत तृप्त नहीं होता—कला विराजती है—जीवन की वहीं
आकाश की अंतिम कोशिश—झड़ती ओस, गुदे पन्नों पर
भीगे अक्षर—फैली स्याही
सहमा मन—बेतरतीब भेंटों से
भेंट से मुँह छिपाता—पूरा का पूरा मौसम।
और,
मैं उसी समय
कुश के कल्ले नापूँगा, अँगोछे की बास लूँगा
लिपट जाऊँगा धरती के किसी खड्डे में
चार मुट्ठी मिट्टी डालकर
दीमकों के साथ खेलूँगा
नहीं नहीं, कोई वाल्मीकि नहीं आएगा,
कोई नई बात नहीं होगी
बस चुपचाप, मिट्टी की नरमी में
सोया रहूँगा
चिरकाल तक
यही मिट्टी ही जब चाहेगी
फिर मुझे कोई आकार देगी।
एक दिन
एक दिन कुछ नहीं रहेगा
यह जीवन, ये लोग-बाग़
और यह कम-बख़्त शिकायतें भी
ये सब अपनी पूरी वस्तुनिष्ठता में विलुप्त होगीं, एक दिन
और वह एक दिन, हर दिन बीतता है
हर दिन सूरज डूब जाता है
हर दिन चिड़ियाँ सो जाती हैं
थक जाती हैं हर दिन मांसपेशियाँ-कारकुशीलव
प्यार करता है, अपने अभावों के बिछावन पर एक मजूर-युगल हर दिन
झिलमिल करते ये जाल जीवन के एक दिन ज़रूर पुराने पड़ेंगे
गीत नए गाए जाएँगे एक दिन
एक दिन जीवन की बाँसुरी कोई चुरा ले जाएगा
बाँसुरी की चोरी भी तो सुर के लिए ही होगी
किसी सुर से किसी और सुर तक जीवन बजता रहेगा हर दिन
इसी तरह सुर बदलते रहेंगे, छूटते रहेंगे मिल-मिल छूट जाने वाले स्वर
जो पकड़ न आया वह जीवन है
आईना जिसकी थाह न ले पाया वह जीवन का शेष है
जीवन के बारीक रेशों में मधुमक्खियाँ बुनती रहेंगी
सरसो गेहूँ और सरकंडे के फूलों की रस-डोर
फिर भी एक दिन कुछ नहीं रहेगा
शब्द नहीं रहेंगे
छल नहीं रहेगा
जुटता विलुपता प्रतीत नहीं रहेगा।
अखिलेश सिंह (जन्म : 1990) हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में पूर्व-प्रकाशित। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व उनके काम-काज के लिए यहाँ देखें : मैं चाहती हूँ, मेरे उरोज तुम्हें उत्तेजित कर दें │ संपादक के नाम
Sarthak panktiyan….aaj ki paristhitiyon me…
कितनी सुंदर कविताएं है ये सब