बातें ::
विश्वनाथ त्रिपाठी
नब्बे बरस के ‘बिसनाथ’
वरिष्ठ आलोचक, कवि और लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी के नब्बेवें जन्मदिन (16 फ़रवरी 2020) से कुछ दिन पहले उनसे हरिनारायण, योगेंद्र आहूजा, ओमा शर्मा और भालचंद्र जोशी की यह बातचीत जनवरी की एक बेहद सर्द शाम को दिल्ली में हुई। उस दिन आकाश मेघाच्छन्न था जब जल्दी ही अँधेरा उतर आता है। दिन भर बहुत बारीक, लगभग अदृश्य वाष्पकणों की बरसात होती रही थी। बातचीत के दौरान खिड़की से मेघ-गर्जन सुनाई देता रहा।
योगेंद्र आहूजा : डॉक्टर साहब, आप जल्दी ही अपना नब्बेवाँ जन्मदिन मनाने जा रहे हैं। हमें यकीन है कि इसी तरह हम आपका सौवाँ जन्मदिन भी मनाएँगे। आपने एक सुदीर्घ जीवन जिया है, एक गहरी डुबकी लगाई है ज़िंदगी में। इस मौक़े पर मेरी इच्छा आपसे साहित्य या कहानियों या कथाजगत के बारे में नहीं, कुछ और बातें करने की है। मुक्तिबोध का यह प्रसिद्ध क़थन है कि इस देश में हर दस या पंद्रह साल में ज़माना एक बार पलटता है। आपने अपने जीवन में न जाने कितने ज़माने पलटते देखे होंगे।
हम इस समय जिस ज़माने में हैं, वह कुछ अजनबी या अनपहचाना-सा लगने लगा है। ऐसा लगता है कि हम जिस भारत को अभी तक जानते आए हैं, वह गुम या ग़ायब हो रहा है। हमारा गणतंत्र जिसकी उम्र अब तिहत्तर साल होने वाली है, जिन मूल्यों, मान्यताओं, संकल्पनाओं पर टिका रहा है, वे जैसे टूटते-से लगते हैं। अब ऐसे नए पॉवर स्ट्रक्चर्स, गठजोड़, परिवर्तन सामने आ रहे हैं जो कुछ समय पहले तक अकल्पनीय थे।
साहित्य की दुनिया अपने में कोई बंद या स्वायत्त दुनिया तो है नहीं। जो बदलती दुनिया से जुड़े सवाल हैं, वे सब साहित्य के भी सवाल हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि इस नए वक़्त की आपकी व्याख्या क्या है। क्या शब्द की या सृजन की दुनिया आने वाले वर्षों में वही या वैसी ही रह सकेगी जिस रूप में हम उसे जानते आए हैं। आप अपनी अनुभव पगी आँखों से यह समय और आगे का समय कैसे देख रहे हैं?
विश्वनाथ त्रिपाठी : मुझे इतनी निराशा नहीं है। उसकी वजह यह है कि जब से आपने देखना शुरू किया, मैं उससे कुछ पहले से देख रहा हूँ। जो आपका प्रस्थान-बिंदु है, बेस है वह मेरे प्रस्थान-बिंदु से बहुत अलग है। उसके अच्छा या बुरा होने की बात नहीं कर रहा। अच्छे या बुरे की बात अभी छोड़ दीजिए। मैंने घनघोर वर्णाश्रम व्यवस्था में आँखें खोली थीं, यानी तब जब कोई आता था तो पहला सवाल होता था, ‘कौन जात रे…’ और अगर उसने कहा…, तो कहा जाता था ‘पीछे हट साले…’। मैं ग़रीब घर का बालक था और सिर पर गठरी लेकर स्टेशन जाता था। दस-पंद्रह किलोमीटर मेरे गाँव से गैंसड़ी स्टेशन पड़ता। रास्ते में कोई आदमी मिलता था तो पूछता था ‘कहाँ जात बे…’ और फिर ‘कौन जात?’ बाभन बताने पर पैर छूता था और गठरी ले लेता था। तो जब आपने देखना शुरू किया होगा, वह हिंदुस्तान थोड़ा अलग था। इसलिए आपका आधार डाटाबेस मेरे डाटाबेस से थोड़ा अलग है। आज जब उसके बारे में सोचते हैं न योगेंद्र जी, तो ऐसा नहीं लगता है कि सब गड़बड़ हुआ है। साफ़ मैं कहूँ आपसे कि उस समय की जो शोषक शक्तियाँ, ख़ास तौर पर सामंती और वर्णाश्रमी, थीं उनका अत्याचार और ज़ुल्म बहुत क्रूर था। उससे कहीं किसी को नजात नहीं थी। नजात का रास्ता दिखाई ही नहीं देता था। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन जब मुझे वह सब याद आता है तो लगता है… आज का जो वक़्त है, मैं मानता हूँ कि बड़ी परेशानियाँ हैं, परेशानियों पर जब बात होगी तो आपसे कहूँगा कि परेशानी कितनी है, आपसे कम घबराया हुआ मैं नहीं हूँ, लेकिन जब मुझे वह सब याद आता है तो लगता है कि आज यातना चाहे जितनी हो ऐसी निरुपायता नहीं है कि अब हम क्या करेंगे। संघर्ष के रास्ते हम कम से कम कल्पित कर सकते हैं। यह बिल्कुल आजकल ग़लत कहा जा रहा है कि हमारे सपने मर गए हैं। हम सपने देख सकते हैं। देख रहे हैं। सपने न देखते तो जे.एन.यू. में जो इतना बड़ा… अभी छह महीने पहले तक लगता था मोदी-मोदी, और आज जब एकदम-से देखते हैं; जैसे बिल्कुल चारों तरफ़ वातावरण बदल रहा है। ये सोशल मीडिया, डिजिटल, समाचारों का द्रुत आवागमन… ऐसा नहीं कि उसका फ़ायदा केवल शोषक शक्तियाँ ही उठा सकती हैं। वे भी उठाती हैं। उनकी जकड़बंदी कैसी है, आप भी जानते हैं। क्योंकि उनके हाथ में है तकनीक। लेकिन यह हमारे काम भी आ सकती है। आ रही है। इसीलिए सोशल मीडिया से परेशानी सत्ता को भी है। वह मशहूर कविता है न बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कि क्या अँधेरे में गीत गाए जाएँगे, हाँ अँधेरे के बारे में गीत गाए जाएँगे… तो वो ठीक बात है। साहित्य इस मामले में अपना रास्ता बना लेने वाली चीज़ है। साहित्य की प्रकृति बड़ी दोग़ली है। जहाँ बड़ी यातना होती है, वहाँ यह रस पैदा कर देती है।
योगेंद्र आहूजा : साहित्य यातना को आनंद में बदल देता है।
विश्वनाथ त्रिपाठी : फ़्रेक्चर जो होता है यानी हड्डी की टूटन—उसके बदले वह एक शब्द रख देता है। लेकिन यही साहित्य का एडवेंचर भी है। इसलिए मुझे कोई संकट शब्द या साहित्य पर नहीं नज़र आता। हाँ संकट साहित्य पर ख़ुद साहित्यकारों की तरफ़ से हो सकता है।
वह संकट यह है कि आपने फ़ेसबुक बना लिया तो आप ख़ुद ही लेखक हो गए, ख़ुद ही प्रकाशक हो गए और ख़ुद ही समीक्षक भी हो गए। आप ख़ुद अपना विज्ञापन भी करने लगे। आत्मविज्ञापन ज़रूरी होता है लेकिन बहुत ज़्यादा… यह जो ‘ज़रूरत से ज़्यादा’ जिसको मार्क्सवादी अर्थशास्त्र में ‘सरप्लस’ कहते हैं, वह हर तरह की अग्लिनेस और अनैतिकता का कारण होता है। जैसे ज़रूरत से ज़्यादा पेट भर जाए या नाक ज़रूरत से ज़्यादा लंबी हो जाए, यह कुरूप होता है। साम्राज्यवाद के विरोधी ख़ुद अधिकाधिक इच्छा से लिप्त न हों ऐसा नहीं होता। हम उसका विरोध करते हैं, लेकिन हमारी मानसिकता ख़ुद उनके जैसी होती जाती है। उनकी इकॉनमी में है, हमारी साहित्य में है। इससे ख़तरा हो सकता है। कुछ बातें शायद कहने में अच्छी न लगें, लेकिन वे ठीक होती हैं। जैसे वह जो एक बहुत पढ़ा-लिखा व्यक्ति है—कृष्ण कल्पित, उसने मेरे एक अभिन्न प्रिय मित्र की कविताओं के बारे में लिखा। उसने लिखा कि किसी ने लिखा है कि रेगिस्तान पर कविता लिखी जाए तो अच्छी तब होगी जब उसमें ऊँट का नाम न हो, लेकिन उनकी कविता में ऊँट ही ऊँट हैं। तो ये जो है न एक मनोविकार… किसको नहीं अच्छा लगता। मैं नब्बे साल का हो गया। मुझे क्यों न लगे कि मेरी साधना व्यर्थ नहीं गयी? अब आप आए हैं तो अच्छा लग रहा है। ओमा जी आए हैं। यह तो बड़ा सहज है। लेकिन शब्द का और क्रिएटिविटी का संयम से बहुत गहरा संबंध है। अब आप इंटरव्यू ले रहे हैं, इसलिए आपकी तारीफ़ नहीं करूँगा। साहित्य पर ख़तरा उतना बाहर से नहीं जितना ख़ुद उसके भीतर से है।
ओमा शर्मा : डॉक्टर साहब, आप अध्यापन और विश्वविद्यालय से, शिक्षण संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पहले घर-घर में एक साहित्यिक वातावरण होता था। ज़रूरी पत्रिकाएँ हर घर में पढ़ी जाती थीं। यह बहुत बदल गया है। आज जब हम देखते हैं कि अच्छी पत्रिकाएँ जो हमारी रुचियों को परिमार्जित करती थीं, वे अनुपस्थित हैं। इस बदलाव को कैसे देखते हैं?
