कविताएँ ::
अमित तिवारी
उपेक्षा
मोटी बूँद वाली वृष्टि की तरह
उलाहनाएँ पड़ती हैं मुझ पर
अनपेक्षित
मैं जड़ें पकड़े झूलता रहता हूँ
और जब लगता है
कि उजड़ जाएगा सब
जाने किस मद में दुबारा झूम जाता हूँ
मैं काँटे नहीं उगाऊँगा
और मरूँगा भी नहीं
उग आऊँगा सब गढ़-मठ पर
तुम्हारी उपेक्षा मेरे लिए खाद है।
मरीचिका
भेद जानने के लिए
ज़रूरी था भेद देना
मैं दोनों में ही निष्फल रहा
ताड़ नहीं पाया उसकी दृष्टि
वे इतनी चंचल कि निर्दोष लगती थीं
और इतनी मूक
कि विद्रोह का भय होता था
उसकी वे आँखें कंजई थीं
उसकी आँखों में हिरन रहते थे।
प्रेम का नाटकीय रूपांतर
कवि ने गिना दिए
अपनी प्रेमिका की देह पर छितराए हुए
बारह तिल, चार कत्थई दाग़ आदि
और उसे पौराणिक घटनाओं से लीपने के बाद
मौसमों, दिनों, महीनों की गठरी में बाँध कर
बेच दिया
लोग उसकी कविताओं में चखते रहे
प्रेम और संयोग का जादुई मिश्रण
होता रहा वियोगी कवि के भात का प्रबंध
उधर प्रेमिका ढाँपती रही
वे सारी छापें और चिह्न
जो प्रेमी की परिभाषा से अधिक थे
और प्रेम की आड़ में
चुपचाप होता रहा
प्रेम का नाटकीय रूपांतर।
आश्वासन
आने के बहुत पहले से आता रहा
आ जाने का आश्वासन
हर बार ‘जल्द ही आएँगे’ के साथ
थोड़ा-थोड़ा आता रहा उनके शहर का मौसम
मन में उपराते रहे दवाइयों, कपड़ों, जूतों के आकार
और एक जगह का सामान दूसरे जगह खुलने की महक
दुबारा मिलने की चर्चाओं में बचता रहा
पिछली भेंट और प्रतीक्षा का इतिहास
और हर ताज़ा आश्वासन के बाद
बाँध की तरह खोले गए किवाड़
अचानक होने में बना एक नया विश्वास
जैसे संभावना न होने के बाद भी
बारिश हो सकने का आधिकारिक प्रमाण
भेंट की दबी-सी प्रस्तावना में हुआ
स्मृतियों को गल्प होने से बचाने का प्रयास।
प्रेम का आगमन
प्रेम का आगमन
जैसे सुबह-सुबह डाल के छोर पर
फुदकती एक फुनगी
माघ की दुपहर में
पीठ के बाद
गर्दन पर फिसल आई धूप
इतना प्रतीक्षित कि अचानक।
भयमय जीवन, भयमय प्रेम
दुकान दर दुकान
छूट के प्रतिशत की गुहार लेकर
पूरी साँझ दौड़ कर जुटाई रसद
मुझे झोले के फटने का डर रहता था
बाज़ार के उठ जाने का
या सस्ती तरकारी के न मिल पाने का
मैं अपने बच्चों को घर में बंद कर
उत्साह से फूलता हुआ
छज्जे से देखता था रैलियाँ
मुझे खिड़की के काँच फूटने का डर रहता था
बसवालों के हड़ताल करने का
या जूतों के तल्ले घिस जाने का
मेरी हड्डियाँ पतली थीं
नहीं जुट पाई क्रांति भर हिम्मत
नहीं आया इतना क्रोध
कि मुट्ठी भींच कर कुछ गढ़ तोड़ दूँ
शांति में भी रहा मुझे हिंसा का भय
भयाक्रांत ही मैंने प्रेम किया और उसी में पड़ा रहा।
अनर्ह मैं
अनर्ह हूँ
बुरा कहे जाने के लिए भी
मेरा झूठ उनके झूठ से मेल नहीं खाता
मैं पुस्तकालय में पड़ी ढोलक हूँ
मेरी उपस्थिति मेरा अभिशाप है।
अमित तिवारी हिंदी कवि-अनुवादक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें :
प्यार, परिधि और चुंबन
स्तब्धता मेरा समर्पण थी
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वाह्ह अद्भुत