विश्वनाथ त्रिपाठी : देखिए आज़ादी के समय जो बड़े-बड़े घराने थे धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान या अज्ञेय जी जो निकालते थे, ‘प्रतीक’… अभी रघुवीर सहाय की जीवनी पढ़ रहा हूँ जो विष्णु नागर ने लिखी है। बाद में जो मध्यवर्ग संपन्न हुआ, तनख़्वाहें बढ़ गईं। समृद्धि आ गई। साक्षरता बढ़ी। लोगों ने अपने साधनों से इतनी लघु पत्रिकाएँ निकालीं। ‘धर्मयुग’ या ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ बंद हुआ तो उससे लेखकों की संख्या में कोई कमी नहीं आई, बल्कि इस समय के जो प्रतिष्ठित लेखक हैं; उनमें से कोई भी किसी बड़ी पत्रिका से, ख़ूब पारिश्रमिक देने वाली पत्रिकाओं से नहीं निकले। पाठकों और लेखकों की संख्या घटी है या बढ़ी है इसका सर्वे होना चाहिए। इसका कोई सर्वे हुआ नहीं है। सर्वे होना चाहिए। अख़बार के पाठकों की संख्या तो बहुत बढ़ी है।
ओमा शर्मा : जो हम पुस्तक की संस्कृति की बात करते हैं, पहले किसी कहानी-संग्रह का संस्करण 1100 या 2000 प्रतियों का होता था, अब वह 500 का होता है और कविता का तो 300 का।
विश्वनाथ त्रिपाठी : मेरा ख़याल है कि इसकी इन्क्वायरी होनी चाहिए। क्या पता कितने का होता है। प्रकाशक ही जानता है। जो इस समय बड़ी भारी समस्या है, वह यह है कि विज्ञान के नाम पर… तकनीक जो है वह विज्ञान बन गई है और विज्ञान का पूरा उपयोग ज़्यादातर जल्दी-जल्दी वर्तमान तकनीक को गतकालिक बना देने में है। नए-नए उपकरण और उपभोक्ता वस्तुएँ जल्दी-जल्दी आएँ और जल्दी ही ओब्सोलीट भी हो जाएँ। तभी तो नई माँग पैदा होगी न। पूँजीवाद फ़ैशन बनाना चाहे कि नाक में जूता पहना जाएगा… तो वे बना सकते हैं। यह जो प्रॉब्लम है और जो तकनीक में पीछे रह जाता है, उसकी यातना को देखने वाला कोई नहीं है। सड़क चौड़ी कर ली गई जिससे कारें ख़ूब चलें, लेकिन सड़क के किनारे जो पान वाला, गन्ने वाला, मूँगफली वाला था उसका क्या होगा इसको तथाकथित विकास के पीछे छुपा लिया जाता है। अब अगर ऐसी कोई व्यवस्था हो कि मोबाइल हो, टेलीविजन हो, लेकिन वह जो वास्तविक… जिसे हम आप साहित्य कहते हैं, संस्कृति कहते हैं, उसका प्रचार और विकास करने के लिए भी राज्य के पास पैसे कम न हों। यह संभव है। समाजवादी व्यवस्था में, सोवियत संघ में बड़ी बुराइयाँ बताई जाती हैं, लेकिन अगर कोई मॉस्को पहुँचता था तो देखता था कि कवि-सम्मेलन में इतने लोग आते थे, कविता की किताबें इतनी बिकती थीं। उनके लिए लंबी लाइनें लगा करती थीं। पहले जो सोवियत संघ की किताबें होती थीं, हमने तो वही पढ़ा है; उन्हीं से हमें ज्ञान मिला है। वे इतनी सस्ती मिलती थीं। हमने तो गोगोल, चेखव, गोर्की… सब उन्हीं से पढ़ा।
योगेंद्र आहूजा : आपने अनजाने ही मेरे बहुत से सवालों को ख़ुद ही परिकल्पित कर एक तवील जवाब दे दिया। आज़ादी के समय आपकी उम्र सत्रह वर्ष थी। इस अवस्था में इंसान की जीवन-दृष्टि या विचार पुख़्ता नहीं होते, लेकिन फिर भी वह देखना-सोचना-समझना और सपने देखना भी शुरू कर चुका होता है। सवाल उसके भीतर उगने लगते हैं। उस समय जो सोच था, आपका, पूरे देश का—मैं राजनेताओं की बात नहीं कर रहा—कि इस दिशा में जाएगा हमारा गणराज्य; जो एक जनरल माहौल था, क्या वह उसी ओर गया है?
विश्वनाथ त्रिपाठी : बिल्कुल नहीं। उस उम्र में मैं कट्टर आर.एस.एस. वाला था। मामूली कट्टर नहीं सैंतालिस वाला। आजकल का कट्टर नहीं। मैंने प्रस्ताव रखा था जेल की मीटिंग में, जेल भी गया था मैं, कि हम लोगों को संघ से प्रतिबंध हटाने के लिए अपना सिर काटकर असेंबली में फेंक देना चाहिए। उसमें नाम मैं अपना देता था। लेकिन… अच्छी तरह याद है… जब प्रतिबंध हट गया… नानाजी देशमुख से सब सवाल पूछते थे, हम भी खड़े हुए, हमने पूछा कि हमारा जो संघ वाला राज्य बनेगा उसमें मुसलमानों का क्या होगा? मुझे अच्छी तरह याद है कि नानाजी ने कहा था कि ‘स्टेट इज ऑलवेज सेक्युलर’। यह मुझे अच्छी तरह याद है। उन्होंने शिवाजी का उदाहरण दिया था। हम सोचते थे कि भगवा झंडा फहरेगा। तिरंगा को तो हम नहीं मानते थे। लेकिन वह भ्रम इसलिए टूट गया कि इक्यावन के बाद समाजवादी विचारधारा आई, उसके नेता नेहरू जी, जयप्रकाश, लोहिया और जो इक्यावन बावन में तेलंगाना मूवमेंट हुआ और नेहरू और कम्युनिस्ट पार्टियों का मिलन हुआ, हिंसा की नीति छोड़ दी कम्युनिस्ट पार्टी ने। उस समय एक बड़ी लहर थी समाजवादी चिंतन की। वह सबसे ज्यादा फ़िल्मों में दिखाई पड़ती थी। उस समय के गाने… बलराज साहनी… मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी… ‘आवारा’…
भालचंद्र जोशी : कौन-सी फ़िल्में याद आती हैं आपको?
विश्वनाथ त्रिपाठी : ‘आवारा’, ‘हम लोग’, ‘नीचा नगर’… चेतन आनंद की। ‘दो बीघा ज़मीन’। गाने उस समय क्या थे। तो उस समय में फ़िल्मी कल्चर… हीरो बड़े ग़रीब घर का होता था, विलेन अक्सर संपन्न होता था। हीरोइन ग़रीब हीरो को ही लव करती थी। पोशाक जो होती थी, वह अजीब होती थी। गांधीवाद जो है उसका एस्थेटिक्स… वह भी बहुत ज़ोरदार है। उसे अब तक समझा नहीं गया है। दिलीप कुमार कुरते और धोती में जो लगता था या नेहरू जी, लोहिया जी… उनकी पोशाक में सेक्सुअलिटी भी थी। अगर आपने कभी जयप्रकाश की जवानी की तस्वीर देखी हो, दिलीप कुमार, जवाहरलाल नेहरू, मिसेज पंडित ये लोग खद्दर के कपड़े पहने दिव्य लगते थे।
ओमा शर्मा : आप अपने लड़कपन में जब आज़ादी में प्रवेश कर रहे थे, गांधी नाम की एक बहुत बड़ी आँधी चल रही थी—समाज को परिवर्तित करने वाली। उसके समांतर आपने आर.एस.एस. की धारा के प्रति ज़्यादा जुड़ाव महसूस किया?
विश्वनाथ त्रिपाठी : नहीं नहीं नहीं। यह मामला ऐसा है कि ‘तब मैं रहेऊँ अचेत…’। मुझे किसी ने राहुल (सांकृत्यायन) जी की किताब दे दी पढ़ने को—‘मानव सभ्यता’। जहाँ मैं आर.एस.एस. के सिलसिले में जाता था, उसी घर में एक लड़का था—केशव शुक्ल। यह जो आज़ादी का नारा था, वह बहुत व्यापक था। उसने चौदह-पंद्रह साल की उम्र में सरकारी ख़ज़ाना लूटा था। उसे आजीवन जेल हो गई थी। फिर आज़ादी मिलने पर वह जेल से बाहर आया। उससे मेरी यारी हो गई। वह समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी का था। मुझसे बहस करता था और कहता था कि तुम वहाँ यानी आर.एस.एस. में रह नहीं पाओगे। उसी ने ‘मानव सभ्यता’ पढ़ने को दी। उसमें लिखा था यहूदी अपने धर्म को इतना मानते हैं। आप कल्पना कर सकते है, उस ज़माने में लेखकों ने कितना बड़ा काम किया है? राहुल जी… उनकी भाषा देखिए।
ओमा शर्मा : गांधी के बाद आर.एस.एस. और फिर बाद में समाजवादी धारा की ओर मुड़े?
भालचंद्र जोशी : कहाँ किस बिंदु पर आपको लगा कि आर.एस.एस. से…
विश्वनाथ त्रिपाठी : एक तो विचार में पढ़ा। यह बात कई बार कह चुका हूँ। यह लिखा था यहूदियों के बारे में… कि ये जो यहूदी हैं… इजराइल तो बाद में बना न… हज़ार साल तक अपनी जगह से बाहर रहे हैं और ये जो प्रार्थना करते थे उसका अँग्रेज़ी अनुवाद था :
If I forget thee, O Jerusalem, let my right hand forget its cunning, If I do not remember thee, let my tongue cleave to the roof of my mouth, if I prefer Jerusalem not above my chief joy...
यह पढ़कर लगा ये आर.एस.एस. वाले सब जो हिंदू हिंदू करते हैं, जैसे हम अपने राम को मानते हैं ऐसे ही दूसरे धर्म वाले भी मानते हैं। यह बहुत निर्णायक हो गया मेरे लिए। मेरा एक क्लासमेट था। नानक नाम था उसका। उसको मैं अपने उत्साह में शाखा ले गया। वह पढ़ता था, लेकिन मरा-मरा रहता था। मैंने कहा तुम संघ में चलो। मैंने संचालक को वहाँ जाकर परिचय दिया। उन्होंने पूछा जात क्या है तो भंगी मैं नहीं कहना चाहता था तो मैंने scavenger कहा। संचालक ने मज़ाक़ किया कि मेरी अँग्रेज़ी इतनी अच्छी नहीं है, तब मैंने बताया। बाद में जब वह चला गया तो कहने लगे कि रहने दो। हम ग़रीब घर के थे, काम भी बहुत करते थे, लेकिन वहाँ खाते-पीते घर के लोग थे, उनका ज़्यादा ख़याल होता था। यह सब मन में आता था। जो आपने पूछा… मेरा यार था सतीश वो साला ख़ूब सिनेमा देखता था। छह बजे शाखा लगती थी। छह बजे का शो वो देखता था। राजकपूर और नर्गिस। तो मुझे नर्गिस इतनी अच्छी लगी कि उसकी फ़ोटो लगी रहे, लगी रहे…। राजकपूर और नर्गिस की फ़िल्म देखने के चक्कर में शाखा मुझसे छूट गई। राहुल जी का विचार और नर्गिस… इन दोनों ने मुझे आर.एस.एस. से मुक्ति दिला दी। मैं मुख्य शिक्षक था। गुरु जी (गोलवलकर) आए थे कानपुर। मुझे जाना था सवेरे उठकर मिलने, लेकिन मैं सो गया… बल्कि याद है कि गुरु जी ने मज़ाक़ किया कि मुख्य शिक्षक ही सो गया। फिर साहित्य… कम्युनिस्ट पार्टी इतनी बड़ी पार्टी थी, एक्टिव पार्टी। आज नहीं है। तब अगर मेंबर बनना चाहते थे तो… अमृत राय हों या कोई हों, पहले ‘जनयुग’ चौराहे पर बँटवाया जाता था। मेंबरशिप ऐसे ही नहीं मिल जाती थी। अगर कार है तो जवाब देना पड़ेगा कि पार्टी में रहते आपने कार कैसे ख़रीदी। उस समय पार्टी बहुत एक्टिव थी। बहुत काम करते थे। उसका बड़ा असर पड़ता था।
ओमा शर्मा : अच्छा डॉक्टर साहब यह बताइए कि इस तरह की सामाजिक व्यवस्था जिसका वर्णाश्रम ग़रीबी संक्रमणकाल चल रहा है। फिर आपका साहित्य के प्रति स्नेह है, वह भी इतना गहरा… उस बिंदु को ज़रा रेखांकित कीजिए कि कैसे आप… एक तो आपने बताया राहुल जी। उसके बाद कब आपको लगा कि साहित्य को ही जीवन देना है?
विश्वनाथ त्रिपाठी : यह सवाल गहरे से विचार करने वाला है। यह सवाल इतना आसान नहीं है। कौन-सी चीज़ होती है मुख्यतः, कौन-सी ऐसी शब्द की या ध्वनि की महिमा है जो आपको उस सौंदर्य की ओर उन्मुख कर देती है जो साहित्य से प्रकट होता है। देखिए ऐसा होता है, इस पर मैंने सोचा है काफ़ी… सौंदर्य जो है… आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास का एक चरित्र है, एक लड़की है, वह कहती है कि लोग कहते हैं कि यह बत्तीस लक्षणों से युक्त सुंदरी है, ये लोग मुझे इतना क्यों महत्त्व दे रहे हैं, यह मेरी नाक ऐसी होती तो… या होंठ अगर थोड़े ऐसे हो गए होते तब तो ये लोग नहीं चाहते मुझे। लेकिन ये जो इतने से इतना हो जाना है। रूप में… वही म्यूजिक में होता है, बस ज़रा से ज़रा कुछ हो जाता है। और ये सब कुछ जीवन में दिखाई पड़ता है। म्यूजिक का, साहित्य का, सबका स्रोत जीवन में ही होता है। कैसे होता है, मैं बताता हूँ। मुझे ठुमरी बहुत पसंद है। मैं गा नहीं पाता, लेकिन गाने की तड़प देखिएगा, गाना मत देखिएगा। (गाकर सुनाते हैं) …रंगी साड़ी गुलाबी चुनरिया रे मोहे मारे नजरिया… अब ये जो ‘मारे है’ जो इसमें शिकायत है। ‘मुझे मारे…’ यह जीवन में भी होता है। ‘अरे वो मुझको गाली दे…। राजस्थानी गाना होता है न—पधारो म्हारे देस… ‘पधारो म्हारे’ में क्या जंप है, बस वही है… होंठ का ज़रा-सा इधर से उधर हो जाना। पता नहीं कितनी स्मृतियों का पुंज है उस ‘ज़रा-से’ में। संस्कृति ने, नेचर ने पता नहीं कितनी प्रक्रियाओं के बाद वह होंठ का ज़रा-सा कर्व पसंद किया होगा। हमारे यहाँ मर्सिया होता था। हसन हुसैन… ताज़िया रखा जाता था।
योगेंद्र आहूजा : गाँव में भी?
विश्वनाथ त्रिपाठी : गाँव में मर्सियों का रिवाज बड़ा तगड़ा था। लखनऊ के नज़दीक है न। एक बार मैं ननिहाल गया था। एक लड़की कोई आठ या नौ साल की गाना गा रही थी—‘नदिया के तीरे तीरे…’। वह ‘तीरे तीरे’ ऐसा गा रही थी कि उस ध्वनि में ऐसा था जैसे अभी कलेजा निकाल देगा। आपने कभी बिल्ली को रोते हुए सुना है? बिल्ली को रोते हुए अगर आप सुनें तो बिल्कुल दो महीने के बच्चे की आवाज़ होती है। ऐसी लोकगीतों में होती है—वह कसक आदिम मनुष्य की जो है… जब आदमी ने सूर्य को पहली बार देखा होगा, ‘ओह’ किया होगा… वह ‘ओह’ लोकगीतों में, बच्चों के रोने में… पशुओं के रोने-गाने में मौजूद है और हमारा लोक-साहित्य चीख़-चीख़कर पकड़कर उसे लाता है। जो नई समकालीन कविता है जिसे जड़ों की ओर लौटना कहते हैं न, वह बड़ा मुश्किल होता जाएगा, लेकिन जितना मुश्किल होगा उतना ही ज़रूरी होगा वह। संस्कृति में जो लहक है। रेणु की कहानी है—‘तीन बिंदिया’… उसमें एक सीन ऐसा है कि कुछ जनजातियाँ हैं, वे हिरन का शिकार करती हैं तो मुँह से वे ऐसी आवाज़ निकालते हैं कि हिरन अपने को रोक नहीं पाते। वे उधर जाना चाहते हैं। वहाँ वे कच्च-कच्च करके काट दिए जाते हैं। एक लेख मैंने पढ़ा था—‘नवीन सभ्यताओं के प्रवाह में कुछ प्राचीन विद्याओं का लोप’। जैसे मारीच जो था वह पशुओं की भाषा जानता था। अभी भी जो साँप पकड़ते हैं न…
भालचंद्र जोशी : कालबेलि…
विश्वनाथ त्रिपाठी : हाँ। कहानी जो है उस पर तो अलग से बात करूँगा।
भालचंद्र जोशी : नहीं, मेरी कहानी नहीं है वो…
योगेंद्र आहूजा : वे साँपों को आकृष्ट कर लेते हैं?
विश्वनाथ त्रिपाठी : जो मैं आपसे कह रहा हूँ बात उधर चली गई। मर्सिया सुनने के बाद जो हूक उठती है कि पता नहीं क्या गुम हो गया। जिसको वो लग गया न… फिर वो… उसके आगे त्रैलोक्य झूठा लगता है। संगीत कैसे होता है। एक कोई पान की दुकान पर बैठे बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब को सुन रहे थे। फिर कोई और आता है, वह भी तन्मय सुनने लगता है। तो पहला कहता है कि आप भी सुर के मारे हैं क्या? (सबकी हँसी…) इसीलिए मैं कहता हूँ राजनीति को, संसार को कविता ही ठीक करेगी। वह जो अकारण दुनिया को चिपटा लेने की शक्ति है, जहाँ पहुँचकर लगता है कि विरोधी हमारा जो है… वह डेमोक्रेटिक भावना देती है कि जो विरोधी हमारा है, वह हमारा शत्रु नहीं है। यह अकारण नहीं था कि गांधी संगीत के… फिर मैं वहीं आ गया, सारा स्रोत आपको वहीं मिलेगा, संगीत का, साहित्य, प्रेयर, राजनीति… उनकी प्रार्थना-सभा में इतने बड़े-बड़े संगीतकार आते थे उनके नाम अगर आप देखें न… और कवि… वे कीर्तन नहीं सुनते थे, ‘रामचरितमानस’ का पाठ दूर से सुनते थे। अब ये आर.एस.एस. वाले जो हैं ये कवियों के नाम कभी नहीं लेते। अयोध्या का नाम लेंगे, लेकिन तुलसीदास का नहीं, नरसी भगत…
योगेंद्र आहूजा : जो हमारे प्राचीन संस्कृत कवि हैं भर्तृहरि, भवभूति, कालिदास वग़ैरह… उनका भी नहीं…
ओमा शर्मा : आप नामवर (सिंह) जी के साथ, समकालीन आलोचना के साथ जुड़े रहे। एक स्पष्ट अंतर आपमें और दूसरे आलोचकों में देखता हूँ, ख़ासकर नामवर जी ने साहित्य और आलोचना को कमोबेश एक तरह सत्ता का केंद्र बनाया—साहित्य की सत्ता—आप उससे अछूते-से रहे, जैसे आप उसके दर्शक हों। क्या आपने इसका चयन किया? आप उन्हें किस निगाह से देखते रहे?
विश्वनाथ त्रिपाठी : नामवर जी से पर्सनल संबंध रहे हैं—गहरे, बहुत गहरे। वह बहुत बड़े थे। 1953 से मेरा परिचय है। मैं उन पर ठीक से लिख नहीं पाया। लिखना मुश्किल होता है। उनका मोहक रूप दूसरा था, वह आलोचक का नहीं था। नामवर जी का मेरे जीवन में बहुत असर है। मैंने कहा और इस पर मेरा मज़ाक़ भी बना कि हम लोग नामवर जी की जेब से निकले आलोचक हैं। वह कहते हुए मेरे दिमाग़ में एक रूसी कथाकार का कथन था कि हम लोग गोगोल के ओवरकोट से निकले हैं। नामवर जी में ऐसी प्रबल मेधा थी कि उनकी तारीफ़ में… अभी उस दिन हरिनारायण जी से बात हो रही थी कि आजकल के आलोचक किसी सिद्धांत की व्याख्या कर देना आलोचना समझते हैं। रचना में मार्मिकता कहाँ है, जिस ‘कर्व’ की मैंने बात की थी, वह ‘कर्व’ कहाँ है, वह पकड़ना मुश्किल होता है। नामवर जी वह करते थे। यह उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ में उन्होंने पकड़ा, धूमिल की कविता में पकड़ा। अपने समकालीन साहित्य की ऐसी पकड़ उनके समय में किसी और की नहीं थी। इसीलिए उनकी निंदा-स्तुति होती है, बात होती है। वरना कौन किसे याद रखता है? अब ऐसे बड़े आदमी को जो व्यवस्था है, वह पकड़कर के अपना काम करवाना चाहती है। हर आदमी के जीवन में कुछ पर्सनल महत्त्वाकांक्षा होती है। वह पान के बिना और पुस्तकों के बिना नहीं रह सकते थे। लिखे बिना रह सकते थे। वह पढ़ने वाले थे, बहुत पढ़ने वाले थे। लिखने वाले कम थे। मैंने उन पर एक लेख लिखा है कि टॉपर थे, निकाल दिए गए यूनिवर्सिटी से, साढ़े सात साल तक बेकार रहे और जीवन का यथार्थ क्या है, पैसा क्या होता है, यह सब जान-बूझ लिया उन्होंने। साहित्य का सत्य जान लिया, फिर जीवन की विषमता का भी सत्य जान लिया। फिर भी अपने को उन्होंने काफ़ी बचाए रखा और लिखना उनका कम हो गया, लेकिन वह प्रेरणा देते रहे, भाषण देते रहे। वाचिकता उनमें बनी रही। प्रेरणा का स्रोत बने रहे। अब जो आप कह रहे हैं तो मैंने कोई जान-बूझकर उनसे बचने की कोशिश नहीं की। यह प्रेम जो होता है न कभी-कभी आपको दूर फेंक देता है। उसकी ज़रा-सी भी बात आपको बहुत अजीब लग जाती है। एक चीज़ और मेरे दिमाग़ में थी। जीवन में एहसान लेना अच्छी चीज़ नहीं होती। उससे मैं बचता रहा हूँ। ऑटोबायोग्राफी नहीं बताना चाहता, लेकिन जो मेरे निकट के लोग हैं, वे जानते हैं। बार-बार क्या दुहराऊँ? (हजारीप्रसाद) द्विवेदी जी का एहसान लिया मैंने। लेकिन वह ऐसा था जो एहसान था ही नहीं। जब पहली बार उनसे मेरी भेंट हुई, मैंने लिखा है किताब में—न जान, न पहचान, वह खड़े हैं… मैंने प्रणाम करके कहा कि मैं क्या चाहता हूँ। मेरा रूप देखा होगा उन्होंने… पजामा फटा हुआ, दूसरे की क़मीज़ पहने हुआ था। प्रणाम करके लौटने लगा तो बुलाकर कहा पहली बार में ही—‘‘तुम्हें भूख तो नहीं लगी है…?’’ ये आदमी पहली मुलाक़ात में पूछ रहा है कि तुमको भूख तो नहीं लगी है। वह देवता आदमी थे। उनकी कृपा मुझ पर हुई, न जाने कितने जन्मान्तरों के संयोग से। अब मैं किसी और का नहीं हो सकता था। इसलिए आप लोगों की शुभकामनाओं से ऐसे काम… जीवन में मैंने ग़लती गड़बड़ कम नहीं की है, लेकिन इससे मैं बचा रहा। जे.एन.यू. नामवर जी ले जाना चाहते थे मुझे। यह उनका बड़प्पन था। लेकिन मैं जानता था कि मैं बहुत निकट हो जाऊँगा तो उससे कुछ गड़बड़ हो जाएगा। सहचर होकर रह सकता था। नामवर जी ध्यान रखते थे मेरा, लेकिन पता नहीं क्या था, मैं गया नहीं। फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी ऐसी चीज़ थी। डॉक्टर नगेंद्र ने मुझे वहाँ बड़ी शान से रखा। बड़ी गड़बड़ियाँ थीं उनमें। वह हिंदीवाले उस तरह नहीं थे जैसे पंडित जी, शास्त्री जी घूमते हैं। जहाँ अँग्रेज़ियत का दौर-दौराँ था, तब उनका दबदबा ऐसा था कि प्रिंसिपल कहते थे कि नगेंद्र साहब से कह देना। जब वह डिपार्टमेंट में आए तो छह आदमी थे। रिटायर हुए तो छह सौ। सब उनके नियुक्त किए हुए। बहुत शानदार ढंग से जगह ख़ाली हुई, न पोस्ट एडवरटाइज़ हुई, न इंटरव्यू हुआ, एकदम से कहा उन्होंने कि आई हैव सीन दिस बॉय…। दिल्ली एक डेमोक्रेटिक यूनिवर्सिटी रही है इस मामले में। उसकी तुलना में जे.एन.यू. अब हो गई है, लेकिन तब कोई तुलना नहीं थी।
ओमा शर्मा : यह डेमोक्रेटिक कैसे हुआ?
विश्वनाथ त्रिपाठी : मैं समझ गया आपका मतलब। डॉक्टर नगेंद्र ब्राह्मण थे। जब तक वह थे, विभाग में, फ़ैकल्टी में एक भी आदमी ब्राह्मण नहीं था। मैं ऐसे नहीं बोल रहा। बता देता हूँ। डॉक्टर नगेंद्र नगाइच ब्राह्मण। फिर मिसेज सिन्हा। स्नातक जी। उदयभान सिंह। विमल जी। कोई भी नहीं कह सकता कि पश्चिमी यू.पी. का एक भी आदमी हो। वह गुणी भी बहुत थे और गुणवत्ता का ध्यान रखते थे। उन्होंने जो सवाल किए थे तो जब मैं इंटरव्यू देने चला था तो पंडित जी (हजारीप्रसाद द्विवेदी) ने मुझसे कहा था, तुम चले जाओ। मैं नर्वस बहुत जल्दी हो जाता था। उन्होंने मज़ाक़ में कहा कि तुम अचार रख लेना जेब में। जब जवाब न दे पाओ तो अचार चख लेना। अचार से मेरा ठीक हो जाता है। मैंने जवाब ठीक दिए। वह बड़े खुश हुए। मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी छोड़कर जाना नहीं चाहता था। फिर मैंने इलेक्शन लड़ा था डूटा एग्जीक्यूटिव में। उस समय जनता पार्टी जब जीती थी, सी.पी.आई. की बुरी हालत थी। मैं सी.पी.आई. का कैंडिडेट था। मुझे हाईएस्ट वोट मिले थे। नामवर जी का कहना मैंने नहीं किया बहुत जगह। जे.एन.यू. मैं नहीं गया। बहुत-सी ऐसी बातें हैं। उन्होंने रामविलास जी के विरुद्ध लिखा तो मैंने कहा, नहीं आप ग़लत हैं।
भालचंद्र जोशी : ऐसी क्या बात थी कि नामवर जी किसी समय घनघोर प्रशंसक रहे रामविलास जी के, फिर उनकी रचनाओं में उन्होंने ऐसा क्या तलाश लिया?
विश्वनाथ त्रिपाठी : रामविलास जी दूसरे ढंग के आदमी थे। पहलवान, चरित्रवान और स्कॉलर। बहुत पढ़े-लिखे आदमी थे। वह सबको ख़ुश करने वाले नहीं थे। यह नहीं कि गोष्ठी में बैठे तो पता कर लिया कौन-कौन है। अकेले में आपकी तारीफ़ कर दी और फिर सबसे कहा कि हमने तो ऐसे ही कह दिया था। ऑडियंस देखकर बोलना, यह नामवर जी बहुत करते थे। हुआ यह था कि नामवर जी ने छायावाद के मामले में और नए कवियों को लेकर छायावादी मानसिकता पर, कवियों की दृष्टि पर और कविताओं पर, बाद में प्रगतिशील कवियों पर उन्होंने कटाक्ष किए थे। और अज्ञेय की, (विजय देव नारायण) साही की… उन सबकी प्रशंसा की थी। रामविलास जी पर कुछ छींटाकशी भी कर दी थी। साही को पढ़ लिया था और कुछ पश्चिमी आलोचकों को अच्छी तरह पढ़कर… वे गहरी बातें थीं, लेकिन उनकी नहीं थीं। रामविलास जी ने उनका पर्दाफ़ाश कर दिया। अब उनकी शैली ऐसी थी कि मारते थे तो काट-कूट के रख देते। बातें रामविलास जी की ठीक थीं। जितना पढ़ो उतना पता चलता है कि रामविलास जी बहुत मज़बूत ज़मीन पर खड़े थे। बहुत से ऐसे थे जैसे परमानंद श्रीवास्तव, वह नामवर जी की तरफ़ हो गए थे। मैं उसमें रामविलास जी को ठीक मानता था।
हरिनारायण : लेख आया था साप्ताहिक हिंदुस्तान में, हिंदी साहित्य में बाजरे की कलगी… उसमें वह लिखते हैं कि साही ने यह कहा और तीन साल बाद नामवर जी ने भी वही सोच लिया।
विश्वनाथ त्रिपाठी : वह बहुत भयंकर लेख है। रामविलास जी ने लिखा कि नामवर जी की प्रतिभा यह है कि जिस आदमी से उठाते हैं उसकी शब्दावली भी ले लेते हैं। एक वाक्य उद्धृत करके लिखा कि देखिए यह वाक्य ज़रा लंगड़ा रहा है, लेकिन साही का प्रभामंडल यहाँ भी चमचमा रहा है। (समवेत हँसी…) और यह सब मैलीशियस होकर नहीं। मानते थे वह नामवर जी को। नामवर जी उनसे मिलने गए। संयोगवश मैं भी गया था। उन्होंने मेरे सामने उनसे पूछा कि क्यों नामवर तुम्हारी उम्र क्या है? मेरे सामने बात हुई। समझ गए नामवर जी कि कुछ होने वाला है। पचास का होऊँगा, उन्होंने कहा। तो रामविलास जी मुझसे कहते हैं कि क्यों, a man of fifty may be a fool but he is surely not a kid. नामवर जी कुछ नहीं बोले। यह उनका बड़प्पन था। रामविलास जी ने उनसे कहा कि नामवर, तुमको पता है कि मैं क्यों नाराज़ हूँ तुमसे? बिल्कुल ऐसे ही। तुम पहले मेरा चुराते थे। चुरा-चुराकर लिखते थे। अब तुमने साही का चुरा-चुराकर लिखना शुरू कर दिया तो तुमने मेरा अपमान किया या नहीं? नामवर जी चुप रहे, छोटे भाई या शिष्य की तरह। (समवेत ठहाके…)
मैं उनको अपनी तुलसीदास वाली किताब देने गया। बैठा थोड़ी देर। वह बहुत ऊँचे आदमी थे। थोड़ी देर प्रतीक्षा करते रहे फिर बोले कि तुमने तुलसीदास पर कोई किताब लिखी है? लाओ। मैंने कहा कि मैं सोच रहा था कि अब माँगें तो दूँ आपको। बोले कि देख रहा हूँ क्या-क्या चुराया है मेरा। मैंने कहा कि पढ़िएगा। चुराया-वुराया नहीं है मैंने। बड़े खुश हुए। हाँ, ऐसे लिखना चाहिए। आपको पता कैसे चला? उन्होंने कहा, केदारनाथ अग्रवाल ने चिट्ठी में इस किताब के बारे में लिखा था। रामविलास जी दूसरे ढंग के आदमी थे, नामवर जी दूसरे ढंग के। सब तो ठीक है, लेकिन धूमिल की कविताओं की जो तारीफ़ नामवर जी ने की है… नामवर जी इज ए क्रिटिक ऑफ़ हिस्ट्री ऑन हिज ओन। जैसे उन्होंने धूमिल पर, निर्मल (वर्मा) पर लिखा है। मुक्तिबोध पर रामविलास जी ने ग़लत लिखा है। मुक्तिबोध बड़े पोएट हैं। रामविलास जी का काम अपनी जगह पर है। सुमित्रानंदन पंत, यशपाल, द्विवेदी जी पर उन्होंने ख़राब लिखा। मुक्तिबोध को उन्होंने बाद में समझा। चूक जाते हैं लोग। पहले जो लिखा वह ग़लत है।
ओमा शर्मा : हम सबने साहित्य में बीस-पचीस वर्ष निकाले हैं। अपने तो पचास-साठ वर्ष निकाले हैं। और हम सब जैसे विद्यार्थी के रूप में अपने को आपके सामने रखते हैं। एक लेखक का जीवन कैसे जिया जाए? उसके लिए आपका क्या मशविरा है?
योगेंद्र आहूजा : इस सवाल में मैं यह भी जोड़ना चाहूँगा कि इस समय… जब इतनी डार्कनेस है, एक लेखक का रोल ऐसे समय में क्या होना चाहिए?
विश्वनाथ त्रिपाठी : आपको बताऊँ आप लोग बहुत अच्छा जीवन जी रहे हैं। मेरे आस-पास आपकी पीढ़ी के जो साहित्यकार हैं, मैं देखता हूँ वे ऐसे प्रतिबद्ध और सहज जीवन जीने वाले और साहित्यिक नैतिकता का इतना आग्रह करने वाले, उस पर बहस करने वाले, निरंतर लिखने वाले हैं। मैं नाम नहीं लेना चाहता, लेकिन आजकल के अच्छे कहानीकारों में ऐसा कोई भी नहीं जिसने मुझसे कहा हो कि आप मेरी कहानी पर लिख दीजिए। अब मैं क्या कहूँ? भालचंद्र जी तो अपना नॉवेल भेजते ही रह गए मेरे पास।
भालचंद्र जोशी : मैं भेजूँगा, भेजूँगा…
विश्वनाथ त्रिपाठी : आप बैठे हैं, ओमा जी हैं। हरिनारायण जी ने बताया कि ओमा जी आएँगे तो… नामवर जी होते तो पहले ओमा जी की कुछ कहानियाँ पढ़ लेते। यह संयम जो है, यह बहुत बड़ी चीज़ है। यह मामूली चीज़ नहीं है। अपनी रचना की प्रशंसा सुनने की इच्छा स्वाभाविक है। सिरदर्द होता है तो कोई फ़ोन करके कह दे कि आपका लेख पढ़ा मैंने, तारीफ़ कर दे तो सिरदर्द भी ठीक हो जाता है। जैसे अच्छा गाना सुनने से, ख़ूबसूरत चेहरा देखने से तबियत ठीक हो जाती है। मैंने पंडित (हजारीप्रसाद द्विवेदी) जी में देखा यह… एक बार इलाहाबाद से लौटकर आया तो उनसे कहा कि फ़िराक़ (गोरखपुरी) साहब मिले थे और आपकी बहुत तारीफ़ कर रहे थे कि he is a singular figure in Hindi. पंडित जी फिर अपनी किताब निकालकर पढ़ने लगे कि क्या वाक़ई अच्छा लिखा है मैंने? यह होता है। सबको होता है। अपनी रचना के बारे में… शेक्सपियर ने लिखा है न कि flesh of my flesh, blood of my blood. उसके साथ कैसा पवित्र जीवन बिताया जाए। आप अपने बनाए मानदंडों पर चल नहीं सकते। बिल्कुल नहीं चल सकते।
मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप लोग जैसे जी रहे हो बेटा, ऐसे ही जियो। मैं अब एक कविता आपको सुनाता हूँ। निराला जी की दो लाइनें। प्रेम कविता है मित्रवर :
जैसे हम हैं वैसे ही रहें
लिए हाथ एक दूसरे का
अतिशय सुख के सागर में बहें।
जैसे हम हैं…
उर्दू वाले यह सरल भाषा नहीं लिख सकते। इसमें जो तद्भवता है न… उर्दू वाला किसान जीवन पर नहीं लिख सकता। प्रेमचंद लिख गए, लेकिन वह मूलतः हिंदीवाले थे।
आप लोग बहुत अच्छा जीवन जी रहे हो। बस ऐसे ही जीते रहो।
ओमा शर्मा : यह बात मैंने सतही तौर पर नहीं कही थी। शायद आपके समय में ऐसा न रहा हो उतना। लेकिन आज लेखक होना एक बड़े अकेलेपन के एहसास के साथ रहना है जो कभी-कभी बड़ा भयावह-सा लगता है।
विश्वनाथ त्रिपाठी : निराला जी की जीवनी पढ़ लो। रामविलास जी की लिखी हुई। अकेलापन तो होता है, लेकिन उसी को ताक़त बनाना होता है। वरना इसी में झूलते रहोगे। द्वंद्वात्मक जीवन नहीं जी पाओगे। ऐसे ही मुक्तिबोध का जीवन… आप जानते ही हो। गांधी जी अपने अंतिम समय में एक्सपेरिमेंट कर रहे थे।
ओमा शर्मा : कोई बाध्यता नहीं थी।
विश्वनाथ त्रिपाठी : बाध्यता-वाध्यता उस तरह से नहीं होती है। एक प्रभामंडल होता है, व्यक्तित्व का दबाव होता है। गांधी जी कुछ भी करें, हमारे आदर में कमी नहीं आती। फ़िराक़ साहब का एक शे’र है :
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते हैं दोस्त
आह मुझसे तुझे रंजिश-ए-बेजा भी नहीं।
पहले क्रुद्ध तो हो जाती थी अब तो क्रुद्ध भी नहीं होती।
योगेंद्र आहूजा : जवाब अधूरा रह गया। वह साहित्य को लेकर हमारा क्या रुख़, क्या नज़रिया हो, इससे संबंधित था। लेकिन कुछ व्यावहारिक बातें… आपने जीवन के उत्तरार्ध में विपुल लेखन किया है। यह ऐसे ही नहीं होता। वह कठोर परिश्रम और अनुशासन माँगता है। मेरा सवाल यह है कि how to achieve, maintain that…
ओमा शर्मा : Be there, remain there.. with dignity.
विश्वनाथ त्रिपाठी : देखिए, अस्ल में और कुछ नहीं है। जिन लोगों का लेखन आपको पसंद आता है न, उसका आपके लेखन पर दबाव होता है। यह चीज़ बड़ी दूर तक जाती है। कहते हैं न कि स्टाइल इज द मैन। मैंने कहीं पढ़ा था, शायद हेमिंग्वे की भाषा के बारे में पढ़ा था कि भूसा जो है वह सूखा होना चाहिए। हड्डी ज्यादा होनी चाहिए, माँस कम होना चाहिए। अगर कोई फ़ॉर्मूला बनाना चाहें तो फ़ॉर्मूला तो एक ही है कि लेखक होकर आप मत लिखिए। आप लिखने लगिए तो… जो देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं, एक मनुष्य के रूप में, बस वह लिखिए। जिन चीज़ों से प्रभावित होते हैं… संस्मरण लिखना है तो उनमें आत्मौचित्य नहीं होना चाहिए। अकाउंट नहीं सेटल करना चाहिए। जैसे कोई घटना हुई तो उस घटना के केंद्र में आप ख़ुद को न रखें, अपने को गाढ़ा रंग न देना, सहज ढंग से लिखना। बल्कि हो सके तो अपने को बहुत पीछे रखना। लेकिन यह सब कोशिश करके नहीं। विवेक भी ऐसा होता है। मन में कभी-कभी विकार पैदा होता है, लेकिन शायद बुढ़ापे में एक अक़्ल आ जाती है कि किन परिस्थितियों में, कितने लोगों ने मुझ पर एहसान किया है।
हर एक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिलकश था
मगर हम अहले मोहब्बत कशां-कशां गुज़रे
क्या करते? कहीं ठहर तो नहीं सकते थे न। मैं आपसे सचमुच बताता हूँ कि एक इन्फ़ीरिऑरिटी कॉम्प्लेक्स मुझमें रहा है। शायद वह मेरी रचनाधर्मिता से जुड़ा है। जब मैं बूढा नहीं था तो अक्सर लोग मुझसे कहते थे कि तुम अच्छे लगते हो देखने में। मैं सोचता था कि शायद वह मुझे बेवक़ूफ़ बना रहा है, क्योंकि मेरा क़द छोटा था। अब तो कोई ऐसा नहीं कहता। तो अब लगता है कि शायद मैं अच्छा था। सच कहूँ, मुझे कभी यक़ीन नहीं होता कि मैं अच्छा लेखक हूँ। मैं ऐसे नहीं कह रहा हूँ। कभी-कभी लगता है। कभी-कभी अपना भी पढ़कर खुश होता हूँ। ख़ासतौर पर कुछ कविताएँ, नंगातलाई, परसाई जी वाली किताब… लेकिन ये है कि… बहुत बड़ी बात है—अच्छा लेखक होना। दूसरों को पढ़कर खुश होता हूँ… ग़ालिब, ग़ालिब को मैंने बहुत पढ़ा है, भवभूति…
भालचंद्र जोशी : वह कौन-सी किताब है जो अब आपको लगता है कि आपने न पढ़ी होती तो आपके जीवन में कुछ अधूरा रह गया होता…
विश्वनाथ त्रिपाठी : बताता हूँ। कई किताबें ऐसी हैं। लेकिन एक किताब कहनी हो तो… वह आप लोगों और हमारे टेस्ट में इतना फ़र्क़ है कि शायद हम कन्विंस नहीं कर पाएँगे… ‘रामचरितमानस’। लेकिन उसके बाद किसी एक किताब का नाम लेना हो तो—‘गोदान’। अब रोना-ओना तो ज्यादा भवभूति को पढ़कर होता है। उनका ‘उत्तर रामचरित’ जो है। लेकिन ‘गोदान’ में… अब बताऊँ कहाँ अच्छा लगता है… उसके अंत में जब होरी मरता है, उसे लू लग जाती है और धनिया उसके पास जाती है और कहती है, ‘‘अब कैसा जी है तुम्हारा। मैं तो डर गई थी।’’ तो होरी कहता है, ‘‘और कब तक जिलाएगी धनिया…’’ एकदम-से लगता है कि मेरा बाप मर रहा होगा तो… माँ से यही कह रहा होगा… (गला भर्रा जाता है) …शायद ऐसा कहा होगा। एकदम बुड्ढा आदमी जब मरेगा न तो यही कहेगा। तेरी वजह से मैं जी रहा हूँ। तू मुझे जिला रही है। (बाँध टूट जाता है तो विश्वनाथ जी ख़ुद को रोक नहीं पाते। रोने लगते हैं, बेहिचक। प्रश्नकर्ताओं की आँखें भी नम हो आती हैं। कुछ देर ख़ामोशी छाई रहती है।)
शुरू में ही जब वह पोशाक पहनकर जाता है और वह मज़ाक़ करती है कि ससुराल में तो कोई साली भी नहीं बैठी है। वह कहता है कि मर्द तो साठे पे पाठे होते हैं। खट से धनिया कहती है कि तुम्हारे जैसे मर्द साठे-पाठे नहीं होते। घी-दूध तो ठीक से मयस्सर नहीं होता। एक क्षण में उसका सारा लास्य ग़ायब हो जाता है। उस पर एक्टिंग करना बड़ा मुश्किल होगा। उल्लास वाला चेहरा एकदम… और जहाँ दुलारी सहुआइन से होरी मज़ाक़ कर रहा है। कभी जब वह अच्छा था उस ज़माने से… मैंने एक कविता भी लिखी थी कि प्रेमचंद तुम मेरे घर कब गए थे। ‘प्रेमचंद बिस्कोहर में’ में है वह कविता।
मैं जानता हूँ कि टॉलस्टॉय शायद प्रेमचंद से बड़े राइटर थे… सो व्हाट? ऐसे जवाहरलाल नेहरू जी बहुत पढ़े-लिखे थे, लेकिन वह मेरे पिता तो नहीं थे। मैं तो भैया प्रेमचंद को बहुत मानता हूँ। यह न पढ़ा होता तो… और किताबें जो मुझे पसंद हैं, वे हैं चार्ली चैपलिन की आत्मकथा और ‘लस्ट फ़ॉर लाइफ़’।
ओमा शर्मा : सन् पचास… आज़ादी के बाद की कुछ किताबों के बारे में…
विश्वनाथ त्रिपाठी : आज़ादी के बाद का… ‘गोदान’ सन् छत्तीस में आ गया था। रेणु मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। लेकिन उतने अच्छे नहीं। वह मोहक ज़्यादा हैं। आँखें धुँधला देते हैं। दारुणता जो होती है ग़रीबी की न, वो…
योगेंद्र आहूजा : वह लोकजीवन में सिर्फ़ ग़रीबी, दरिद्रता, दैन्य नहीं, मस्ती और उल्लास को भी समेटना चाहते हैं। वह उस तरह से परिवर्तनकामी नहीं, लेकिन परिवर्तनों के साथ चलते हैं। परिवर्तनों में जो पॉजिटिव है, उसके साथ। वह स्मृति-दंश के लेखक हैं। जो हो रहा है और छूट रहा है, वह सब कुछ दर्ज करते हैं।
ओमा शर्मा : निर्मल वर्मा।
विश्वनाथ त्रिपाठी : निर्मल वर्मा… बताता हूँ। निर्मल वर्मा… बहुत गंभीर विचारक हैं। साहित्य की जो उपयोगिता है, कला की उपयोगिता है, उसको बिल्कुल समझने वाले आदमी हैं। जो इतिहास है, विचारधारा है, राजनीति है… प्रपंच जो है, वह बहुत हावी हो गया है हम पर। उससे स्वतंत्र और मुक्त कला ही कर सकती है। बड़ा मशहूर उनका वाक्य है : ‘‘वह सितंबर की शाम थी और वह सड़क पार कर रहा था…’’ लेखक लिखता है कि यह सितंबर की शाम और सड़क पार करने की घटना… यह सर्वथा स्वतंत्र, मुक्त है। इतिहास से मुक्ति की शिद्दत यही है। आदिम युग में पहुँच जाना। लेकिन यह माँग भी इतिहास का ही एजेंडा है। इतिहास इतना हावी जो है तभी उससे मुक्ति के लिए हम तड़प रहे हैं। जो आदिम मनुष्य रहा होगा, उसे इतिहास से मुक्ति की कोई पीड़ा नहीं रही होगी। इतिहास से मुक्ति की तीव्र शिद्दत है… लेकिन यह भी एक ऐतिहासिक एजेंडा है। सिविलाइजेशन के सामने। उनकी चिंता यही है। यह बहुत बड़ी चिंता है। लेकिन इसी सोचने पर ठहर जाना…। असल में यहीं मुक्तिबोध का और उनका झगड़ा हो जाता है। जो सौंदर्य का क्षण होता है… वह सबसे विशिष्ट तो होता है, लेकिन कनेक्टेड वह पता नहीं कितने क्षणों से है। निर्मल वर्मा की वह जो मुक्ति की टीस है, वह जायज़ है लेकिन वह बहुत अपर्याप्त है। जो हमारा सौंदर्यबोध है, सौंदर्य की संरचना है, उसके बहुत constituents हैं, बहुत घटक हैं। उसका एक घटक तो वह हो सकता है, लेकिन वह निर्मल वर्मा, ‘लंदन की एक रात’ वाले…
योगेंद्र आहूजा : और ‘डेढ़ इंच ऊपर’ वाले…
विश्वनाथ त्रिपाठी : जिस ढंग से वह लिस्ट पढ़ी जाती है जिसमें लोगों को रोज़गार दिया जा रहा है। और जब नहीं उसका नाम आता है तो… उसका वर्णन निर्मल जी का कमाल का है… लेकिन वह भी कानपुर का नहीं है। वह लंदन का है।
योगेंद्र आहूजा : ‘डेढ़ इंच ऊपर’ में लिस्ट पढ़ी जाती है, उन लोगों की जो पिछली रात मार दिए गए…
विश्वनाथ त्रिपाठी : बेरोज़गारी का… मैंने एक कविता लिखी… एक लड़का, एक स्टूडेंट है मेरा। वह बड़ा लंबा है, गोरा है, मैं कविताएँ पढ़ाता हूँ, लेकिन वह मुझसे अच्छी कविताएँ लिखता है, वाद-विवाद प्रतियोगिता में बड़ा वाग्मी है, लेकिन जब से एम.ए. पास हुआ है हकलाने लगा है, क्योंकि नौकरी ढूँढ़ रहा है। बेरोज़गारी की तकलीफ़ क्या होती है? लाइन में लगना क्या होता है? रोग क्या होता है? इससे मुक्ति होना कितनी बड़ी बात है। यह मुक्ति और इतिहास से मुक्ति की शिद्दत… दोनों को आपस में भिड़ाना चाहिए। मुक्तिबोध यह करते हैं। मुझे चक्कर यह होता है सौंदर्यवादियों से… जैसे अज्ञेय की कविता है—‘असाध्य वीणा’। वह एक अद्भुत बड़ी कविता है। उसमें सब हैं, श्रमजीवी हैं, कर्मचारी हैं, राजा, मंत्री… लेकिन वे लड़ते नहीं हैं। क्लेश नहीं करते आपस में। क्लेश नहीं करेंगे तो प्रबंध कैसे बनेगा। सौंदर्य का क्षण पूरा भोगिए, लेकिन वह क्षण एक बहुत लंबी शृंखला का हिस्सा है। वह अपने में जुदा नहीं है। एक शे’र मैं सुनाता हूँ। मख़दूम का है :
ख़िलवते रंगी में भी यूँ डसता है दुनिया का हाल
जैसे पीते वक़्त भूखे बाल बच्चों का ख़याल
पीकर कोई यह सोचे कि ग़म-ग़लत हो गया… ऐसा नहीं होता। सार्त्र का जो अस्तित्ववाद था… लेकिन फ्रांस पर जब जर्मनी ने क़ब्ज़ा कर लिया था तो वह विचलित रहे।
ओमा शर्मा : डॉक्टर साहब, क्या इस उम्र में आपको प्रेम करने की ललक होती है?
विश्वनाथ त्रिपाठी : प्रेम…। मिसरा है न ग़ालिब का : ‘टुक ज़रा छेड़िए फिर क्या होता है…’ ग़ालिब का शायद नहीं है, किसी और का है। प्रेम… बहुत किया है मैंने। बहुत गड़बड़ भी किया है। आइडियल जीवन मेरा नहीं रहा है। भोजन और सेक्स के मामले में असंयम किया है। लेकिन संयम भी बहुत किया है। गड़बड़ा गया।
योगेंद्र आहूजा : आपने बताया था कि आपका एक रिश्ता था जो बदनाम भी हुआ था। उस समय आपकी अवस्था क्या थी?
विश्वनाथ त्रिपाठी : तक़रीबन तीस-इकत्तीस साल।
ओमा शर्मा : वह तो जायज़ उम्र थी…
विश्वनाथ त्रिपाठी : उसका कोई रिग्रेट मुझे नहीं है। वह जो थी, वह मुझसे समझदार थी। अभी भी है। लेकिन प्रेम-व्रेम जो होता है, कुल मिलाकर पत्नी से ही होता है। मुसीबत में, परेशानी में, अर्थाभाव में, बीमारी में पति-पत्नी ही साथ देते हैं। प्रेमिकाओं के साथ वह संभव नहीं है। कभी हो जाए तो बहुत अच्छा है। लेकिन कुल मिलाकर प्लेटोनिक ही रहता है वह। वह सुख देता है। जीवन को सार्थकता देता है। वही एक ऐसा मनोविकार है जो आपको स्वार्थ से मुक्त कर देता है। आप अपने सुख के बारे में नहीं, प्रेमी के सुख के बारे में सोचते हैं। असल में जो इंद्रियों का सुख है, बहुत बड़ा सुख है। पता नहीं लोग कब समझेंगे कि रति-क्रीड़ा मामूली सुख नहीं है… तल्लीन होना, तन्मय होना, क्रिएट करना… जो आदिबिंब है क्रिएशन का…
ओमा शर्मा : क्या आपका मन करता है कि आप पचास साल कम उम्र के होते?
विश्वनाथ त्रिपाठी : लेकिन तब इतनी विजडम न होती। उस समय मैं तीन तीन घंटे बस स्टेशन पर इंतज़ार किया करता था। लेकिन अब नहीं कर सकता। अब अगर उतनी शक्ति आ जाए तो भी नहीं करूँगा। मैं कहूँगा कि it is not worth that.
विवाहित आदमी प्रेम न करे तो बहुत अच्छा है। इससे पत्नी और बच्चों को बहुत तकलीफ़ होती है। वो चार साल… उस दौरान चेहरा अपनी पत्नी का, वह भूलता नहीं… जैसे विधवा हो गई हो। पत्नी को पता चल जाता है। आप पत्नी से छुपा नहीं सकते। एक प्रेमिका से भी दूसरी प्रेमिका नहीं छुपा सकते।
योगेंद्र आहूजा : आपने एक बार मुझसे अधूरा-सा कुछ कहा था। ‘त्यागपत्र’ का वह जो एक अंश है कोयले की टाल वाला, जहाँ जाकर मृणाल रह रही है। उसका भतीजा प्रमोद उससे वहाँ मिलने जाता है। वह पूरी दुनिया से परित्यक्त है। टाल वाला… उसका मन उस पर आ गया है। आपने बताया था कि उसके हिस्से आपको सपने में आते हैं।
विश्वनाथ त्रिपाठी : अंतिम भाषण जो निर्मल वर्मा का हुआ था उसमें मैं था। वह जैनेंद्र कुमार पर था। अच्छा बोले वह। बड़ा अच्छा लगा। तो हुआ यह कि मैंने सपना देखा… यह हमेशा मुझे आता है… यह आवर्ती सपना है कि मेरी बीवी मुझे छोड़कर चली गई है। फिर वह पत्नी मिल तो रही है, लेकिन उसमें वह warmth नहीं है। यह आता है मुझे अक्सर और मैं पसीने-पसीने हो जाता हूँ। मैंने सपना देखा कि मैं और मेरी पत्नी एक बहुत बड़े मकान में एक दूसरे का हाथ पकड़े मगन होकर चले जा रहे हैं। एकाएक हाथ छूट जाता है। मैं चीख़ रहा हूँ, चिल्ला रहा हूँ, पता नहीं कहाँ चई गई। टाइम का वक़्फ़ा भी सपने में आ जाता है कि इतना टाइम बीत गया। फिर मैं ढूँढ़ रहा हूँ। गाँव की सड़कें मुझे याद आ रही हैं। उन्हीं में ढूँढ़ रहा हूँ। एक भड़भूजे की दुकान पर मेरी पत्नी बैठी नज़र आती हैं। एक बच्चा लिए हुए। अब वह कुछ कहती तो है, लेकिन उसके मन में मुझे देखकर वह उत्साह नहीं है। औचकपना नहीं है। मैं तो ऐसे ही यहाँ चली आई थी, वह कहती है। कुछ और कहे कि तभी एक आदमी… लग रहा है कि मेरी पत्नी से उसका संबंध है… और यह भी बिना कहे ज़ाहिर हो जाता है कि बच्चा जो है, वह उससे पैदा हुआ है। वह मेरा साथ छोड़ जाती है। सपना टूट जाता है। अब मैं सोचता हूँ कि यह सपना साला कहाँ से आ गया। यह सपना ‘त्यागपत्र’ का गहरा असर था जो मेरे रक्त में डूब गया था।
हरिनारायण : वह पूरा उपन्यास ही इतना मार्मिक है। जैसे आपने कहा भवभूति को… वैसे ही मैं यह उपन्यास पढ़-पढ़कर रोया हूँ, कम से कम बीस बार। मेरे लिए वह… बहुत बड़ा उपन्यास है।
योगेंद्र आहूजा : वह जैनेंद्र जी की विश्वस्तरीय कृति है। और रचनाएँ जैनेंद्र जी की उतनी बड़ी नहीं हैं।
विश्वनाथ त्रिपाठी : एक बार जो मैंने कहा था कि इस समय जो कहानियाँ लिखी जा रही हैं तो वह उस ढंग से नहीं कहा था। सचमुच बहुत अच्छी कहानियाँ लिखी जा रही हैं। आलोचक उन कहानियों की ग्रेटनेस को, उनकी वर्थ को कैसे बतावें। यह मुश्किल काम है। मेहनत माँगता है। मैं इस उम्र में उतनी मेहनत नहीं कर सकता।
भालचंद्र जोशी : किस रचना पर लिखकर आपको संतोष हुआ कि आप उसके साथ न्याय कर सके?
विश्वनाथ त्रिपाठी : कई रचनाएँ हैं। स्वयं प्रकाश की एक कहानी है—‘नीलकांत का सफ़र’। इस पर मुझे याद आ गया। वह एडल्टरी की कहानी है। एक विवाहिता औरत है जिसके साथ वह रहता है। पहले की प्रेमिका है वह। जब चलने लगता है तो वह चाहता था जन्म भर के लिए उसे पाना, लेकिन पाया नहीं। सवेरे वह जाने लगता है तो वह डबलरोटी-आमलेट वग़ैरह बनाकर रख देती है। वह बड़े अजीब ढंग से सोचता है कि क्या यही चीज़ थी, जिसके लिए यहाँ तक आया? कभी-कभी छोटी कहानियाँ याद आ जाती हैं। कोई ज़रूरी नहीं है कि कोई लंबी-चौड़ी कहानी…
ओमा शर्मा : अच्छा डॉक्टर साहब एक और जिज्ञासा मेरी यह है। आपकी इस समय की दिनचर्या क्या है? कितने बजे सोते, कब उठते हैं? आपका चौबीस घंटे का हिसाब-किताब?
विश्वनाथ त्रिपाठी : बताता हूँ। मैं और पत्नी अलग सोते थे। जीवन भर अलग ही सोते रहे। एक लड़का, मेरे भतीजे का, वहाँ पास में सोता था। अभी एक महीने पहले की बात है, रात को वह चिल्लाईं। चक्कर मुझे आ रहा है, उन्होंने कहा। मैं गया पास, कहा कि जब तक मैं हूँ कुछ नहीं होगा। तब से मैं उन्हीं के पास सोता हूँ। हमारा आपस में बहुत अच्छा रिश्ता था। लोग मुझसे कहते थे कि आप ‘मेहरबस’ हैं। वह कहती हैं कि आप यहाँ मेरे पास सोवो तो अब उन्हीं के पास सोता हूँ। वह चल नहीं पातीं, लेकिन अभी भी घर में जितना काम होता है, वही करती हैं। पानी भरना, ये-वो। उनका आग्रह है कि रसोई में जीरा जहाँ है, हल्दी… सब वहीं होना चाहिए। थोड़ा भी इधर-उधर करो तो कहती हैं कि सब गड़बड़ हो गया। सुबह मैं साढ़े पाँच बजे उठता हूँ, फिर शौच, ब्रश के बाद हल्दी की चाय पीता हूँ। फिर पानी आ जाता है। मोटर चलाता हूँ। फिर गीज़र चला देता हूँ। चाय पी ली, मगन हो गए। बादाम खाता हूँ। एक्सरसाइज करता हूँ। साढ़े सात बजे, पौने आठ बजे तक अख़बार आता है। अख़बार पढने के बाद, नाश्ते के बाद फिर सो जाता हूँ, साढ़े ग्यारह-बारह तक। रात को नींद मुझे नहीं आती। मैं टटोलता रहता हूँ उनको। अब हाल यह है कि… शे’र है न जिगर का :
दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद
अब चाहता हूँ कि मेरी पत्नी मुझसे पहले चली जाएँ तो मैं निश्चिंत हो जाऊँ। मेरे बाद कोई उनका उस तरह ख़याल नहीं रख पाएगा। परेशान होंगी वह। अब होंगीं तो… क्या कर सकते हैं, तब हम तो होंगे नहीं। कुछ बातें हुई हैं जो अपूरणीय क्षति जैसी हैं। उनके बारे में कभी नहीं कहूँगा, कुछ अपराध हैं, पाप हैं… उनके लिए रोने के भी योग्य नहीं मैं।
योगेंद्र आहूजा : जितना बताना ठीक समझें उतना ही कहें। आपकी निजता का हमारे मन में पूरा सम्मान है।
विश्वनाथ त्रिपाठी : निजता नहीं है वह। आत्मघात है।
योगेंद्र आहूजा : कोई अनकही बात हो जो कहना चाहें तो कह दें।
ओमा शर्मा : अगर वही जीवन वही मुक़ाम उम्र का फिर मिले तो क्या आप वही करेंगे?
विश्वनाथ त्रिपाठी : नहीं करूँगा यार। जिन व्यक्तियों ने मुझे सुख दिया, बहुत सुख का अनुभव कराया। उनका परम कृतज्ञ हूँ, उनका परम आदर करता हूँ। साहित्य का सौंदर्य जो तुमको मिलता है… साहित्यकार सौंदर्य को देख सकता है। भोग सकता है। ये उसका पॉजिटिव एडवेंचर है। एक लड़की को देखकर तुमको जितना सुख मिलेगा, वह उसे नहीं जो साहित्यकार नहीं। जिसने ‘शाकुंतलम’ पढ़ा है, वह एक जाती हुई लड़की को देखकर उसमें न जाने क्या-क्या देख लेगा। लड़कियों के शरीर की गंध, जौ की, धान की, मूँगफली की, मछली की… नाना प्रकार की… लेकिन अब उस तरह से नहीं हो पाएगा। मन मेरा अभी भी है। यह मेरा कन्फ़ेशन है।
योगेंद्र आहूजा : अब हम इस बातचीत के अंत के क़रीब हैं। अब अंतिम सवाल…
भालचंद्र जोशी : नामवर जी ने कहा कि आलोचना भी रचना होती है। और एक बार यह भी कहा था कि रचना हमेशा आलोचना से बड़ी होती है। इन दोनों की द्वंद्वात्मकता को लेकर क्या कहेंगे आप?
विश्वनाथ त्रिपाठी : ऐसा है भालचंद्र, आलोचना ही रचना नहीं होती है। पाठ की प्रक्रिया भी एक रचना होती है। जब आप कविता पढ़ते हैं तो उसके साथ अपनी कविता भी तो रचते जाते हैं न। अच्छी रचना के साथ आप भी तो अपना पाठ रचते हैं। अच्छी रचना पाठकों को सर्जक या सर्जना में सहभागी बनाती है। हर अच्छा पाठक अच्छा आलोचक नहीं होता। लेकिन हर आलोचक हर अच्छा पाठक ज़रूर होगा। तो आलोचक को तो रचनाकार होना ही पड़ता है। हो जाता है। लेकिन आलोचक की महत्ता वहीं तक नहीं है। …जैसे मंगलेश (डबराल) जी की कविता है—‘संगतकार’। अब आप देखिए, वह अपने को जान-बूझकर स्वभावतः संगीतकार के पीछे रखता है। उसे खुलने-खेलने का पूरा मौक़ा देता है। लेकिन यह पूरी सिविलाइज़ेशन की प्रॉब्लम है। ज़माना है कॉम्पिटिशन का, आत्मविज्ञापन का। दूसरे को छोड़कर आगे बढ़ जाना। एक कहानी है—‘दाज्यू’—शेखर जोशी की। ‘दाज्यू’ शब्द एक है, लेकिन वह क्या है जिसको आप नेशनेलिटी कहते हैं, आइडेंटिटी कहते हैं, जिसको आप पहचान कहते हैं… क्या है ये एक शब्द पूरा क्लियर कर देता है न। एक वेटर है जो यह कहकर कि ‘बॉय कहते हैं साहब मुझे’ उसकी अस्मिता को नष्ट कर देता है। तुम दाज्यू नहीं हो, साहब हो। ये रेखांकित करना आलोचक का काम होता है।
मेरे एक सहपाठी थे रवींद्र श्रीवास्तव। भाषाविद् थे। वह कहते थे कि मैं लिंग्विस्टिक्स का प्रोफ़ेसर हूँ, लेकिन जानता हूँ कि one hundred linguists would not make a single critic. एक चीज़ को, एक शब्द को पूरी सभ्यता के व्यवहार से जोड़ देना…
ओमा शर्मा : आपको कोई गिला या अफ़सोस या प्रायश्चित?
विश्वनाथ त्रिपाठी : जाने दो। (फिर कुछ सोचते हुए) …मेरे माँ और बाप दोनों के मरते समय मैं उनके साथ नहीं था। मेरे पिता क्या थे, वह अब समझ में आ रहा है। छुट्टियों में जाता था दस दिन के लिए तो सात-आठ दिन तक मगन रहते थे। नवें दिन से चिड़चिड़े होने शुरू हो जाते थे। तुम लोग परिवार के लोगों को बहुत प्रेम दो। मैंने अपनी पत्नी (गला भर्रा आता है) की बहुत उपेक्षा की है… I was not a cruel man. लेकिन हो गया। यही है पश्चाताप। और एक यह है कि काश यह किताब (‘व्योमकेश दरवेश’) पंडित जी के समय रहते ही लिख देता। ख़ुश होते वह। और मुझे कोई अफ़सोस नहीं। जीवन से बहुत सुख उठाया है मैंने। मैं बहुत सुखी, संतुष्ट हूँ। इतना कम… ऐसा लिखकर इतना मान… पुरस्कार… प्रेम…
योगेंद्र आहूजा : मेरा जो सवाल है… मुझे उसका ज़वाब नहीं चाहिए। यह बातचीत इस सवाल पर ही ख़त्म होगी। जवाब हम आपके सौवें जन्मदिन पर लेंगे, दस साल के बाद। तब तक आप उस पर सोचिए। वह यह कि जीवन का जो अल्टीमेट नियम है, ultimate law of being… जैसे मीर साहब के लिए था—इश्क़। ऐसे ही मार्क्स के जीवन में एक प्रसंग आता है, एक अमेरिकी पत्रकार इंटरव्यू लेने के लिए आता है और यही पूछता है तो वह कहते हैं—स्ट्रगल। यही मैं आपसे पूछता हूँ।
विश्वनाथ त्रिपाठी : अरे, दस साल का इंतज़ार क्यों, वह मैं अभी कह देता हूँ न। (सोचते हुए) वह एक शब्द नहीं, वह एक वाक्य होगा : ‘सुख नैतिक है।‘
ओमा शर्मा : और दुःख?
विश्वनाथ त्रिपाठी : दुःख केवल वही नैतिक है जिसमें सबके सुख की कामना छुपी हो, विराट दुःख, बुद्ध वाला। उससे बड़ी नैतिकता क्या हो सकती है? वह दुःख भी दरअसल सुख ही है, सर्वोच्च, चरम सुख।
दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
ख़राब होके भी ये ज़िंदगी ख़राब नहीं
— फ़िराक़ गोरखपुरी
चलो हो गया भई।
विश्वनाथ त्रिपाठी हिंदी के समादृत साहित्यकार हैं। योगेंद्र आहूजा, ओमा शर्मा और भालचंद्र जोशी सुपरिचित हिंदी कथाकार हैं। हरिनारायण हिंदी साहित्य की मासिक पत्रिका ‘कथादेश’ के संपादक हैं। यह बातचीत ‘कथादेश’ के फ़रवरी-2020 अंक में पूर्व-प्रकाशित तथा वहीं से साभार है।